नकली बुद्धि के विज्ञापन कक्ष में असली आयुर्वेद का विज्ञापन बनाया जा रहा है। सभी छोटी बड़ी कम्पनियां चाहती हैं कि उन्हें आयुर्वेद का असली ठेकेदार बताया जाए। पहले एक पेस्ट के विज्ञापन में सफ़ेद कोट को उतार कर फेंका करते थे। फिर एक विज्ञापन ने बताया था कि स्टेथोस्कोप गले में लटकाकर कोई डाक्टर नहीं बन जाता या पुलिस वालों जैसी टोपी सिर पर रख कर पुलिस वाला। फिर नया विज्ञापन पकाया गया जिसमें ख़ास कंपनी के साबुन को आयुर्वेद की ताज़ा व असली वैध संतान बताया गया। समझाया गया कि पैक पर सुंदर फूल पतियां छाप देने से उत्पाद असली आयुर्वेद का नहीं बन जाता।
आम तौर पर विज्ञापन सुन्दर चेहरों और प्रभावोत्पादक शब्दों का खेल माना जाता है लेकिन आयर्वेद की दुनिया के दिग्गजों ने जनता को प्रभावित करने के लिए खुद को विज्ञापन में घोल दिया। इनके प्रकृति प्रेम जगाते विज्ञापनों ने ज़बर्दस्त असर दिखाया और प्रतिस्पर्धियों के विज्ञापनों की भाषा बदलवा दी। सुना तो है कि भाषा बदलने से असर भी बदल जाता है। आयुर्वेद के नाम पर हो रही कुश्तियों में प्रकृति को ही विज्ञापन बना दिया गया। वैसे तो हर घर के अंधेरे कोने में आयुर्वेद आधारित सुस्वास्थ्य से जुड़ी कोई न कोई पुरानी किताब पड़ी होती है और घर के दादा दादी, नाना नानी भी अनुभवों की किताबें होते हैं मगर जो प्रभाव इन विज्ञापनों में पैदा किया गया वो उन किताबों व बुज़ुर्गों में कहां, अगर होता या हमने समझा होता तो कब का काया का काया पलट हो गया होता।
आयुर्वेद के जगत प्रसिद्ध सूत्रधार विज्ञापन करते रहे कि उनके पेस्ट में छब्बीस जड़ी बूटियां हैं एक दिग्गज एमएनसी ने वेद ज़्यादा गौर से पढ़ने के बाद केवल छ जड़ी बूटियां मिला कर प्राकृतिक पेस्ट बना दिया। इन दोनों में असली असरकारक कौन है, आधा दर्जन जड़ी बूटियों वाला या उससे चार गुणा से ज़्यादा जड़ी बूटियों वाला, बस यही ग्राहक को घर पर टेस्ट और टैस्ट कर पहचानना था। अपनी सेहत को नकली, मिलावटी दवाई और भ्रामक विज्ञापन की खिलवाड़ से बचाना था....लेकिन।
इधर विज्ञापन के बाज़ार ने हमें खरीद लिया और उधर नाम बटोरने और दाम कमाने का खेला चालू था। प्रतिस्पर्धा के मंच पर अपना अपना आयुर्वेद बेचने के चक्कर में भ्रामक विज्ञापन दिए, झूठे अभियान चलाए और बाज़ार की महारथी एलोपथी से झगड़ा मोल लिया। मामला कोर्ट पहुंचा तो छुट्टी होने लगी। पहले यही एमएनसी को स्वदेशी धन का लुटेरा बताकर अपनी करोड़ों की एमएनसी खड़ी कर सबकी छुट्टी कर दी बता रहे थे।
कहीं हमें अपनी भुलाई जा चुकी जीवन, घरेलू और प्राकृतिक चिकित्सा संस्कृति के पन्नों को फिर से पढ़ने की ज़रूरत तो नहीं आन पड़ी। कहां पढ़ेंगे? वेदों में, किताबों में, इरादों में या ख़्वाबों में, सवालों में या जवाबों में या फिर अनुभवों में। विज्ञापन की गिरफ्त में आना आसान है, मेहनत करना मुश्किल काम है लेकिन असलीयत भी तो एक चीज़ होती है और रहेगी।
- संतोष उत्सुक