By अभिनय आकाश | Dec 28, 2020
साल 2014 लोकसभा चुनाव का दौर जब पूरे देश में नरेंद्र मोदी के नाम पर बीजेपी सत्ता पर काबिज होने की कवायद में लगी थी। उस वक्त बिहार के एक कोने से आवाज बुलंद कर खुद को पीएम मैटेरियल बताने वाले नीतीश कुमार एनडीए से बाहर होकर अकेले ही चुनावी समर में उतरते हैं। लेकिन जदयू के सबसे खराब प्रदर्शन केे बाद पीएम मैटेरियल नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री की गद्दी छोड़ सूबे की कमान अपने खास सिपहसालार माने जाने वाले जीतन राम मांझी को सौंप दी। उसके बाद जो कुछ हुआ वो तो सरेआम है। उस वक्त नीतीश कुमार के मांझी को गद्दी सौंपने के पीछे भले ही नीतीश ने पार्टी को मजबूती देने की बात कही लेकिन इसके पीछे की एक बड़ी वजह सीएम होने के नाते प्रधानमंत्री पद पर काबिज नरेंद्र मोदी को औपचारिक तौर पर ही सही अटेंड तो करना ही पड़ता। जिससे बचने के लिए नीतीश ने ये कवायद की, हालांकि नीतीश का जीतनराम मांझी वाला प्रयोग उनपर ही उल्टा पड़ने लगा। ये और बात है कि बाद में नीतीश कुमार नरेंद्र मोदी को नेता मान बीजेपी के साथ फिर से गलबहियां करते नजर आएं। और तो और लौट के जीतनराम मांझी भी नीतीश के पास वापस आए।
दूसरा वाक्या सितंबर 2018 का है जब बड़े जोर-शोर के साथ चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर को पार्टी उपाध्यक्ष के तौर पर नीतीश कुमार लेकर आए। उस दिन नीतीश की दाहिनी ओर पीके बैठे थे और बाईं ओर प्रदेश अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह। नीतीश कुमार ने उस दौर में प्रशांत किशोर को जेडीयू का भविष्य बताया था। तब आरसीपी सिंह ने पत्रकारों द्वारा प्रशांत किशोर को उनका कद कम करने के लिए लाए जाने की तमाम तरह की अटकलों पर जवाब देते हुए अपने अंदाज में कहा था कि मैं तो सिर्फ पांच फुट चार इंच लंबा हूं। आप मुझे कितना छोटा कर सकते हैं?
कुछ ही महीनों बाद 2019 के आम चुनाव से पहले सारा खेल ही पलट गया और इलेक्शन कैंपेन के मास्टर माने जाने वाले प्रशांत किशोर जेडीयू के नंबर दो की जगह लेने के चक्कर में अपने मुख्य कार्य को भी गंवा बैठे। जिसका हाल-ए-बयां उन्होंने खुद ट्वीटर के माध्यम से किया।
करीब दस दिन पहले जो संदेश नीतीश कुमार ने अपने कार्यकर्ताओं और नेताओं को दिया उसपर रविवार की दोपहरी में मुहर लग गई। नीतीश कुमार ने नए अध्यक्ष के तौर पर आरसीपी सिंह का नाम आगे बढ़ाया तो कार्यकारिणी ने उसे मंजूर कर लिया। जिसके बाद नये साल के पहले जेडीयू में बड़ा बदलाव हो गया। नीतीश कुमार दोहरी जिम्मेदारी से मुक्त होकर अब पार्टी की कमान अपने सबसे भरोसेमंद और पार्टी के महासचिव आरसीपी सिंह को सौंप चुके हैं। राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में सीएम नीतीश कुमार ने आरसीपी सिंह के नाम का प्रस्ताव रखा जिसे मंजूर कर लिया गया। वहीं आरसीपी सिंह के अध्यक्ष बनाए जाने की खबर पार्टी कार्यकर्ताओं को मिली तो पार्टी दफ्तर के बाहर जमकर नारेबाजी होने लगी। आरसीपी सिंह के नाम के नारे लगाए जाने लगे।
नीतीश कुमार ने अपने सबसे खास पर भरोसा जताया है। ये भरोसा आरसीपी सिंह को ऐसे ही नहीं मिला। सबसे पहले 5 लाइनों में आपको बताते हैं कि कौन हैं आरसीपी सिंह?
