राममंदिर के लिए संसद में प्रस्ताव लाकर कांग्रेस को ''हिन्दुत्व'' पर घेरने की तैयारी

By अजय कुमार | Oct 24, 2018

अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव की आहट के बीच एक बार फिर अयोध्या में भगवान श्रीराम के भव्य मंदिर निर्माण का शोर सुनाई पड़ने लगा है। अबकी बार की खासियत यह है कि बीजेपी की मोदी−योगी सरकारें तो नहीं, लेकिन उनकी विचारधारा वाले साधू−संत और हिन्दूवादी संगठन मंदिर निर्माण की तारीख भी बता रहे हैं। संतों की उच्चाधिकार प्राप्त समिति की सरकार से कानून बनाकर मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त करने की मांग के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत जब कहें, 'बेवजह समाज के धैर्य की परीक्षा लेना किसी के हित में नहीं है। राम मंदिर निर्माण के लिये कानून लाए सरकार।' तो, समझा जा सकता है कि अयोध्या में मंदिर निर्माण को लेकर कहीं न कहीं खिचड़ी पक जरूर रही है। साधू−संत तो बाकायदा यहां तक कह रहे हैं कि 06 दिसंबर 2018 से अयोध्या में मंदिर निर्माण शुरू हो जायेगा। खास बात यह है कि कई मुस्लिम संगठन भी अब मंदिर निर्माण के पक्ष में बोलने लगे हैं। खुद को बाबर का वंशज बताने वाले भी कह रहे हैं कि अगर मंदिर निर्माण हुआ तो वह सोने की ईंट देंगे।

 

दरअसल, उत्तर प्रदेश में बीजेपी की सरकार के गठन के बाद से ही मोदी सरकार के ऊपर मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त करने का चौतरफा दबाव बन रहा है। बीजेपी के भीतर से भी समय−समय पर मंदिर निर्माण की आवाज उठती रहती है। मंदिर से लेकर तमाम सियासी सरगर्मियों के बीच राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 24 अक्टूबर को लखनऊ में एक बैठक भी करने जा रहा है, जो इस दिशा में 'मील का पत्थर' साबित हो सकती है। तय कार्यक्रम के अनुसार भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह, यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ और दोनों उप मुख्यमंत्री, योगी सरकार के तमाम मंत्रियों, बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष डॉ. महेंद्र नाथ पांडेय और प्रदेश महामंत्री संगठन सुनील बंसल भी इसमें हिस्सा लेंगे। हाल ही में नागपुर में संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत के राम मंदिर पर ताजा बयान के बाद इस बैठक का महत्व और बढ़ गया है। मोहन भागवत के अलावा संघ के सह सरकार्यवाह डॉ. कृष्णगोपाल सहित कई अन्य प्रमुख लोग इस बैठक में शामिल होंगे। बैठक में योगी सरकार के कामकाज, मंत्रिमंडल विस्तार और संगठन में कई चेहरों के भविष्य पर भी मुहर लगेगी। इसके अलावा लोकसभा चुनाव का रोडमैप बनाने के साथ कई अन्य मुद्दों पर भी बातचीत होगी।

 

बहरहाल, लाख टके का सवाल यही है कि क्या आम चुनाव से पूर्व मंदिर निर्माण हो पायेगा ? या यह एक बार फिर चुनावी शिगूफा साबित होगा। भारतीय जनता पार्टी पर हमेशा से राम मंदिर के नाम पर सियासत का आरोप लगता रहा है। खासकर, जब से केन्द्र में मोदी और यूपी में योगी का राज आया है तब से यह हमला और भी तेज हो गया है। बीजेपी जब भी किसी मंच पर मंदिर निर्माण की वकालत करती तो विपक्ष बीजेपी पर तंज कसने लगता है, 'मंदिर वहीं बनायेंगे, पर तारीख नहीं बतायेंगे।' मामला सुप्रीम कोर्ट में होने के कारण विपक्ष के हमले से बीजेपी तिलमिला कर रह जाती है। यह सिलसिला कई वर्षों से अनवरत जारी था। मंदिर निर्माण ऐसा मुददा था, जिसकी मुखालफत करके मुलायम और लालू यादव जैसे नेता सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने में कामयाब रहे तो कांग्रेस सहित तमाम दलों ने बीजेपी की राम मंदिर निर्माण की सियासत के खिलाफ लामबंदी करके मुस्लिम वोटों की खूब लामबंदी की। बीजेपी को साम्प्रदायिक पार्टी करार दे दिया गया। मुसलामनों को डराया गया कि अगर बीजेपी सत्ता में आ जायेगी तो उनके लिये देश में रहना मुश्किल हो जायेगा। मुस्लिम तुष्टिकरण के चलते ही पूर्ववर्ती यूपीए सरकार के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यहां तक कह दिया कि प्राकतिक सम्पदा पर पहला हक मुसलमानों का है। मुस्लिम तुष्टिकरण का यह सिलसिला कई दशकों तक चलता रहा। ऊंच−नीच के नाम पर हिन्दुओं को आपस में लड़ाया गया। यह सिलसिला 2014 में तब कमजोर पड़ा जब मोदी ने विरोधियों की तुष्टिकरण की सियासत के खिलाफ हिन्दुत्व को धार देकर शानदार जीत हासिल की और कांग्रेस को बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा। शर्मनाक हार के लिये के बाद कांग्रेस ने हार के कारणों का पता लगाने के लिये एंटोनी कमेटी का गठन किया, जिसने अपनी रिपोर्ट में कहा कि कांग्रेस को हिन्दू विरोधी छवि के कारण नुकसान उठाना पड़ा, लेकिन कांग्रेस के शीर्ष नेताओं को एंटोनी कमेटी की बात समझ में नहीं आई।

