एक दिन सुबह-सुबह एक बुद्धिजीवी मेरे घर आ धमके। उनके कंधे पर झोला था, माथे पर चिंताओं की रेखाएँ थीं और चेहरे पर समाज सुधारने का बोझ। आते ही बोले, "समाज पतन की ओर जा रहा है। आजकल की पीढ़ी बस मोबाइल में खोई रहती है। संस्कृति को कौन बचाएगा?"
मैंने कहा, "आपके पास तो बाँसुरी है, आप बचा सकते हैं।"
बुद्धिजीवी ने झोले से बाँसुरी निकाली और बोले, "ये बाँसुरी नहीं, विचारों का प्रतीक है। इसे बजाने का मतलब है समाज को सही दिशा में ले जाना। लेकिन ये नई पीढ़ी बाँसुरी क्या जाने, इन्हें तो सिर्फ रील्स और मीम्स समझ में आते हैं।"
मैंने कहा, "आप बजाकर देखिए, शायद कुछ असर हो।"
उन्होंने बाँसुरी होठों से लगाई, लेकिन बजाने से पहले बोले, "बजाने से पहले हमें इस पर विचार करना चाहिए कि बाँसुरी का सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व क्या है।"
मैंने कहा, "भाई साहब, पहले बाँसुरी बजाइए, फिर उसके महत्व पर विचार करेंगे।"
बुद्धिजीवी थोड़े चिंतित हुए, बोले, "देखिए, बिना चर्चा के अगर बाँसुरी बजा दी, तो लोग इसे मनोरंजन समझेंगे। समाज को संदेश देना है, मनोरंजन नहीं।"
मैंने सोचा, चलिए अब एक बुद्धिजीवी की बाँसुरी भी दर्शनशास्त्र से होकर गुजरेगी। खैर, मैंने चाय का कप थमाया, और उन्हें चर्चा के लिए प्रेरित किया।
उन्होंने बाँसुरी हाथ में घुमाते हुए कहा, "बाँसुरी का स्वर तो शांति का प्रतीक है, लेकिन आजकल शांति की बात कौन करता है? सब तो केवल हंगामा चाहते हैं। सोचिए, अगर बाँसुरी बजा भी दी, तो क्या ये शोरगुल में सुनाई देगी?"
मैंने कहा, "शोरगुल के बीच शांति की आवाज़ ही सबसे ज़्यादा असर करती है।"
वे थोड़ा गंभीर होकर बोले, "शांति की आवाज़ सुनने के लिए आत्मा का शांत होना ज़रूरी है। और आजकल आत्मा को कौन शांत रहने देता है? सरकार, मीडिया, और सोशल मीडिया... सब शांति को निगल रहे हैं। ऐसे में बाँसुरी किस काम की?"
मैंने धीरे से कहा, "फिर बाँसुरी साथ लेकर घूमने का क्या फायदा?"
बुद्धिजीवी ने थोड़ा सोचते हुए कहा, "ये सही सवाल है। शायद बाँसुरी केवल प्रतीकात्मक है। हमें असल बदलाव के लिए विचारधारा की बाँसुरी बजानी होगी।"
फिर उन्होंने बाँसुरी को वापस झोले में रखा और बोले, "बदलाव विचारों से आता है, बाँसुरी से नहीं। आज की पीढ़ी को हमें बाँसुरी नहीं, विचार देना चाहिए।"
मैंने मन ही मन सोचा, "तो भाई साहब, बाँसुरी क्यों साथ लाए थे?"
लेकिन मैंने कुछ कहा नहीं। आखिरकार, बुद्धिजीवी थे, उनका काम है बातें करना, और मेरा काम था सुनना। और इस तरह, बाँसुरी फिर बिना बजे झोले में चली गई। समाज वहीं का वहीं रहा, और हम फिर से उसी पुराने चाय-कप में विचारों का झाग फेंटने लगे।
- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,
(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)