By अजय कुमार | Mar 04, 2021
राजनीति में टाइमिंग का बेहद महत्व होता है। कब कहां क्या बोलना है और कब किसी मुद्दे या विषय पर चुप्पी साध लेना बेहतर रहता है। इस बात का अहसास नेताओं को भली प्रकार से होता है, जो नेता यह बात जितने सलीके से समझ लेता है, वह सियासत की दुनिया में उतना सफल रहता है और आगे तक जाता है। मौजूदा दौर में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस मामले में अव्वल हैं तो कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी को इस बात का जरा भी अंदाजा नहीं है कि कब कहां, क्या बोलना सही रहता है। यही वजह है कि सियासत की दुनिया में मोदी नये मुकाम हासिल कर रहे हैं, वहीं राहुल गांधी हाशिये पर पड़े हुए हैं। राहुल की बातों को सुनकर लगता ही नहीं है कि उन्हें सियासत की गहराई पता है जबकि उन्होंने जन्म से ही घर में सियासी माहौल देखा था। राहुल गांधी से पूर्व नेहरू-गांधी परिवार ने जनता की नब्ज को पहचानने में महारथ रखने के चलते ही वर्षों तक देश पर राज किया था।
पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहर नेहरू हों या फिर इंदिरा गांधी या पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी, यह सभी यह बात जानते-समझते थे कि कैसे जनता से संवाद स्थापित किया जाता है। राजीव गांधी ही की तरह सोनिया गांधी को भी तमाम लोग एक सफल राजनेत्री मानते थे, लेकिन राहुल-प्रियंका इस मामले में कांग्रेस की सबसे कमजोर कड़ी साबित हो रहे हैं, लेकिन अब कांग्रेस के पास कोई विकल्प ही नहीं बचा है। राहुल गांधी की असफलता के बाद कांग्रेस प्रियंका वाड्रा को ‘ट्रम्प कार्ड’ के रूप में लेकर आगे आई थी, लेकिन अब प्रियंका की भी सियासी समझ पर सवाल उठने लगे हैं। सियासत का एक दस्तूर होता है, यहां हड़बड़ी से काम नहीं चलता है। बल्कि पहले मुद्दों को समझना होता है फिर सियासी दांवपेंच चले जाते हैं।
यह कहना अतिशियोक्ति नहीं होगा कि जनता की नब्ज पहचानने की कूवत जमीन और जनता से जुड़े नेताओं में समय के साथ स्वतः ही विकसित होती रहती है। इसके लिए कोई पैमाना नहीं बना है। इसी खूबी के चलते ही तो बाबा साहब अंबेडकर, डॉ. राम मनोहर लोहिया, सरदार पटेल, जयप्रकाश नारायण, चौधरी चरण सिंह, देवीलाल, जगजीवन लाल, अटल बिहारी वाजपेयी, मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, सुश्री मायावती, ममता बनर्जी, नीतिश कुमार, अरविंद केजरीवाल जैसे तमाम नेताओं को आम जनता ने फर्श से उठाकर अर्श पर बैठा दिया। यह सब नेता जनता की नब्ज और परेशानियों को अच्छी तरह से जानते-समझते थे। जनता के साथ रिश्ते बनाने की कला इनको खूब आती थी। उक्त तमाम नेता जन-आंदोलन से निकले थे। राहुल गांधी, प्रियंका वाड्रा, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव, चिराण पासवान की तरह उक्त नेताओं को अपने पिता या परिवार से किसी तरह की कोई सियासी विरासत नहीं मिली थी। किसी तरह की सियासी विरासत का नहीं मिलना ही, उक्त नेताओं की राजनैतिक कामयाबी का मूलमंत्र था।
बहरहाल, सियासत में टाइमिंग का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा उत्तर भारतीयों पर दिए गए बयान पर कहीं कोई खास प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिल रही है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि राहुल का बयान ‘नेपथ्य’ में चला गया है। बीजेपी नेता यदि राहुल पर हमलावर नहीं हैं तो इसकी वजह है दक्षिण के राज्यों में होने वाले विधान सभा चुनाव। बीजेपी उत्तर भारतीयों पर दिए राहुल गांधी के बयान पर हो-हल्ला करके दक्षिण भारत के कुछ राज्यों में होने वाले विधानसभा में होने वाले चुनाव में कांग्रेस को कोई सियासी फायदा नहीं पहुंचाना चाहती है, लेकिन अगले वर्ष जब उत्तर प्रदेश में विधान सभा चुनाव होंगे तब जरूर बीजेपी राहुल गांधी के बयान को बड़ा मुद्दा बनाएगी और निश्चित ही इसका प्रभाव भी देखने को मिलेगा। बीजेपी नेताओं को तो वैसे भी इसमें महारथ हासिल है।
