माँ भारती की सेवा में समर्पित कर दिया था बिपिन चन्द्र पाल ने अपना सम्पूर्ण जीवन

By दीपक कुमार त्यागी | May 20, 2021

हमारे देश की आजादी में 'गरम दल' के 'लाल-बाल-पाल' की मशहूर तिकड़ी की बहुत ही अहम भूमिका मानी जाती है, इस महान तिकड़ी में 'लाल' थे लाला लाजपत राय, 'बाल' थे बालगंगाधर तिलक और 'पाल' थे बिपिन चन्द्र पाल, इन सभी महान क्रांतिकारियों के नाम भारतीय स्वाधीनता संग्राम आंदोलन के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखे गए हैं। इस तिकड़ी के बिपिन चन्द्र पाल को एक राष्ट्रवादी दिव्यद्रष्टा नेता होने के साथ-साथ, क्रांतिकारी, समाज-सुधारक, शिक्षक, निर्भीक पत्रकार, उच्च कोटि का लेखक व कुशल वक्ता माना जाता था। बिपिन चन्द्र पाल ने अपना सम्पूर्ण जीवन माँ भारती की सेवा में समर्पित कर दिया था, वो देश की आजादी के लिए समर्पित एक महान क्रांतिकारी योद्धा थे। उन्होंने अपने सशक्त प्रयासों से देश में अंग्रेजी हुकुमत की चूलें हिला देने का कार्य किया था, उनको देश में क्रांतिकारी विचारों का जनक माना जाता था, वो देश में स्वदेशी आंदोलन के सूत्रधार व उसके अग्रणी महानायकों में से एक थे। क्रांतिकारी बिपिन चन्द्र पाल देश की उन महान विभूतियों में शामिल हैं जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन की मजबूत बुनियाद रखने में अपनी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।


जीवन परिचय:- 


बिपिन चन्द्र पाल जी का जन्म 7 नवंबर 1858 में बंगाल के एक धनवान जमींदार कायस्थ हिन्दू परिवार में हुआ था। इनका जन्म स्थान अविभाजित भारत के हबीबगंज जनपद के सिलहट के पोइल गाँव में हुआ था, वर्तमान में इस जनपद का कुछ भाग बांग्लादेश एवं कुछ भाग असम में आता हैं। इनके पिता रामचन्द्र पाल फारसी के विद्वान थे और इनकी माता नारायणी देवी थी।

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बिपिन चन्द्र पाल की प्रारम्भिक शिक्षा एक मौलवी के सानिध्य में हुई थी, बाद में उन्होंने सेंट पॉल कैथेड्रल मिशन कॉलेज कलकत्ता में अध्यन किया था, लेकिन कुछ कारणों की वजह से उनको पढ़ाई बीच में ही छोड़ देनी पड़ी थी, वह वर्ष 1879 में एक विद्यालय मे पढ़ाने का कार्य करने लगे, उन्होंने कोलकाता में पुस्तकालय में भी काम किया था। वह एक बहुत ही विद्वान व्यक्ति थे उन्हें पढ़ने व लिखने का बहुत शौक था, उन्होंने गीता, उपनिषद आदि ग्रन्थों का अध्ययन किया था। 


उन्होंने अपने जीवनकाल में कलमकार के रूप में लेखन व संपादन का बहुत कार्य किया था। उनकी कुछ प्रमुख रचनाएं इस प्रकार हैं- इंडियन नेस्नलिज्म, नैस्नल्टी एंड एम्पायर, स्वराज एंड द प्रेजेंट सिचुएशन, द बेसिस ऑफ़ रिफार्म, द सोल ऑफ़ इंडिया, द न्यू स्पिरिट, स्टडीज इन हिन्दुइस्म, क्वीन विक्टोरिया आदि का लेखन किया था।


