मोदी को लोग देश के लिए चाहते हैं, राज्यों में भाजपा को सशक्त नेतृत्व खड़े करने होंगे

By डॉ. अजय खेमरिया | Dec 24, 2019

अबकी बार 65 पार झारखंड में, हरियाणा और छत्तीसगढ़ में 75 पार, मध्य प्रदेश में 200 पार, राजस्थान में 150 पार, महाराष्ट्र में 200 पार। यह नारे बीजेपी ने राज्यों के विधानसभा चुनाव जीतने के लिये गढ़े थे लेकिन इनमें से किसी भी राज्य में पार्टी इन महत्वाकांक्षी आंकड़े के आसपास भी नहीं पहुँच पाई। दो वर्ष पहले देश की 71 फीसदी जनता पर जिस पार्टी का राज था वह अब घट कर 31 फीसदी पर आ गया है। राजनीतिक विश्लेषकों की नजर में यह मोदी और अमित शाह के जनप्रभुत्व के उतार की शुरुआत है। वैसे इसी बात को लोकसभा क्षेत्र के हिसाब से देखा जाए तो इन राज्यों में विपक्षी दल कहीं टिकते हुए नजर नहीं आते हैं और इसे आप दोनों नेताओं के निर्णायक उतार से सीधे जोड़ नहीं सकते। झारखंड की करारी शिकस्त के साथ ही यह सवाल भी उठने लगा है कि क्या बीजेपी नेतृत्व और इसके कैडर के बीच कोई वैचारिक विचलन खड़ा होने लगा है?

 

सवाल यह है कि जिस विचार और वैकल्पिक राजनीति के लिये बीजेपी को खड़ा किया गया है उसके साथ मोदी 2.0 सरकार द्वारा व्यापक प्रतिबद्धता दिखाने के बावजूद राज्यों में बीजेपी की लगातार हार के जमीनी निहितार्थ क्या हैं ? गहराई से विश्लेषण किया जाए तो समझा जा सकता है कि देश का मतदाता अब राष्ट्रीय और स्थानीय राजनीति को एक ही चश्मे से नहीं देख रहा है। इसे भारत में संसदीय लोकतंत्र के बदलते या यूं कहा जाए परिपक्व होते 'मतदान व्यवहार' के रूप में मान्यता दिए जाने की आवश्यकता है। झारखंड की हार हो या मप्र, छत्तीसगढ़ अथवा राजस्थान की। सभी राज्यों में एक बात समान है वह यह कि लोग राजकाज से जुड़ी दैनंदिन समस्याओं और अनुभव को अपने अलग-अलग मतदान व्यवहार के प्रमुख कारक के रूप में स्थापित कर रहे हैं।

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राजस्थान में खुद प्रधानमंत्री की सभाओं में चुनाव से पहले वहाँ की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के विरुद्ध नारेबाजी होती थी। मप्र में शिवराज सिंह के माई के लाल वाले बयान ने सवर्णों को साल भर पहले पूरे प्रदेश में लामबंद कर दिया था। रघुवर दास की कहानियां भी किसी से छिपी नहीं थीं। मनोहर लाल खट्टर का नाकाम चेहरा पूरे देश ने जाट आंदोलन के दौरान देखा ही था। इन सभी राज्यों में जनमत का मूड दीवार पर बड़े बड़े हरूफ में लिखी इबारत की तरह पढ़ा जा सकता था लेकिन जिन्हें पढ़ना और प्रमेय की तरह इसे सुलझाना था वह निर्णयन कहीं नजर नहीं आया। जिस सख्त और व्यक्तिगत ईमानदारी का अक्स लोग मोदी में देखते हैं उसे पार्टी के मुख्यमंत्री अपनी कार्यशैली में नहीं उतार पाए हैं। इस तथ्य को सभी को स्वीकार करना होगा।

 

बीजेपी का वैशिष्ट्य उसका औरों से अलग दिखना ही था लेकिन यह भी हकीकत है कि राज्यों में जिस व्यवस्था परिवर्तन के लिए लोग पार्टी से अपेक्षा रखते हैं उसे देने में उसके अधिकतर मुख्यमंत्री नाकाम रहे हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के मोर्चे पर अद्वितीय मिसाल के मामले में हमें कुछ भी खास नहीं दिखता है। इसलिये सत्ता के जरिये नई सामाजिकी, आर्थिकी गढ़ने के मामले में लोगों में निराशा का भाव है। मप्र में 7 सीट से बीजेपी सत्ता से पीछे रह गई जबकि उसके 13 कैबिनेट मंत्री चुनाव हारे। हरियाणा, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ में भी मंत्रियों के यही सूरते हाल थे, झारखंड में तो खुद मुख्यमंत्री रघुवर दास हार गए। समझा जा सकता है कि जिन चेहरों को पार्टी प्रशासन के लिये चिन्हित कर जिम्मेदारी देती है उसमें बुनियादी रूप से ही खामियां हैं। इन सभी राज्यों में निचले प्रशासनिक तंत्र में कोई ऐसा बदलाव आज नजर नहीं आता है जो आम लोगों को व्यवस्था परिवर्तन या जनोन्मुखी होने का एहसास कराता हो। सवाल उठाया जा सकता है कि मप्र, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में तो तीन-तीन बार सरकारें बीजेपी ने बनाई हैं लेकिन जमीनी राजनीतिक विश्लेषकों को पता है कि यहां कांग्रेस की आपसी लड़ाई एक निर्णायक फैक्टर रहा है। साथ ही राज्य प्रायोजित लोकलुभावनी योजनाओं की भूमिका भी निर्णायक है। ऐसी लोकलुभावनी जमीन अक्सर टिकाऊ नहीं रहती है।

