विपक्ष का नेतृत्व करने के कांग्रेसी मंसूबों पर इसलिए फिर गया पानी

By रमेश सर्राफ धमोरा | Jan 17, 2020

नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिकता पंजीकरण (एनआरसी) के खिलाफ कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा केंद्र सरकार विरोधी दो दर्जन विपक्षी दलों की एकता को लेकर बुलाई गई बैठक असफल साबित हुई है। सोनिया गांधी द्वारा बुलाई गई बैठक में विभिन्न प्रदेशों में प्रभावशाली क्षेत्रीय दल समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, द्रुमक, तेलुगू देशम पार्टी, शिवसेना और आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की अध्यक्षता में आयोजित बैठक का बहिष्कार कर एक तरह से सोनिया गांधी के विपक्षी एकता के प्रयासों को तगड़ा झटका दिया है।

 

सोनिया गांधी द्वारा आयोजित बैठक का सर्वप्रथम पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने बहिष्कार करने की घोषणा की थी। ममता बनर्जी का कहना था कि बंगाल में तो कांग्रेसी नेता वामपंथी दलों के साथ मिलकर हमारी सरकार के खिलाफ अभियान चलाते हैं और दिल्ली में सोनिया गांधी कांग्रेस की बैठक में विपक्षी दलों की एकता की बात को लेकर उनको आमंत्रित करती हैं। कांग्रेस के इस प्रकार के दोहरे रवैये के चलते हम दिल्ली की बैठक का बहिष्कार करते हैं। ममता बनर्जी का कहना था कि हम केन्द्र सरकार की नीतियों का विरोध करते हैं मगर हमें कांग्रेस के साथ की जरूरत नहीं है।

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बसपा सुप्रीमो मायावती ने भी बैठक से पूर्व ट्वीट कर कांग्रेस पर आरोप लगाया कि राजस्थान में बसपा विधायक कांग्रेस सरकार को बिना शर्त बाहर से समर्थन दे रहे थे। उसके बावजूद राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने बसपा के सभी 6 विधायकों को तोड़कर कांग्रेस में शामिल करवा लिया। कांग्रेसी एक तरफ तो विपक्षी एकता की बात करती है दूसरी तरफ बसपा के विधायकों को तोड़ रही है। राजस्थान में मुख्यमंत्री गहलोत ने दो बार हमारे विधायकों को तोड़ कर हमारी पार्टी को कमजोर करने का प्रयास किया है। ऐसी स्थिति में हम कांग्रेस के साथ किसी भी तरह का गठबंधन करने के पक्ष में नहीं हैं। बसपा कांग्रेस के साथ किसी बैठक में भी शामिल नहीं होगी।

 

महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की पार्टी शिवसेना महाराष्ट्र की अघाड़ी सरकार में कांग्रेस के साथ शामिल है। लेकिन शिवसेना ने भी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा आहूत की गई विपक्षी दलों की बैठक में शामिल होना उचित नहीं समझा। तमिलनाड़ु में एमके स्टालिन की द्रुमक, आंध्र प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू की तेलुगू देशम पार्टी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने भी कांग्रेस की बैठक से दूरी बनाए रखी।

 

कांग्रेस द्वारा आयोजित बैठक में कांग्रेस के अलावा राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, झारखंड मुक्ति मोर्चा, राष्ट्रीय जनता दल, जम्मू कश्मीर नेशनल कांफ्रेंस, जम्मू कश्मीर पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी, चौधरी अजीत सिंह का राष्ट्रीय लोक दल, इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग, शरद यादव का लोकतांत्रिक जनता दल, कर्नाटक का जनता दल सेक्युलर, जीतन राम मांझी की हम, उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के अलावा आरएसपी, केरल कांग्रेस मणि गुट व असम के बदरुद्दीन अजमल की एआईयूडीएफ पार्टी शामिल हुई।

 

मीटिंग से पूर्व कांग्रेसी नेताओं को आशा थी कि केंद्र के नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ सभी विपक्षी दल उनके नेतृत्व में एकजुट होकर आगामी संसद सत्र में केंद्र सरकार के खिलाफ जोरदार हल्ला बोलेंगे। लेकिन कई प्रदेशों में प्रभावशाली विपक्षी दलों के नेताओं के कांग्रेस की बैठक में शामिल नहीं होने से विपक्षी दलों का नेतृत्व करने के कांग्रेस पार्टी के नेताओं के मंसूबे धरे रह गए।

 