 

उधर, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, बिहार में लालू यादव का राष्ट्रीय जनता दल और पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी जैसे नेताओं का मुस्लिम वोटों की सियासत से मोहभंग नहीं हो पाया था, लेकिन उनकी गलतफहमी दूर होने में ज्यादा समय नहीं लगा, क्योंकि बीजेपी हिन्दुत्व के सहारे एक के बाद एक राज्य में सत्तारूढ़ होती जा रही थी।

  

वैसे, हकीकत यह भी है कि राम मंदिर विवाद को लेकर सुप्रीम कोर्ट से इतनी जल्दी फैसला आने की उम्मीद किसी को नहीं है। अगर मोदी सरकार कानून बनाकर मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर दे तो बीजेपी को अगले वर्ष होने वाले आम चुनाव के साथ−साथ इसी वर्ष के अंत में पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में भी इसका फायदा मिल सकता है। योगी सरकार मंदिर निर्माण के लिये प्रस्ताव केन्द्र को भेज सकती है, जिसको आधार बनाकर मोदी सरकार इसे लोकसभा में आसानी से पारित करा लेगी, तो राज्यसभा में भी शायद ही कोई खास अड़चन आए। राजनैतिक नुकसान के डर से कांग्रेस शायद मंदिर निर्माण के लिये सुप्रीम कोर्ट का फैसला मान्य होगा, जैसा राग नहीं अलाप सकेगी। इसके अलावा विपक्ष के कुछ हिन्दू सांसद भी मंदिर निर्माण के पक्ष में आ सकते हैं। यह बात इस लिये पुख्ता तौर पर कही जा सकती है क्योंकि अब गैर बीजेपी दल ऐसे किसी मुद्दे को हवा नहीं देते हैं जिससे हिन्दू समाज नाराज हो जाये। इसीलिये तो जब इलाहाबाद का नाम बदलकर प्रयागराज किया गया तो कहीं भी विरोध के स्वर नहीं फूटे। इससे पहले मदरसों की मनमानी पर योगी सरकार ने डंडा चलाया। मदरसों में राष्ट्रीय गान को गाना अनिवार्य किया। बूचड़खानों पर सख्ती की, लेकिन किसी भी दल ने इन फैसलों के खिलाफ योगी सरकार को घेरने की कोशिश नहीं की। क्योंकि मुस्लिम तुष्टिकरण की सियासत करने वालों को डर सता रहा था कि कहीं हिन्दू वोटर नाराज न हो जायें।

 

लब्बोलुआब यह है कि मोदी सरकार के खिलाफ विपक्ष जिस तरह से लामबंदी कर रहा है। सरकार के हर फैसले पर उंगली उठाई जा रही है। जनआक्रोश को भड़काया जा रहा है। मॉब लिंचिंग की घटनाओं को हवा−पानी देकर मोदी सरकार को पूरी तरफ असफल करार दिया जा रहा है। भगोड़े उद्योगपतियों- विजय माल्या, नीरव मोदी, मेहुल चौकसी की आड़ लेकर केन्द्र सरकार पर कीचड़ उछाला जा रहा है। लड़ाकू विमान राफेल की डील में 'खेल' की बात प्रचारित की जा रही है। उसके चलते मोदी की राह आसान नहीं लगती है। ऐसे में हिन्दुत्व का उभार बीजेपी की नैया पार लगाने के लिये महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

 

इस बीच खबर यह भी आ रही है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा का विजय रथ रोकने के लिए सपा−बसपा के गठबंधन में कांग्रेस व रालोद के शामिल होने पर भी सहमति बन गई है। महागठबंधन सभी सीटों पर भाजपा के खिलाफ साझा प्रत्याशी उतारने की तैयारी में है। जानकारों की मानें तो सीटों पर अंतिम फैसला होना अभी बाकी है। बसपा लगभग 40 सीटों पर दावा कर रही है। ऐसे में सपा को अपने खाते से सीटें कांग्रेस व रालोद को बांटनी पड़ सकती हैं। सपा अगर 30 सीटों पर उम्मीदवार उतारती है तो उसे 10 सीटें कांग्रेस व रालोद को देनी पड़ सकती हैं। देखने वाली बात यह होगी कि कांग्रेस व रालोद बसपा−सपा की शर्तों पर गठबंधन में शामिल होने को तैयार होते हैं या कोई अलग राह चुनते हैं। सवाल यह भी है कि शिवपाल यादव का सेक्युलर मोर्चा, डॉ. अयूब की पीस पार्टी, कौमी एकता दल जैसे छोटे दलों जिनकी कुछ विशेष इलाके में अच्छी खासी पैठ है, वह किस करवट बैठेंगे।

 

-अजय कुमार

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