उन्होंने अपने जीवन में एक पत्रकार व संपादक के रूप में बहुत कार्य किया था। उन्होंने सिलहट से निकलने वाले 'परिदर्शक' नामक साप्ताहिक में कार्य आरम्भ किया। उनके द्वारा संपादित कुछ प्रमुख पत्रिकाएं इस प्रकार हैं- परिदर्शक, बंगाल पब्लिक ओपिनियन, लाहौर ट्रिब्यून, द न्यू इंडिया, द इंडिपेंडेंट इंडिया, बन्देमातरम, स्वराज, द हिन्दू रिव्यु , द डैमोक्रैट, बंगाली आदि थी।


बिपिन चन्द्र पाल बहुत ही छोटी आयु में ही ब्रह्म समाज में शामिल हो गए थे और समाज के अन्य सदस्यों की भांति वो भी उस समय देश में व्याप्त सामाजिक बुराइयों, जातिवाद और रुढ़िवादी परंपराओं का खुलकर विरोध करने लगे। उनका विरोध केवल शब्दों तक ही सीमित नहीं था, अपितु उनके आचरण में भी यह स्पष्ट रूप से साफ दिखाई देता था। उन्होंने बहुत ही छोटी उम्र में देश में जाति के आधार पर होने वाले भेदभाव के खिलाफ दमदार ढंग से आवाज उठायी और अपने से ऊंची जाति वाली एक विधवा महिला से विवाह किया था, हालांकि उनके परिवार ने इस विवाह का बहुत अधिक विरोध किया था, लेकिन उन्होंने अपनी पत्नी को मान-सम्मान दिलाने और अपने विचारों को मान देने की खातिर अपने परिवार तक को भी त्याग दिया था। बिपिन चन्द्र पाल अपनी धुन के बहुत पक्के थे, इसलिए उन्होंने बहुत अधिक पारिवारिक और सामाजिक दबाओं के बावजूद भी कोई समझौता नहीं किया था।


महान क्रांतिकारी बिपिन चन्द्र पाल ने 1905 के बंगाल विभाजन के विरोध में अंग्रेजी हूकूमत के खिलाफ चलने वाले आंदोलन में बहुत बड़ा योगदान दिया था, उन्होंने अंग्रेजों की सत्ता को हिला दिया था, इस आंदोलन को उस समय जन समुदाय का बहुत बड़े पैमाने पर व्यापक समर्थन मिला था। बिपिन चंद्र पाल 1886 में कांग्रेस में शामिल हुए। उन्होंने देश में स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की नीति को अपनाकर आजादी की लड़ाई के नयी धार देने का काम किया था।

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अंग्रेजों की औपनिवेशिकवाद नीति के खिलाफ पहले लोकप्रिय जनांदोलन को शुरू करने का श्रेय इन्हीं तीनों की महान तिकड़ी को ही जाता है। इन लोगों ने ब्रिटिश शासकों तक भारत की जनता व अपना सन्देश पहुंचाने के लिए विरोध के बेहद कठोर उपायों को अपनाकर अंग्रेजी शासकों को सबक सिखाने का काम किया था, उस समय लाल-बाल-पाल की महान तिकड़ी ने महसूस किया था कि भारत में बिकने वाले विदेशी उत्पादों से देश की अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है और भारत के लोगों का काम भी छिन रहा है। अपने 'गरम' विचारों के लिए मशहूर बिपिन चन्द्र पाल ने लाला लाजपतराय व बाल गंगाधर तिलक के साथ मिलकर, देश में स्वदेशी आन्दोलन को भरपूर बढ़ावा दिया और ब्रिटेन में तैयार सभी वस्तुओं का बहिष्कार भारतीयों से करवाया, उन्होंने मैनचेस्टर की मिलों में बने कपड़ों से परहेज करने के लिए देश के लोगों को प्रेरित किया, विदेशी कपडों की सार्वजनिक रूप से होली जलवायी और औद्योगिक तथा व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में हड़ताल, तालाबंदी आदि के अपने सशक्त हथियारों से ब्रिटिश हुकुमत की नीद उड़ाकर भारत में उनकी सत्ता को हिलाकर अंग्रेजों को जबरदस्त चुनौती दी थी। 