खासकर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुनाव के समय ही विपक्ष के खिलाफ मुखर होते हैं, तब वह विरोधियों के अतीत में दिए गए बयानों की खूब धज्जियां उड़ाते हैं। सोनिया गांधी के गुजरात में मोदी पर दिए गए बयान ‘खून का सौदागार’ को कौन भूल सकता है, जिसके बल पर मोदी ने गुजरात की सियासी बिसात पर कांग्रेस को खूब पटखनी दी थी। इसी प्रकार कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर ने 2014 के लोकसभा चुनाव से पूर्व जब मीडिया से रूबरू होते हुए यह कहा कि एक चाय वाला भारत का प्रधानमंत्री नहीं हो सकता है तो इसी एक बयान के सहारे मोदी ने लोकसभा चुनाव की बिसात ही पलट दी। मोदी ने मणिशंकर अय्यर के बयान को खूब हवा दी।
दरअसल, जनवरी 2014 में मणिशंकर अय्यर ने एक कार्यक्रम के दौरान कहा था, '21वीं सदी में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन पाएं, ऐसा मुमकिन नहीं है। मगर, वह कांग्रेस के सम्मेलन में आकर चाय बेचना चाहें, तो हम उनके लिए जगह बना सकते हैं।’ इस बयान पर ऐसा बवाल हुआ था कि कांग्रेस को जवाब देते नहीं बन रहा था। कांग्रेस की सहयोगी पार्टियां भी अय्यर के इस बयान के खिलाफ खड़ी हो गई थीं और कहा था कि मोदी को चाय वाला कहना गलत है।
इसी प्रकार 2014 के लोकसभा चुनाव के समय ही एक जनसभा में भाषण देते हुए प्रियंका वाड्रा ने मोदी को नीच कह दिया था। प्रियंका गांधी ने मोदी की राजनीति को नीच बताया था। तब मामला नीच जाति तक पहुंच गया था। हुआ यूं कि अमेठी में नरेंद्र मोदी ने स्व. राजीव गांधी पर सीधा हमला बोला था, जिसके बाद उनकी बेटी प्रियंका गांधी ने कहा था कि मोदी की ‘नीच राजनीति’ का जवाब अमेठी की जनता देगी। मोदी ने प्रियंका के इस बयान को नीच राजनीति से निचली जाति पर खींच लिया और बवंडर खड़ा कर दिया। मोदी ने तब प्रियंका की नीच राजनीति वाले बयान पर कहा था कि सामाजिक रूप से निचले वर्ग से आया हूं, इसलिए मेरी राजनीति उन लोगों के लिये ‘नीच राजनीति’ ही होगी। हो सकता है कुछ लोगों को यह नजर नहीं आता हो, पर निचली जातियों के त्याग, बलिदान और पुरुषार्थ की देश को इस ऊंचाई पर पहुंचाने में अहम भूमिका है। प्रियंका के बयान पर कांग्रेस सफाई देते-देते परेशान हो गई, लेकिन इससे उसे कुछ भी हासिल नहीं हुआ और इसका खामियाजा कांग्रेस को सबसे बड़ी हार के रूप में भुगतना पड़ा।
लब्बोलुआब यह है कि राजनीति में कभी कोई मुद्दा या बयान ठंडा नहीं पड़ता है। आज भले ही बीजेपी के बड़े नेता राहुल गांधी के उत्तर भारतीयों पर दिए गए बयान को लेकर शांत दिख रहे हों, लेकिन राहुल के बयान के खिलाफ चिंगारी तो सुलग ही रही है। वायनाड से पहले अमेठी से सांसद रहे राहुल गांधी का केरल में उत्तर भारतीयों को लेकर दिया गया बयान न उनके पूर्व चुनाव क्षेत्र अमेठी के लोगों को रास आ रहा है न ही कांग्रेस के गढ़ रहे रायबरेली के लोगों को। लोगों का कहना है कि रायबरेली और अमेठी के लोगों ने गांधी परिवार को अपना नेता माना था और यह (अमेठी) उत्तर भारत में ही है। ऐसे में उनकी टिप्पणी उचित नहीं है। ऐसा बोल कर उन्होंने अपनों को पीड़ा पहुंचाई है। अमेठी से वह चुनाव जरूर हारे, लेकिन रायबरेली का प्रतिनिधित्व उनकी मां सोनिया गांधी के हाथ में है।
-अजय कुमार