बाबूजी की रोटी (व्यंग्य)

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By डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ | Mar 28, 2025

बाबूजी की रोटी (व्यंग्य)

बाबूजी कभी रिटायर नहीं हुए। सरकारी दफ्तर से हुए होंगे, लेकिन घर-गृहस्थी के दफ्तर में तो आज भी वही फाइलें निपटा रहे हैं— दूध लाना, सब्ज़ी तौलना, किराने का हिसाब रखना, बिजली का बिल भरना, और बीच-बीच में पड़ोसियों के बच्चों को जीवन के ‘अनमोल ज्ञान’ बाँटना। वह ज्ञान, जिसे सुनकर बच्चे भी मोबाइल के स्क्रीन में मुँह गाड़ने का बहाना खोज लेते हैं। घर में उनकी स्थिति वही थी जो पुराने ज़माने की एल्बम की होती है— कोई देखता नहीं, लेकिन फेंकता भी नहीं।


रिटायरमेंट के बाद बाबूजी को परिवार में ठीक उसी तरह रखा गया, जैसे शादी के खाने में बचे हुए गुलाब जामुन सबको पता होता है कि पड़े हैं, लेकिन कोई पूछता नहीं। "बाबूजी, आप आराम कीजिए!" यह वाक्य बहू-बेटे के प्रेम से अधिक, उन्हें किनारे करने की प्रशासनिक कार्यवाही लगती थी। बेटा प्रमोशन पाकर बिजी हो गया, बहू ऑनलाइन शॉपिंग में व्यस्त थी और पोते-पोतियाँ इंस्टाग्राम पर स्वदेशी संस्कृति की बातें कर रहे थे। इस बीच बाबूजी अचार के मर्तबान खोलकर पुराने दिनों को सूँघते रहते थे।

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एक दिन बाबूजी ने ऐलान कर दिया, "आज से अपनी रोटी खुद बनाऊँगा!" यह सुनते ही घर में वही माहौल बन गया जो सरकार के नए बजट सुनने के बाद जनता में बनता है— चुप्पी, चिंता और कटाक्ष! बहू ने पानी पीते-पीते हिचकी ली, बेटा अख़बार के पीछे छुप गया और पोती ने गूगल पर सर्च किया— "रिटायर्ड लोग मानसिक संतुलन क्यों खोते हैं?" दादीजी ने समझाने की कोशिश की, "अरे, खाना तो बना बनाया मिलेगा, तुम क्यों तकलीफ कर रहे हो?" बाबूजी ने मुस्कराकर जवाब दिया, "बिटिया, अब हमें तकलीफ नहीं होती, तकलीफ सहने की आदत हो गई है!"


बाबूजी ने किचन में कदम रखा, तो LPG सिलेंडर भी सहम गया। तवा देख केतली से कानाफूसी करने लगा— "अबे, आज तेरा बुरा वक्त आ गया!" आटा गूंथने बैठे तो ऐसा लगा मानो बैलगाड़ी के पहिए बना रहे हों। रोटी गोल करने चले तो मानो महाद्वीपों के नक्शे बना रहे थे— कोई अफ्रीका, कोई ऑस्ट्रेलिया और कोई सीधा अंटार्कटिका! बहू हँसी दबाए बिना रह नहीं सकी, "बाबूजी, इसे रोटी कहते हैं या अजंता की गुफाएँ?" लेकिन बाबूजी मुस्कराए, "बेटी, कला तो पहचानने वाली आँखों में होती है!"


रोटी किसी तरह सिक कर प्लेट में पहुँची। बाबूजी ने पहला कौर मुँह में डाला, तो आँखों में वही चमक आ गई, जो कभी पहली सैलरी मिलने पर आई थी। बहू-बेटे को अचानक अहसास हुआ कि उनकी थाली में जो चपाती सजी है, उसके पीछे बाबूजी के जवानी के संघर्ष छुपे हैं। कितनी बार बिना खाए ऑफिस गए होंगे? कितनी बार बच्चों को खिलाकर खुद सिर्फ अचार से काम चलाया होगा? बेटा धीरे से उठा और बाबूजी के पास जाकर बैठ गया। बहू ने भी प्लेट सरका दी, "बाबूजी, हमें भी सीखाइए न!"


बाबूजी ने हल्की मुस्कान के साथ बेटा-बहू की ओर देखा और तवा उठाकर गैस पर रख दिया। किचन में पहली बार चूल्हे की आंच से ज्यादा गर्माहट रिश्तों में महसूस हुई। कुछ देर बाद तवे पर पहली सही-सलामत गोल रोटी सिक रही थी और बाबूजी ने राहत की साँस ली— "चलो, घर में आत्मनिर्भरता की शुरुआत हो गई!"


- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,

(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

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