देश की आजादी के लिए राष्ट्रीय आंदोलन के शुरूआती सालों में ‘गरम दल’ की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही थी, क्योंकि इनकी भूमिका से देश में आजादी के आंदोलन को एक नई दिशा मिली थी और उनके प्रयासों से देश के लोगों के बीच आजादी प्राप्त करने के लिए जागरुकता बढ़ी। बिपिन चन्द्र पाल ने राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान देश की आम जनता में जागरुकता पैदा करने में बहुत अहम भूमिका निभाई थी। उनका मानना था कि ‘नरम दल’ के हथियार ‘प्रेयर-पीटिशन’ से देश को स्वराज नहीं मिलने वाला है, बल्कि स्वराज के लिए हमकों विदेशी हुकुमत पर करारा प्रहार करना पड़ेगा। इसी कारण उन्हें देश की आजादी के इतिहास में क्रांतिकारी विचारों का जनक कहा जाता है। उनका भारत पर राज करने वाली अंग्रेजी हुकुमत में बिलकुल भी विश्वास नहीं था और उनका हमेशा मानना था कि विनती और असहयोग जैसे हथियारों से अंग्रेजों जैसी विदेशी ताकत को पराजित नहीं किया जा सकता। इसी कारण उनका महात्मा गाँधी जी के साथ वैचारिक मतभेद था। वो किसी के विचारों से असहमत होने पर वह उस से अपने विचार व्यक्त करने में पीछे नहीं रहते। यहाँ तक कि विचारों से सहमत नहीं होने पर उन्होंने महात्मा गाँधी जी के कुछ विचारों का विरोध भी किया था।


उन्होंने क्रांतिकारी पत्रिका ‘बन्दे मातरम’ की स्थापना भी की थी। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की गरफ्तारी और स्वदेशी आन्दोलन के बाद, अंग्रेजों की दमनकारी नीति के बाद वे इंग्लैंड चले गए। वहाँ जाकर वह क्रान्तिकारी विचार धारा वाले ‘इंडिया हाउस’ से जुड़ गए, जिसकी स्थापना श्यामजी कृष्ण वर्मा ने की थी और उन्होंने वहां ‘स्वराज’ पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया। जब क्रांतिकारी मदन लाल ढींगरा ने सन 1909 में अंग्रेज अधिकारी कर्ज़न वाइली की हत्या कर दी तब ‘स्वराज’ का प्रकाशन बंद कर दिया गया और लंदन में बिपिन को बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ा था। 


वो केशवचंद्र सेन, शिवनाथ शास्त्री, एस.एन.बनर्जी और बी.के.गोस्वामी, महर्षि अरविंद, लाला लाजपतराय व बाल गंगाधर तिलक आदि जैसे नेताओं से बहुत अधिक प्रभावित थे, उन्होंने 1904 के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बम्बई सत्र, 1905 के बंगाल विभाजन आंदोलन, देश के महत्वपूर्ण स्वदेशी आंदोलन, असहयोग आंदोलन और 1923 की बंगाल की संधि में पूर्ण उत्साह के साथ भाग लिया था। उनको वंदे मातरम् राजद्रोह के मामले में अरविन्द घोष के खिलाफ गवाही देने से इंकार करने पर छह महीने की सजा हुई थी। लेकिन इसके बाद भी उन्होंने गवाही देने से इंकार कर दिया था। अपने जीवन के अंतिम समय में वो कुछ सालों के लिए कांग्रेस से अलग हो गए थे। जीवन भर भारत की आजादी के लिए संघर्ष करने वाला यह स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, देश की आजादी की जंग का महानायक का स्वतन्त्र भारत के स्वप्न को अपने मन में लिए 20 मई 1932 को कलकत्ता में स्वर्ग सिधार कर हमेशा के लिए चिरनिद्रा में सोकर अमर हो गया, और इस प्रकार भारत ने अपना एक महान और जुझारू राष्ट्रवादी स्वतंत्रता सेनानी खो दिया। जिसको तत्कालीन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के युद्ध में एक अपूरणीय क्षति के रूप में माना जाता है।


दीपक कुमार त्यागी

स्वतंत्र पत्रकार, स्तंभकार व रचनाकार

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