दलितों के बीच मिली बढ़त को बनाए रखना चाहती है बीजेपी

By अजय कुमार | Jun 23, 2017

2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से उत्तर प्रदेश सियासी रूप से लगातार मालामाल होता जा रहा है। सियासी रूप से यूपी की झोली भरी है तो इसका पूरा श्रेय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को जाता है। गुजरात से निकल कर जब दिल्ली की तरफ मोदी ने पहला कदम रखा था, तभी से उनके दिलो−दिमाग पर यूपी छाया हुआ था। यह भी कहा जा सकता है कि सियासत के पारखी मोदी को पता था कि दिल्ली का रास्ता वाया यूपी ज्यादा मुफीद रहता है, इसलिये उन्होंने लोकसभा की पारी खेलने के लिये यूपी को प्राथमिकता दी। धर्मनगरी वाराणसी से लोकसभा चुनाव लड़े और बड़े अंतर से विजय हासिल करने में सफल रहे।

मोदी ने वाराणसी से चुनाव लड़कर जब यूपी को अपना सियासी 'घर' बनाया तो यहां उनके लिये राह आसान नहीं थी। बीजेपी का जनाधार लगातार घटता जा रहा था। नेतागण सड़क की बजाय ड्राइंग रूम में बैठकर सियासत की पींगे बढ़ा रहे थे। कार्यकर्ताओं में निराशा घर कर चुकी थी। बीजेपी विधानसभा में दहाई का आंकड़ा भी नहीं पार कर पा रही थी। ऐसे समय में मोदी का यूपी में आना और राष्ट्रीय राजनीति पर छा जाना किसी चमत्कार से कम नहीं रहा। मोदी ने यूपी बीजेपी का कायाकल्प कर दिया। हर वह दांव अपनाया जिससे बीजेपी को बढ़त मिल सकती थी। इसका परिणाम यह हुआ कि यूपी के सहारे वह पहले स्वयं पीएम की कुर्सी पर बैठे उसके बाद कई राज्यों में बीजेपी का परचम फहराने लगा। इस दौरान कई राज्यों में बीजेपी की सरकारों का गठन हुआ। मोदी के मास्टर स्ट्रोकों ने विपक्ष की आंखों की नींद और दिल का चैन उड़ा दिया था। सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात रही यूपी में बीजेपी की वापसी। बीजेपी की पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनी तो सियासी पंडित ठीक वैसे ही हैरान−परेशान हो गये जैसे कि अब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के राष्ट्रपति प्रत्याशी के रूप में यूपी के दलित नेता और बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद का नाम सामने आने से हैरान हैं।

 

कई नामों की चर्चा के बीच मोदी−शाह की जोड़ी ने ऐसे नाम को चुना जिसका विरोध करना यूपीए के लिये आसान तो नहीं होगा ही, राष्ट्रपति चुनाव के बहाने एकजुटता दिखाने की उनकी कोशिशों पर भी ग्रहण लग सकता है। इस बात के शुरूआती संकेत मिलने भी लगे हैं। ओड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक, बसपा नेत्री मायावती से लेकर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तक के सुर कोविंद के पक्ष में बदल गये हैं। इस कड़ी में अभी और कई नाम जुड़ सकते हैं। कांग्रेस और वामपंथियों के लिये भी कोविंद का विरोध करना इतना आसान नहीं होगा। वर्ना उन्हें भी तृणमूल कांग्रेस की नेत्री और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तरह खोखली बातें करनी पड़ेंगी, 'मैं तो कोविंद को जानती ही नहीं हूं। देश में और भी बड़े दलित नेता हैं। उन्हें सिर्फ इसलिये उम्मीदवार बनाया गया है कि वह भाजपा अनुसूचित जाति−जनजाति के मोर्चा के नेता रह चुके हैं।' ताज्जुब होता है जब कोई मुख्चमंत्री जब ऐसी बातें करता है। पश्चिम बंगाल और बिहार अगल−बगल के राज्य हैं और दोनों के बीच रोटी और बेटी का संबंध रहता है। रामनाथ कोविंद बिहार के राज्यपाल हैं और ममता कहती हैं कि उन्हें कोई जानता ही नहीं है। असल में ममता सिर्फ विरोध के लिये विरोध कर रही हैं, उन्हें पता है कि इससे कोविंद के विजय पथ पर कोई अड़चन है ही नहीं। राजग के पास इतना बहुमत है कि वह अपना प्रत्याशी आसानी से जिता सकता है। अगर कोई अजूबा नहीं हुआ तो उनका राष्ट्रपति बनना निश्चित है।

 