कांग्रेस की मीटिंग में जो 17 दल शामिल हुये उनके पास लोकसभा की मात्र 73 सीटें हैं तथा उन सभी दलों को मिलाकर पिछले लोकसभा चुनाव में 24.59 प्रतिशत वोट मिले थे। कांग्रेस की बैठक में शामिल बिहार की राष्ट्रीय जनता दल, जम्मू कश्मीर की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी, उत्तर प्रदेश के अजीत सिंह का राष्ट्रीय लोक दल, शरद यादव का लोकतांत्रिक जनता दल, बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की हम, पूर्व केंद्रीय राज्य मंत्री उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी का तो लोकसभा में एक भी सदस्य नहीं है। जबकि कांग्रेस के पास 52, एनसीपी के 5, नेशनल कांफ्रेंस के पास 3, मुस्लिम लीग के पास 3,  माकपा के पास 3, भाकपा के पास 2, झारखंड मुक्ति मोर्चा के पास 1, जनता दल सेक्युलर के पास 1, आरएसपी के पास 1, केरल कांग्रेस मणि गुट के पास 1 व एआईयूडीएफ के पास 1 सांसद है। वहीं कांग्रेस की बैठक का बहिष्कार करने वाले विरोधी दलों के पास लोकसभा की 84 सीटें हैं, जिन्हें पिछले चुनाव में 17.17 प्रतिशत मत मिले थे। इनमें अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी के पास 5 लोकसभा सांसद हैं। मायावती की बसपा के पास 10 सांसद, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के पास 22 सांसद, तमिलनाडु में स्टालिन की द्रुमक के पास 24 सांसद, आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू की तेलुगू देशम पार्टी के पास 3 सांसद, महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की शिवसेना के पास 18 सांसद व दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की आप पार्टी के पास एक सांसद है।

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हालांकि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा बुलाई गई मीटिंग को विपक्षी दलों में ही मान्यता नहीं मिल पाई फिर भी यदि उपरोक्त सभी विपक्षी दल भी सोनिया गांधी की मीटिंग में शामिल होते तो उन सबके पास मिलाकर भी लोकसभा की 157 सीटें ही होतीं। इन सभी दलों को मिलाकर पिछले लोकसभा चुनाव में 41.76 प्रतिशत मत मिले थे।

 

वर्तमान समय में कांग्रेस पार्टी अपने तक सीमित होती जा रही है। महाराष्ट्र में सत्ता के लालच में शिवसेना से गठबंधन करने के बाद तो अल्पसंख्यक समुदाय में भी कांग्रेस का प्रभाव कम होने लगा है। उसके बाद से पूरे देश में कांग्रेस की सेक्युलर छवि पर अंगुली उठाई जाने लगी है। वैसे भी कांग्रेस उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, महाराष्ट्र, जम्मू-कश्मीर, गोवा व असम सहित पूर्वांचल के सभी प्रदेशों में अपना जनाधार खोकर क्षेत्रीय दलों की सहयोगी की भूमिका में आ चुकी है।

 

हाल ही में कांग्रेस पार्टी पहले महाराष्ट्र फिर झारखंड की गठबंधन सरकार में शामिल हुई है। लेकिन दोनों ही प्रदेशों में मुख्यमंत्री क्षेत्रीय दलों के हैं। महाराष्ट्र में शिवसेना व झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा कांग्रेस से गठजोड़ करने से पूर्व भारतीय जनता पार्टी से भी गठबंधन कर सरकार चला चुके हैं। ऐसे में कांग्रेस का यह सोचना के इन प्रदेशों में उनका जनाधार बढ़ा है अपने आप को गुमराह करने के समान है। नागरिकता संशोधन कानून पर कांग्रेस ने जिस तरह से केन्द्र सरकार का विरोध करने का तरीका अपनाया है। उससे देश भर में बुद्धिजीवी व राष्ट्रवादी विचारधारा के लोगों की भावना कांग्रेस के प्रति और अधिक नकारात्मक हुई है।

 

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को विपक्षी दलों को एकजुट कर उनके सहारे नरेन्द्र मोदी सरकार को घेरने की रणनीति बनाने की बजाय प्रदेशों में अपनी पार्टी के संगठन को मजबूत बनाने की दिशा में कारगर प्रयास करना चाहिये। गठबंधन के साथी दल कब साथ छोड़ कर विरोधी खेमे से हाथ मिला लें इसका ताजा उदाहरण महाराष्ट्र की शिवसेना है। जिसने सत्ता के लिये अपनी चिर विरोधी कांग्रेस से हाथ मिलाते देर नहीं लगायी। ऐसी पुनरावृत्ति कांग्रेस के साथ भी हो सकती है। ऐसे में कांग्रेस का अपना संगठन मजबूत होगा तभी उसे उसका खोया जनाधार फिर से हासिल हो पायेगा। सहयोगी दलों के सहारे सत्ता में आने की प्रवृत्ति से तो पार्टी का रहा सहा जनाधार भी समाप्त हो जायेगा।

 

-रमेश सर्राफ धमोरा

 

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