सितारों जैसी चमक वाली कांग्रेस इन कारणों से शून्य में विलीन हो गयी

By नीरज कुमार दुबे | Feb 11, 2020

देखा जाये तो दिल्ली विधानसभा चुनावों ने कांग्रेस के ताबूत में आखिरी कील ठोंक दी है। देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी के लिए यह बड़े शर्म की बात है कि राजधानी दिल्ली में उसका वोट प्रतिशत साढ़े चार फीसदी से भी नीचे आ गया है जबकि कांग्रेस ने दिल्ली की सत्ता पर 15 साल लगातार राज किया। कांग्रेस दिल्ली में एकदम बेदम हो गयी है और सरेंडर की मुद्रा में आ गयी है। पार्टी के वरिष्ठ नेता और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने कहा है कि हम तो जानते थे कि दिल्ली में कांग्रेस चुनाव नहीं जीतने जा रही है और लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता अधीर रंजन चौधरी भाजपा की हार में अपनी जीत देख रहे हैं। जिस कांग्रेस की दिल्ली में अपराजेय वाली छवि थी वह अर्श से फर्श पर पहुँची तो सिर्फ अपने नेताओं के कारण।

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दिल्ली में कांग्रेस की हार के बड़े कारणों पर गौर करें तो उनमें सबसे पहला कारण तो यह था कि शीला दीक्षित के निधन के बाद पार्टी संगठन को नया नेता देने में आलाकमान ने काफी वक्त लगा दिया और सुभाष चोपड़ा को दिल्ली की कमान काफी देर से मिली। सुभाष चोपड़ा को प्रदेश कांग्रेस का पूरा सहयोग नहीं मिला क्योंकि पार्टी के कई बड़े नेताओं की उनसे बनती नहीं है। ऐसे में चुनावों के समय प्रदेश कांग्रेस में सामंजस्य नहीं देखने को मिला। जब हमने कई कांग्रेस प्रत्याशियों से बात की तो वह प्रदेश और राष्ट्रीय नेतृत्व से नाराज नजर आये क्योंकि रैलियों और सभाओं में पार्टी का कोई सहयोग नहीं मिला और उन्हें अकेले ही चुनावी भँवर में संघर्ष के लिए छोड़ दिया गया था। यही नहीं कांग्रेस के प्रदेश के भी कई बड़े नेता चुनाव प्रचार में नहीं उतरे, कोई विदेश चला गया तो किसी ने पूरी तरह चुप्पी साध ली। प्रदेश कांग्रेस की वरिष्ठ नेता शर्मिष्ठा मुखर्जी ने भी कहा है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव एकजुटता से लड़ने की बजाय पार्टी के नेता एक दूसरे को ठिकाने लगाने में लगे रहे।

 

राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने चुनाव प्रचार में मात्र ढाई दिन बाकी रहने पर प्रचार कार्य शुरू किया और केजरीवाल को घेरने की बजाय मोदी सरकार पर हमले करते रहे। पार्टी के अन्य वरिष्ठ नेताओं और कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने, पार्टी के स्टार प्रचारकों ने कांग्रेस के प्रचार कार्य से दूरी बनाये रखी। सोनिया गांधी अस्वस्थ होने के कारण चुनाव प्रचार में भाग नहीं ले सकीं और पार्टी का सोशल मीडिया भी बेदम नजर आया।

 

कांग्रेस लड़ तो दिल्ली विधानसभा चुनाव रही थी लेकिन मुद्दे उसके राष्ट्रीय थे। वह दिल्ली की जनता को भरोसा ही नहीं दिला सकी कि वह उसके लिए कुछ करना चाहती है। यही कारण रहा कि पार्टी के बड़े नाम जो चुनावी मैदान में थे, उन्हें भी बुरी हार का सामना करना पड़ा। ऐसा लगा कि जिस-जिस को कांग्रेस का सिम्बल मिला चुनाव लड़ने के लिए उस-उस को जनता ने बुरी पराजय का सामना कराया क्योंकि जनता ने कांग्रेस से मुँह पूरी तरह मोड़ लिया है। कांग्रेस ने कभी दिल्ली में सपने में भी नहीं सोचा होगा कि ऐसे थोक के भाव यानि 70 में से 63 सीटों पर उसके प्रत्याशियों की जमानतें जब्त होंगी।

 

कांग्रेस ने कीर्ति आजाद को दिल्ली में चुनाव प्रभारी बनाया था और उनकी पत्नी पूनम आजाद को संगम विहार से उम्मीदवार बनाकर पूर्वांचली वोटरों पर निगाह लगायी थी। यही नहीं यहां पर राहुल और प्रियंका गांधी ने संयुक्त रैली को भी संबोधित किया था लेकिन कांग्रेस प्रत्याशी पूनम आजाद को महज 2 प्रतिशत वोट हासिल हुए। साफ था कि कांग्रेस ने उम्मीदवारों के चयन में भी भारी गलतियाँ की हैं। इससे टिकट बेचने के उन आरोपों को बल मिलता है जो पार्टी के नेताओं ने ही प्रदेश कांग्रेस के नेताओं पर लगाये थे। दिल्ली नगर निगम के चुनावों और पिछले लोकसभा चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन सुधरा था इसलिए उम्मीद थी कि पार्टी इस बार के विधानसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन करेगी और कम से कम अपना खाता तो खोल ही लेगी लेकिन नतीजा रहा ढाक के तीन पात।

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बहरहाल, यह वक्त कांग्रेस के लिए गंभीर आत्ममंथन का है। उसे भाजपा की हार और किसी दूसरे की जीत में अपनी खुशी ढूँढ़ने का काम बंद करना होगा। लोकसभा चुनावों में लगातार दूसरी बार विपक्ष का दर्जा पाने लायक सीटें नहीं हासिल करने वाली कांग्रेस महाराष्ट्र में जोड़तोड़ कर सत्ता में आई और झारखंड में छोटे भाई की भूमिका में ही खुश हो गयी। अगर कांग्रेस इसी को अपना भविष्य मान बैठी है तो यह लोकतंत्र के लिए भी घातक है क्योंकि मजबूत विपक्ष होना ही चाहिए लेकिन कांग्रेस रचनात्मक विपक्ष की भूमिका जब तक निभाना नहीं शुरू करेगी, लोग उस पर दोबारा विश्वास करना शुरू नहीं करेंगे।

 

-नीरज कुमार दुबे

 

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