1996-97 का दौर था और एचडी देवगौड़ा और उसके बाद की संयुक्त सरकारों के गठन के दौर में जहां देश में एक स्थिर सरकार की अदद दरकार महसूस की जा रही थी वहीं इससे इतर एक नई दोस्ती परवान चढ़ रही थी। उस वक्त के केंद्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा अपने प्रिंसिपल सेक्रेटरी से नीतीश कुमार को मिलवाते हुए कहते हैं कि ये आपके ही इलाके के हैं। थोड़ी ही देर की बातचीत में नीतीश कुमार को ये अंदाजा हो गया कि रामचंद्र प्रसाद सिंह न केवल उनके इलाके के हैं बल्कि उन्हीं की जाति से ताल्लुक रहते हैं। इसके बाद रामचंद्र प्रसाद सिंह नीतीश कुमार के पीएस बनते हैं। फिर जब नीतीश रेल मंत्री थे तो उस वक्त उनके साथ काम किया। आरसीपी सिंह का जन्म छह जुलाई 1958 को नालंदा जिले के मुस्तफापुर में हुआ था। उन्होंने इसी जिले के हुसैनपुर में शिक्षा प्राप्त की। सिंह ने पटना कॉलेज से इतिहास में स्नातक और परास्नातक जेएनयू से किया। आरसीपी सिंह ने 21 मई 1982 को गिरिजा सिंह से विवाह किया और उनकी दो बेटियां हैं। उनकी बेटी लिपि सिंह वर्ष 2016 बैच की आईपीएस अधिकारी हैं। सिंह पहले नौकरशाह थे, जो बाद में नेता बने और अब तक वह इस क्षेत्रीय दल के महासचिव (संगठन)थे। वर्ष 1984 बैच के उत्तर प्रदेश कैडर के आईएएस (भारतीय प्रशासनिक सेवा) अधिकारी रहे आरसीपी सिंह, उस समय से नीतीश कुमार के साथ जुडे हुए हैं, जब वह तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में रेल मंत्री हुआ करते थे। जब कुमार बिहार की राजनीति में लौटे और वर्ष 2005 में मुख्यमंत्री बने तो सिंह भी अपने गृह प्रदेश में आ गए और उन्हें मुख्यमंत्री का प्रधान सचिव नियुक्त किया गया। सेवानिवृत्त होने से कुछ महीने पहले ही उन्होंने नौकरी छोड़ दी और वर्ष 2010 में राजनीति में सक्रिय हो गए। तब नीतीश कुमार ने उन्हें राज्यसभा का सदस्य बनाया और तब से वह लगातार उच्च सदन के सदस्य हैं।
नीतीश ने क्यों छोड़ा पद
ठीक पांच साल पहले नीतीश कुमार ने जनता दल यूनाइटेड का अध्यक्ष पद शरद यादव से जबरन हासिल किया था। वहीं नीतीश कुमार कहते सुनाई पड़े की पार्टी का कामकाज किसी फुल टाइम अध्यक्ष के हाथों में होनी चाहिए। नीतीश कुमार ने आखिर आरसीपी सिंह को ही क्यों चुना इसकी कई सारी वजहें गिनाई जा सकती हैं, मसलन, आरसीपी बड़े जनाधार वाले नेता नहीं हैं और वो उन्हें (नीतीश) को उस माफिक चुनौती भी नहीं दे सकते जैसा कोई जनाधार वाला नेता दे सकता है। इसके साथ ही राजनीति में चेहरे का भी बहुत बड़ा महत्व होता है और नीतीश के चेहरे के बिना आरसीपी खुद के बूते कोई बड़ा करिश्मा कर दें इसकी उम्मीद शून्य के बराबर है। हालांकि पार्टी संगठन में आरसीपी सिंह की पकड़ को विपक्ष की नजर से देखें तो तेजस्वी यादव के द्वारा बीते वर्षों