भारतीय जनता पार्टी अपने मुस्लिम विरोधी विषदंत को छिपा नहीं सकती। पार्टी ने राष्ट्रपति पद के लिए हामिद अंसारी की उम्मीदवारी पर आम सहमति बनाने के बदले तीन शीर्ष नेताओं की एक कमेटी एक ऐसे उम्मीदवार की तलाश के लिए बनाई जो अधिकतर पार्टियों को मान्य हो।
मेरी समझ में नहीं आता कि अंसारी में क्या गलत है। उन्होंने राज्यसभा को बहुत अच्छे तरीके से चलाया है और इसके पहले उपकुलपति के रूप में उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी को एक वास्तविक रूप से सफल संस्थान बनाया था। उनकी विद्वता संदहे से परे है और सेकुलरिज्म के प्रति उनकी प्रतिबद्धता में कोर्इ दाग नहीं है।
गैर−भाजपा पार्टियां अंसारी, जो सभी राजनीतिक पार्टियों को स्वीकार्य हैं, को उम्मीदवार बनाने की संभावना तलाशने के लिए साथ आई हैं। उपराष्ट्रपति रहते हुए विपक्ष का उम्मीदवार बनना उनके लिए संकोच की बात होगी। पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम दूसरे कार्यकाल के लिए बहुत सारी विपक्षी पार्टियों की लोकप्रिय पसंद थे, लेकिन उम्मीदवारी छोड़ने के पहले उन्हें इसी तरह की दुविधा का सामना करना पड़ा। इसलिए उन्हें जो सारा मिला वह सिर्फ यही था कि औरंगजेब रोड़ का नाम बदलकर डॉ. अब्दुल कलाम रोड़ रख दिया गया।
भाजपा ने अंत में आरएसएस की पसंद पर सही का निशान लगाया है। इसने इसके संकेत दिए हैं कि वह देश की सेकुलर भावना का ख्याल रखेगी। लेकिन इसका कोर्इ महत्व नहीं है क्योंकि जब सर्वोच्च संवैधानिक पद के लिए किसी व्यक्ति के चयन का सवाल आएगा तो एक मुस्लिम उम्मीदवार आरएसएस के जेहन से बहुत दूर रहेगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अंत में पार्टी को अपनी पसंद का उम्मीदवार चुनने के लिए कुहनी मारेंगे। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के भाषणों से साफ लगता है कि उम्मीदवार मुसलमान को छोड़कर कोर्इ भी होगा। वह दक्षिणी राज्यों समेत देश के विभिन्न हिस्सों का दौरा कर रहे हैं और इस पर जोर दे रहे हैं कि राष्ट्रपति पद के लिए जिस किसी व्यक्ति को उम्मीदवार बनाया जाए वह सत्तारूढ़ पार्टी के लिए स्वीकार होने योग्य हो।
संसद के दो सदन और राज्य विधानमंडल मिल कर राष्ट्रपति का निवार्चक मंडल बनाते हैं और यही लगता है कि भाजपा की ही चलेगी। भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री मोदी के मंत्रिमंडल के तीन सदस्यों− राजनाथ सिंह, अरूण जेटली और वेंकैया नायडू की कमेटी बनाने से यह साफ हो जाता है कि पार्टी का शीर्ष नेतृत्व ही अंत में यह तय करेगा कि किस व्यक्ति को राष्ट्रपति भवन पहुंचना है।
लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन, जिन्हें सत्तारूढ़ पार्टी का समर्थन था, का नाम अब हटा दिया गया है। एआइडीएमके या डीएमके की ओर से भी उनके नाम पर विचार नहीं हो रहा है। जाहिर है कि व्यक्ति दक्षिणी राज्यों, आंध्र, तेंलागना, कनार्टक, तमिलनाडु और केरल को मान्य होना चाहिए।
यहां तक एलके आडवाणी भी भाजपा उम्मीदवार की तरह लगते थे। शायद, बाबरी मसजिद विध्वंस मामले में अदालत के फैसले के कारण पार्टी को दूसरी ओर देखना पड़ रहा है क्योंकि आडवाणी पर मस्जिद नष्ट करने की साजिश में हिस्सा लेने का आरोप लगाया गया है। इतने सालों में आडवाणी का खुरदरा हिस्सा खत्म हो गया है और वह ज्यादा उस तरह के व्यक्ति हैं जो कराची गया और जिसने कायदे−आजम मोहम्मद अली जिन्ना की मजार पर फूल मालाएं चढ़ाईं।
