ॐ नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् | देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॐ
अथ श्री महाभारत कथा अथ श्री महाभारत कथा
कथा है पुरुषार्थ की ये स्वार्थ की परमार्थ की
सारथि जिसके बने श्री कृष्ण भारत पार्थ की
शब्द दिग्घोषित हुआ जब सत्य सार्थक सर्वथा॥
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत
अभ्युत्थानमअधर्मस्य तदात्मानम सृज्याहम।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम
धर्म संस्थापनार्थाये संभवामि युगे युगे।।
भारत की है कहानी सदियो से भी पुरानी
है ज्ञान की ये गंगाऋषियो की अमर वाणी
ये विश्व भारती है वीरो की आरती है
है नित नयी पुरानी भारत की ये कहानी
महाभारत महाभारत महाभारत महाभारत।।
पिछले अंक में हमने पांडव और कौरवों के जन्म की कथा पढ़ी। समयानुसार दोनों बड़े हुए शिक्षा - दीक्षा होने लगी। अब हस्तिनापुर की राजगद्दी को कौन संभालेगा इस बात ने कौरवों और पांडवों के बीच खींचतान पैदा कर दी और उनके बीच प्रारंभ से ही दूरियां बढ़ने लगी। आइए ! आगे की कथा अगले प्रसंग में चलें-----
पांडवों में अर्जुन का गुरु द्रोणाचार्य के प्रति समर्पण भाव:-
गुरु द्रोणाचार्य के आश्रम में जहां कौरव और पांडव शिक्षा लिया करते थे। वहां पांडव में अर्जुन गुरु द्रोणाचार्य के काफी पसंदीदा शिष्य थे। जिसके पीछे अर्जुन का गुरु के प्रति प्रेम, निष्ठा, कर्तव्य और विश्वास का होना था। गुरु द्रोणाचार्य आश्रम में उपस्थित सभी बालकों के ज्ञान की परख करने के लिए सदैव उनकी परीक्षा लिया करते थे। जिसमें अर्जुन और गुरु द्रोणाचार्य का चिड़िया की आंख और मगरमच्छ का माया रूप वाला किस्सा बहुत प्रसिद्ध है।
साथ ही गुरु द्रोणाचार्य ने सभी बालकों से गुरु दक्षिणा के रूप में राजा द्रुपद की पराजय मांगी थी। बता दें कि राजा द्रुपद पांचाल नरेश थे। साथ ही वह गुरु द्रोणाचार्य के मित्र भी थे, लेकिन उन्होंने गुरु द्रोणाचार्य की गरीबी का मज़ाक उड़ाया था। जिसका बदला लेने के लिए गुरु द्रोणाचार्य ने उनकी पराजय की बात कही थी।
आगे चलकर अर्जुन ने ही राजा द्रुपद को युद्ध में पराजित किया था। ऐसे में गुरु द्रोणाचार्य अर्जुन से सदैव ही बहुत प्रसन्न रहते थे और हर किसी को यह बताते थे कि अर्जुन उनका परम शिष्य है। अर्जुन की खातिर गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य और कर्ण जैसे महान योद्धाओं की प्रतिभा को भी नजरंदाज कर दिया था। क्योंकि उनका कहना था कि वह अर्जुन को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाना चाहते हैं।
इसलिए जब एकलव्य नाम का एक बालक गुरु द्रोणाचार्य से शिक्षा लेने आया तो उन्होंने उसे शिक्षा देने से मना कर दिया। बदले में उसकी परीक्षा लेने के उद्देश्य से उसका अंगूठा मांग लिया, ताकि वह कभी अर्जुन से बेहतर धनुर्धर न बन सके।
