शीशम की पत्तियों पर आधारित फ्रैक्चर उपचार तकनीक को पुरस्कार

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By उमाशंकर मिश्र | Dec 20, 2019

शीशम की पत्तियों पर आधारित फ्रैक्चर उपचार तकनीक को पुरस्कार

नई दिल्ली। (इंडिया साइंस वायर): ऑस्टियोपोरोसिस जैसे हड्डी रोगों के उपचार के साथ-साथ टूटी हड्डियों को तेजी से जोड़ने में मददगार तकनीक के विकास के लिए केंद्रीय औषधि अनुसंधान संस्थान (सीडीआरआई), लखनऊ के शोधकर्ताओं को स्टेम इंपैक्ट पुरस्कार प्रदान किया गया है। 

 

सीडीआरआई के वैज्ञानिकों को यह पुरस्कार जैविक रूप से सक्रिय शीशम (डलबर्जिया सिस्सू) की पत्तियों के अर्क पर आधारित फॉर्मूला विकसित करने के लिए दिया गया है जो हड्डियों से संबंधित रोगों के उपचार में प्रभावी पाया गया है। सिंथेटिक केमिस्ट्री में कई शोधों के बावजूद टूटी हड्डियों को जोड़ने की प्रभावी दवा नहीं खोजी जा सकी है। इस लिहाज से सीडीआरआई की यह खोज महत्वपूर्ण है।

 

इस अध्ययन से जुड़े सीडीआरआई के शोधकर्ता डॉ राकेश मौर्य के अनुसार “शीशम की पत्तियों में पाए जाने वाले हड्डी के गठन से संबंधित गुणों के कारण इस शोध में उसका चयन किया गया है। शीशम की पत्तियों में फ्लैवोनॉयड और ग्लाइकोसाइड पाए जाते हैं जिन्हें उनके हड्डियों के गठन से जुड़े गुणों के लिए जाना जाता है। इस शोध से स्पष्ट हुआ है कि शीशम की पत्तियों के अर्क में ऐसे जैविक रूप से सक्रिय तत्व हैं जो हड्डियों को जोड़ने और हड्डी रोगों के उपचार में उपयोगी हो सकते हैं।”

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सीडीआरआई के एक अन्य वैज्ञानिक डॉ संजीव यादव ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “यह एक ऐसा फॉर्मूला है, जिसे वैज्ञानिक भाषा में हर्बल मेडिकामेंट कहते हैं। इस फॉर्मूले को कैप्सूल के रूप में पेश किया गया है। आमतौर पर हड्डियों को जोड़ने के लिए प्लास्टर किया जाता है, जिसमें डेढ़ से दो महीने लग जाते हैं। जबकि इस फॉर्मूले के उपयोग से 14 दिन में टूटी हड्डी जुड़ सकती है। क्लिनिकल ट्रायल में इसे हड्डियों को जल्दी जोड़ने और ऑस्टियोपोरोसिस के उपचार में प्रभावी पाया गया है।” 

 

सीडीआरआई के वैज्ञानिकों की इस खोज के सामाजिक-आर्थिक प्रभाव के लिए उन्हें स्टेम इंपैक्ट पुरस्कार प्रदान किया गया है। हड्डियों को जोड़ने के लिए यह तकनीक वर्ष 2016 से भारतीय बाजार में रीयूनियन के नाम से उपलब्ध है और जल्द ही इसे अमेरिकी बाजार में भी लॉन्च किया जाएगा।

 

शोधकर्ताओं का कहना है कि ऑस्टिपोरोसिस के उपचार में उपयोग होने वाले एनाबॉलिक एजेंट्स में से टेरिपैराटाइड को ही अब तक अधिक प्रभावी पाया गया है। इसलिए, नए एनाबॉलिक एजेंट विकसित करने की जरूरत है जो हड्डियों के टूटने के खतरे को कम करने और ऑस्टियोपोरोसिस के उपचार में उपयोगी हो सकते हैं। एनाबॉलिक प्रक्रिया को अंगों और ऊतकों का निर्माण करने के लिए जाना जाता है। 

 

ऑस्टिपोरोसिस के कारण बढ़ती उम्र में हड्डियां कमजोर होने लगती हैं और उनके टूटने का खतरा बढ़ जाता है। महिलाओं में रजोनिवृत्‍ति के बाद एस्ट्रोजन की कमी से हड्डियों के टूटने का खतरा अधिक होता है। यही कारण है कि अध्ययन के दौरान चूहों पर शीशम की पत्तियों के अर्क का परीक्षण करने से पहले उन्हें रजोनिवृत्ति जैसी स्थिति से ग्रस्त किया गया। तीन महीने तक प्रतिदिन अलग-अलग मात्राओं में इन चूहों को शीशम की पत्तियों का अर्क दिया गया। शोधकर्ताओं का कहना है कि शरीर के प्रति किलोग्राम वजन के अनुपात में 250 मिलीग्राम शीशम पत्तियों के अर्क की मात्रा के सकारात्मक असर देखे गए हैं। 

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वैज्ञानिकों ने अर्क की विषाक्ता का परीक्षण विभिन्न वैज्ञानिक विधियों से किया गया है। हड्डियों के आकार एवं उनके गठन की दर का मूल्यांकन करने पर पादप अर्क से प्रेरित हड्डियों के गठन के बारे में पता चला है, जिससे इसके एनाबॉलिक प्रभाव का पता चलता है, जो अंगों और ऊतकों के निर्माण के लिए आवश्यक है। शोधकर्ताओं का कहना है कि इस दौरान चूहों पर एस्ट्रोजेनिक दुष्प्रभाव नहीं देखे गए हैं, जो इस अर्क के सुरक्षित ओरल मेडिकेशन को दर्शाते हैं। 

 

इस तकनीक को विकसित करने वाले वैज्ञानिकों की टीम में डॉ राकेश मौर्य के अलावा डॉ रितु त्रिवेदी, डॉ दिव्या सिंह, प्रीति दीक्षित, विक्रम खेडगीकर, ज्योति गौतम, अविनाश कुमार, शैलेंद्र पी. सिंह, डॉ मोहम्मद वहाजुद्दीन, डॉ गिरीश के. जैन और डॉ नैबेद्य चट्टोपाध्याय शामिल हैं। 

 

(इंडिया साइंस वायर)

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