में उठाए गए गंभीर सवाल सामने आ जाएंगे। जब तेजस्वी ने सार्वजनिक तौर पर बिहार में हर नियुक्ति-तबादले में आरसीपी टैक्स देने का जिक्र किया था। एक तरफ जहां बीजेपी द्वारा जदयू के वोट बैंक को साधने में दिख रही है वहीं तेजस्वी यादव की तरफ से भी उन्हें चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में सरकार और पार्टी दोनों को साधने की बढ़ती चुनौती को नीतीश ने आरसीपी सिंह के साथ आधा बांटने का काम किया है।
बीजेपी के करीबी को सौंपी कमान
जबतक अरुण जेटली जीवित थे तो नीतीश खुद ही बीजेपी के साथ समन्वय कायम करने का काम किया करते थे। इसके बाद सुशील कुमार मोदी गठबंधन और सारे मामलों को हैंडल किया करते थे। लेकिन वर्तमान में तेजी से बदलती परिस्थितियों की वजह से बीजेपी संग तालमेल कायम रखना एक बड़ी चुनौती बनता जा रहा था। एक दौर जब 2019 का हुआ करता था और लोकसभा चुनाव था तो अमित शाह के घर पर आरसीपी सिंह और ललन सिंह ने बैठकर ये तय कर लिया कि आधा-आधा सीटों पर हम चुनाव लड़ेंगे। लेकिन उसके बाद जब परिस्थिति बदली और नीतीश कुमार की सरकार बनने की बात आई तो बीजेपी ने देंवेंद्र फडणवीस को मैदान में उतारा, भूपेंद्र यादव को सामने किया। बीजेपी ने उन्हें इस कदर मजबूर कर दिया कि उनके पास अब कोई रास्ता नहीं था कि वो पार्टी से ऐसा कोई नुमाइंदा चुने जो बीजेपी के नेताओं से बात करे। कहा तो ये भा जा रहा है कि नीतीश कुमार को भूपेंद्र यादव से बात करने के लिए इंतजार करना पड़ रहा था। विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद पिछले महीने बिहार में सरकार बनी तब से आज तक मंत्रीमंडल विस्तार नहीं हो पाया। कई बीजेपी और जेडीयू के मध्य के मसले हल नहीं हो पाए। ऐसे में नीतीश को ऐसे किसी शख्स की दरकार थी तो अधिकृत तौर पर बीजेपी से बात कर सके। नीतीश को बार-बार भूपेंद्र यादव या बीजेपी की दूसरी-तीसरी कतार के नेताओं से बात करने को मजबूर न होना पड़े। ऐसे में किसे अध्यक्ष बनाया जाए तो जाति के दायरे से बाहर नहीं निकल पाए। 2010 में राज्यसभा सांसद बनाए जाने के बाद से ही आरसीपी सिंह की दिल्ली में लगातार उनकी मौजूदगी ने उन्हें बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व के साथ नजदीकियां बढ़ाने में सहायता प्रदान की।
नये साल से पहले जेडीयू की कमान नये नायक को सौंपी गई है, हालांकि नीतीश कुमार का कार्यकाल 2022 तक का था लेकिन बीच रास्ते में ही उन्होंने दोहरी जिम्मेदारी से मुक्त होने का फैसला कर लिया। जिसके बाद अब नए अध्यक्ष के सामने नई चुनौतियां होगी। अरुणाचल प्रदेश में जद(यू) के सात विधायकों में से छह का भाजपा में शामिल होना और पड़ोसी राज्य पश्चिम बंगाल में होने वाले चुनाव जद(यू) के नए अध्यक्ष के समक्ष तात्कालिक चुनौती हैं।- अभिनय आकाश