 

तो क्या यह माना जाए कि बीजेपी की राज्य की सरकारें मजबूत और पारदर्शिता पूर्ण शासन देने में नाकाम रही हैं। इसे आप पूरी तरह से भले न मानें पर राजनीतिक जनादेश के आगे तो इसे सच के रूप में अधिमान्यता देनी ही होगी।

 

इस तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है कार्यकर्ता या कैडर का। कैडर बीजेपी की निधि है। लेकिन लगता है सत्ता साकेत में इसे लावारिस घोषित कर दिया गया है। इसे समझने के लिए आपको मप्र की गुना लोकसभा सीट के नतीजे को विश्लेषित करना होगा। 2019 में यहां से कांग्रेस महासचिव ज्योतिरादित्य सिंधिया को करारी शिकस्त झेलनी पड़ी। यह हार असाधारण थी क्योंकि लोग मान कर चल रहे थे कि अमेठी में राहुल गांधी एक बार हार सकते हैं लेकिन सिंधिया ग्वालियर से नहीं हार सकते। आज इस लोकसभा क्षेत्र के किसी भी कार्यकर्ता से पूछ लीजिये उसे सिंधिया की अजूबामूलक हार पर कोई गौरव भाव नहीं है। कारण इस ऐतिहासिक जीत में उसकी कोई भूमिका है ही नहीं। इस भूमिका से कार्यकर्ताओं की अधिकतर जगह से बेदखली कब और कैसे हो गई यह बीजेपी के सत्ता केंद्रों को समझ ही नहीं आया। नए आधुनिक तौर तरीकों की आंधी में बीजेपी का कैडर बुरी तरह से जमींदोज हुआ है यह एक तथ्य है।

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मप्र, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में अपनी ही सरकारों से बीजेपी के कार्यकर्ताओं में इतनी नाराजगी थी कि राजधानी में वे किसी काम से अपने मंत्रियों के पास जाना छोड़ चुके थे। जाहिर है राज्यों में कैडर और सत्ता के बीच के खुले विरोधाभास को नया नेतृत्व समझ ही नहीं पाया है। इन राज्यों में सत्ता और संगठन के समेकन और समन्वय का कोई मैकेनिज्म अब इस पार्टी में दिखाई नही देता है। यूपी में 100 से ज्यादा विधायक इस समय अपनी ही सरकार से नाराज हैं। तथ्य यह है कि सत्ता और संगठन की बीजेपी अलग अलग नजर आती है। जिस सिंडिकेट सिस्टम ने कांग्रेस की सरकारों को जनता और संगठन से विलग किया वही हालात आज राज्यों में बीजेपी की सरकारों के साथ है। मोदी कैबिनेट के किसी सदस्य पर अभी तक कोई आरोप नहीं है उनकी कार्यशैली में पीएम का नियंत्रण और सख्त अनुशासन देश को नजर आता है लेकिन यह सिस्टम राज्यों में किसी बीजेपी सरकार में क्यों स्थापित नहीं हो पाया ? यह समझना इसलिये कठिन नहीं है क्योंकि राज्य सरकार जब हर कीमत पर बनाना और चलाना ही ध्येय हो तो मूल्य की कीमत तो लगती ही है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि परिपक्व होता मतदाता भारत में शासन तंत्र की बारीकियों को बखूबी पकड़ने लगा है, उसे पता है कि कश्मीर और पाकिस्तान से निबटने के लिये मोदी ही सक्षम हैं इसलिये मप्र, राजस्थान, छतीसगढ़, महाराष्ट्र, झारखंड के वोटर मोदी की झोली को लगातार भरते आ रहे हैं लेकिन वह रोज-रोज के प्रशासन, भ्रष्टाचार, मंत्रियों के नकारापन को हर बार मोदी की गारंटी पर  किसी रघुबर दास के लिये झेलने को तैयार नहीं हैं। इस ट्रेंड को हम भारत के संसदीय लोकतंत्र की शुभता निरूपित कर सकते हैं। संवैधानिक प्रावधान भी भारत के मतदाताओं को संघ और राज्यों की सरकार अलग अलग चुनने की व्यवस्था देते हैं इसलिये राज्यों में बीजेपी की हार भारत में मजबूत होते लोकतंत्र की तस्वीर भी गढ़ता है। बीजेपी को यह समझना ही होगा कि उसके वैशिष्ट्य में उसका विचार है न कि व्यक्ति। कैडर विचार से ऊर्जा लेता है, शुचिता से गति पाता है लेकिन सत्ता को हर कीमत पर पकड़ कर पटरानी बनाने की मानसिकता न कैडर को उर्जिकरत करता है न व्यवस्था परिवर्तन का अहसास समाज को करा पाता है। यही बुनियादी गलती कांग्रेस के नेतृत्व ने की थी समय रहते अगर बीजेपी नेतृत्व ने इसका शमन नहीं किया तो अबकी बार 200 पार या 65 पार के नारे ऐसे ही सत्ता से इलाकाई क्षत्रपों को किनारे लगाते रहेंगे। हाईटेक प्रक्रिया के जरिये विश्व की सबसे बड़ी पार्टी के सदस्यों के मन की बात से भी बाख़बर रहे बीजेपी नेतृत्व। झारखंड का सन्देश यही है फिलहाल।

 

-डॉ. अजय खेमरिया

 

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