उधर, कर्ण जो कि एक सूत पुत्र अर्थात रथ चालक का बेटा था, उन्होंने उसे यह कहकर शिक्षा देने से मना कर दिया कि वह केवल कुरु वंश के राजकुमारों के गुरु है। आपको बता दें कि कर्ण का असली नाम राधेय था वास्तव में वह रानी कुंती की ही संतान था । यह कहानी तब की है जब रानी कुंती अविवाहिता थीं।
कुंती के महल में एक बार ऋषि दुर्वासा पधारे थे, जिनकी कुंती ने श्रद्धा और निष्ठा भाव से सेवा की थी। जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने कुंती को देव पुत्रों की प्राप्ति का आशीर्वाद दिया था। जिसको अजमाने के लिए अविवाहिता कुंती ने सूर्य देव का आह्वान करके कर्ण को जन्म दिया था, लेकिन लोक लाज के भय से वह उन्हें नदी किनारे छोड़ आई थी।
जहां महाराज धृतराष्ट्र के सारथी अधीरथ और उनकी पत्नी राधा ने कर्ण का पालन पोषण किया। आगे चलकर गुरु द्रोणाचार्य ने ही राधेय को कर्ण कहकर संबोधित किया था। कर्ण दुर्योधन का परम मित्र था। साथ ही दुर्योधन ने कर्ण को कभी भी यह एहसास नहीं होने दिया कि वह एक सूत का पुत्र है। जिसके चलते कर्ण अपने जीवन में दुर्योधन को बहुत मानता था और उसके लिए कुछ भी करने के लिए सदैव आतुर रहता था।
हस्तिनापुर के युवराज की घोषणा:-
आगे जब कौरव और पांडव बड़े हुए और युधिष्ठिर और दुर्योधन के मध्य हस्तिनापुर की गद्दी को लेकर विवाद उपज गया, तब कुलगुरु कृपाचार्य ने उनके मध्य एक प्रतियोगिता रखी कि जो भी उनके प्रश्नों का बेहतर ढंग से जवाब देगा वह हस्तिनापुर का युवराज कहलाएगा।
प्रतियोगिता में पांडव श्रेष्ठ युधिष्ठिर ने सारे प्रश्नों का अच्छे तरीके से जवाब देकर कुलगुरु कृपाचार्य को प्रसन्न कर दिया था। उधर, राजमहल में युधिष्ठिर के कार्यों की प्रशंसा होने लगी और उनका यश चारों ओर फैलने लगा था। उनकी योग्यता को देखते हुए युधिष्ठिर को युवराज बनाने की घोषणा कर दी गई।
अब हस्तिनापुर के इस फैसले से राजमहल में दुर्योधन, गांधार नरेश शकुनि काफी आहत हुए। ऐसे में एक सोची समझी साजिश के तहत युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव और माता कुंती को कुछ समय के लिए महाराज धृतराष्ट्र के आदेश पर वारणावत (लाक्षागृह) भेज दिया गया।
जहां दुर्योधन ने अपने मामा शकुनि के साथ मिलकर एक षड्यंत्र के तहत पांडवों को मार डालने की योजना बनाई। इस बात की जानकारी राजमहल में विदुर को हो गई थी, जो कि उस समय हस्तिनापुर के प्रधानमंत्री हुआ करते थे। इसलिए उन्होंने पांडवों और माता कुंती के लाक्षागृह पहुंचने से पहले ही उनकी सुरक्षा के जबरदस्त इंतजाम कर दिए थे।
लाक्षागृह कांड :-
जब पांडव अपनी माता कुंती के साथ वारणावत पहुंचते हैं। तब वहाँ दुर्योधन द्वारा बनाए गए मायावी लाक्षागृह में ठहरते हैं, जहां प्रधानमंत्री विदुर युधिष्ठिर और अर्जुन को संकेतों के माध्यम से होने वाले खतरे की बात समझा देते हैं। जिसके चलते पांडव लाक्षागृह से एक सुरंग के द्वारा सुरक्षित बाहर निकल आते हैं।
आगे की कथा अगले प्रसंग में
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
- आरएन तिवारी