अगर हम अतीत की ओर देखें तो पता चलता है कि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बीच विवाद एकदम दुर्लभ नहीं हैं। पहले के सात राष्ट्रपतियों में सिर्फ डॉ. जाकिर हुसैन तथा फखरूद्दीन अली अहमद ने सार्वजनिक रूप से बिना किसी टकराव के पद छोड़ा है। जाकिर हुसैन जिनका निधन काम करते ही हुआ, अपने शैक्षणिक कामों में लगे रहे जबकि अहमद अब तक के भारत के राष्ट्रप्रमुखों में सबसे लचीले थे। यह उनका ही कार्यकाल था जिसमें आपातकाल की घोषणा हुई और उन्होंने बिना यह देखे इस पर दस्तखत कर दिया कि इसे कैबिनेट की स्वीकृति थी या नहीं। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और डॉ. राजेंद्र प्रसाद के बीच कई संवैधानिक टकराव हुए। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन तो 1962 में चीन के हाथों भारत की पराजय के बाद रक्षा मंत्री कृष्णा मेनन को बर्खास्त कराने में भी सफल रहे थे। राधाकृष्णन ने 1967 में 'सत्तारूढ़ कांग्रेस के लिए भी असुविधाजनक स्थिति पैदा कर दी थी जब राजस्थान विधानसभा में बहुमत साबित करने के लिए स्वतंत्र पार्टी के विधायकों को उन्होंने राष्ट्रपति भवन में परेड की अनुमति दे दी थी।
यहां तक की प्रमुख ट्रेड यूनियन नेता वीवी गिरी, जो इंदिरा गांधी की मदद से राष्ट्रपति पद के लिए चुने गए थे, ने सरकार के मजदूर विरोधी कानूनों पर अक्सर आपत्ति व्यक्त की। इसलिए जब केंद्र ने हड़ताली रेलवे कमर्चारियों को बर्खास्त करना चाहा तो उन्होंने आपत्ति की। सुप्रीम कोर्ट में सीनियर जजों की जगह जूनियर जजों का पदोन्नति देने पर भी उन्होंने अपना विरोध दर्ज कराया।
बीडी जत्ती जो उस समय कार्यकारी राष्ट्रपति थे और गिरी के बाद आए थे सबसे ज्यादा दृढ़ साबित हुए। जनता पार्टी ने जब कांग्रेस शासित राज्यों की नौ विधानसभाओं को भंग करने के अध्यादेश पर दस्तखत करने का आग्रह किया तो उन्होंने यह कह कर टाल−मटोल किया कि बिना उचित कारण के सही ढंग से चुनी गई विधानसभाओं को भंग करने का अधिकार केंद्र को नहीं है। प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को मजबूरन धमकी देनी पड़ी कि अगर राष्ट्रपति ने अध्यादेश में देरी लगाई तो वह त्यागपत्र दे देंगे और जनता पार्टी ने तो राष्ट्रपति के खिलाफ प्रदर्शन भी आयोजित किए।
जनता पार्टी ने संजीव रेड्डी को राष्ट्रपति पद पर बिठा दिया, लेकिन इसके बाद भी परिस्थितियां नहीं सुधरीं। मोरारजी देसाई और रेड्डी मिल कर नहीं रह पाए और देसाई ने उन्हें रस्मी विदेश यात्राएं करने से भी रोक दिया। जनता सरकार से शिकायत होने की वजह से रेड्डी ने मोरारजी देसाई को लोकसभा में बहुमत नहीं रहने पर चरण सिंह को सरकार बनाने का न्योता देकर इतिहास बना दिया। उन्होंने यह भी उदाहरण बना दिया कि बहुमत साबित करने में विफल प्रधानमंत्री की सलाह पर लोकसभा भंग कर दी। यहां तक कि ज्ञानी जैल सिंह ने इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी को संसदीय दल का नेता चुने जाने के पहले ही प्रधानमंत्री पद पर बिठा दिया। यह अलग बात है कि ज्ञानी जैल सिंह और राजीव गांधी आपस में टकराते रहे।
मैं चाहता था कि प्रणब मुखर्जी अपने कार्यकाल का उपयोग उस निर्णय को मिटाने में करते जो उन्होंने आपातकाल के दौरान लिया था। वह संविधान से बाहर सत्ता रखने वाले संजय गांधी के दाहिने हाथ थे। इसलिए इतिहास में उनका नाम अच्छे रूप में नहीं जाएगा। अपने पूववर्तियों की तरह वह भी विवादों में उलझे रहे, खासकर जब उन्होंने पद पर रहते किताब लिखी। राष्ट्रपति भवन के अनुभवों को लिखने के लिए उन्हें अपने रिटायर होने का इंतजार करना चाहिए था। केंद्र में वर्तमान सरकार को इस बारे में बताना चाहिए था कि अगर देश में नरम हिंदुत्व फैल रहा है तो सेकुलरिज्म कैसे बचेगा। अंसारी को पदोन्नति देकर भाजपा लोगों को यह भरोसा दे सकती थी कि देश के मूल्यों को नष्ट नहीं होने दिया जाएगा और भारत की सोच− लोकतांत्रिक और सेकुलरिज्म में फिट नहीं होने वाली चीजें नहीं होने दी जाएंगी।
- कुलदीप नायर