कोविंद दलित नेता तो हैं ही इससे बड़ी बात यह है कि उनकी छवि बेदाग है। कोविंद मूल रूप से उत्तर प्रदेश की औद्योगिक नगरी कानपुर के रहने वाले हैं। कोविंद का सम्बन्ध कोरी या कोली जाति से है, जो उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति के अंतर्गत आती है। कोविंद 12 वर्ष तक राज्यसभा सदस्य रहे हैं। वह भाजपा अनुसूचित जाति मोर्चा के प्रमुख भी रहे हैं। इसके अलावा वह उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय में वकालत भी कर चुके हैं। कानपुर से उन्होंने सियासी दांवपेंच सीखे थे। सफल अधिवक्ता के अलावा एक सहज इंसान के रूप में भी उनकी पहचान होती है।

 

कोविंद, पीएम मोदी और बीजेपी के लिये सबसे पसंदीदा उम्मीदवार इसलिये बने क्योंकि बीजेपी की नजर 2019 के लोकसभा चुनाव पर टिकी है, जिस तरह से विरोधियों द्वारा छोटी−छोटी घटनाओं को बड़ा बनाकर बीजेपी को दलित विरोधी जामा पहनाने का प्रयास किया जा रहा था, उसकी काट के लिये ऐसा करना जरूरी भी था। दलित समुदाय से होना कोविंद की उम्‍मीदवारी की बड़ी वजह बना। रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाने के बाद भाजपा के लिए सबसे आसान काम होगा उनके नाम पर आम राय बनाना। पार्टी अगर लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी या किसी अन्य बड़े नेता को अपना उम्‍मीदवार तय करती तो पूरी संभावना थी कि विपक्ष ऐसे प्रत्याशी के खिलाफ लामबंद हो जाता, लेकिन रामनाथ कोविंद के नाम पर शायद ही किसी को आपत्ति हो। बिहार में राज्यपाल रहने के दौरान लालू और नीतीश से उनके मधुर संबंध रहे हैं। सौम्य स्वभाव के कारण विपक्ष के कई नेताओं से भी उनके अच्छे संबंध माने जाते हैं। ऐसे में उनके चेहरे पर आम राय बनने की पूरी उम्‍मीद है। हालांकि कुछ दलों ने इस मुद्दे पर चुप्पी साध रखी है, लेकिन ये तात्कालिक हो सकती है।

 

बात बीजेपी के दलित रूझान की कि जाये तो लोकसभा और फिर यूपी के विधानसभा चुनावों में जिस तरह से दलितों ने अपने पुराने सिपहसालारों को छोड़ भाजपा को समर्थन किया, उस बढ़त को पार्टी किसी भी सूरत में खोना नहीं चाहती है। ऐसे में राष्ट्रपति चुनाव के लिए किसी दलित चेहरे को आगे करने से बड़ा दांव और क्या हो सकता था। कोविंद के सहारे पार्टी सबका साथ सबका विकास के नारे को भी आगे बढ़ायेगी। बसपा नेत्री मायावती तो कोविंद का विरोध करने की हिम्मत जुटा ही नहीं पा रही हैं। समाजवादी पार्टी के लिये भी ऐसा करना आसान नहीं होगा। पहली बार उत्तर प्रदेश के किसी नेता को राष्ट्रपति चुना जा रहा है इसलिये सपा को भी काफी सोच समझ कर फैसला लेना होगा। दलितों को रिझाने के लिये बीजेपी जिस तरह के पराक्रम कर रही है उससे तो यही लगता है कि राष्ट्रपति चुनाव के बाद यूपी बीजेपी का अगला अध्यक्ष भी कोई दलित चेहरा हो सकता है।

 

बहरहाल, कोविंद के रूप में मोदी ने अपना मास्टर स्ट्रोक चल दिया है। अब विपक्ष को इसकी तोड़ निकालनी है, लेकिन फिलहाल तो कांग्रेस, जो राष्ट्रपति चुनाव के बहाने विपक्ष को लामबंद करना चाहती थी, हाशिये पर चली गई है। इसीलिये वह भाजपा के फैसले को एकतरफा बताकर अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश कर रही है। विपक्ष के पास कोविंद को टक्कर देने के लिये बस एक ही सूत्र बाकी रह गया है। वह भी किसी दलित को मैदान में उतार दे, लेकिन यह इतना आसान भी नहीं है। वोट बैंक का गणित जानने वालों को पता है कि बहुमत राजग के साथ है इसलिये कोई परिपक्व नेता शायद ही यूपीए का राष्ट्रपति उम्मीदवार बनने को अपनी सहमति दे। अगर यही (दलित) दांव विपक्ष पहले चल देता तो उसे कुछ फायदा हो सकता था, लेकिन वह ऐसा करने से चूक गया और अंत तक राजग के उम्मीदवार के नाम की घोषणा का इंतजार ही करता रह गया।

 

- अजय कुमार

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