दिल्ली के पहले अनिवासी मुख्यमंत्री से NCR को बहुत आस थी, लेकिन सब टूट गयीं

By संतोष पाठक | Jun 09, 2020

दिल्ली में विधानसभा के पुनर्गठन के बाद 1993 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा ने जीत हासिल की और मदन लाल खुराना दिल्ली के मुख्यमंत्री बने। जैन हवाला डायरी में नाम आने की वजह से खुराना ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और उनकी सरकार में मंत्री रहे साहिब सिंह वर्मा दिल्ली के अगले मुख्यमंत्री बने। लेकिन 1998 के विधानसभा चुनाव से कुछ महीने पहले ही अंदरूनी गुटबाजी की वजह से साहिब सिंह वर्मा को पद छोड़ना पड़ा। भाजपा ने उस समय सुषमा स्वराज को मुख्यमंत्री बना कर विधानसभा चुनाव में जाने का फैसला किया। विधानसभा चुनाव हुए और इस चुनाव में भाजपा को करारी हार मिली। कांग्रेस ने भारी बहुमत से सरकार बनाई और तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष शीला दीक्षित ने मुख्यमंत्री पद की कमान संभाली। 2003 और 2008 के विधानसभा चुनाव में जीत हासिल कर शीला दीक्षित ने लगातार 3 बार दिल्ली का मुख्यमंत्री बनने का रिकॉर्ड भी बनाया। 


मदन लाल खुराना और साहिब सिंह वर्मा कई दशकों से दिल्ली की ही राजनीति कर रहे थे। हरियाणा से राजनीतिक जीवन की शुरूआत करने वाली सुषमा स्वराज दिल्ली की मुख्यमंत्री बनने से कई साल पहले ही राष्ट्रीय राजनीति में आ चुकी थीं और बतौर केंद्रीय मंत्री दिल्ली में ही निवास भी करती थीं। शीला दीक्षित भी 1998 के विधानसभा चुनाव से कई महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव में दिल्ली की ही एक लोकसभा सीट से चुनाव लड़ चुकी थीं, जिसमें उन्हें हार का सामना करना पड़ा। लेकिन मुख्यमंत्री बनने से काफी पहले से ही वो भी दिल्ली में ही रह रहीं थीं।

 

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दिल्ली के पहले अनिवासी मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल 


2013 में कांग्रेस विधायकों के समर्थन से पहली बार दिल्ली के मुख्यमंत्री बनने वाले अरविंद केजरीवाल को दिल्ली का पहला अनिवासी मुख्यमंत्री भी कहा जाता है। 2013 के विधानसभा चुनाव में शीला दीक्षित को हरा कर वो दिल्ली के विधायक और मुख्यमंत्री तो बने लेकिन उस समय तक वो दिल्ली में निवास नहीं करते थे। दिल्ली के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बावजूद केजरीवाल कई दिनों तक दिल्ली के पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश के गाज़ियाबाद जिले के कौशांबी के अपने फ्लैट से ही दिल्ली वालों की किस्मत का फैसला करते रहें। इसलिए उस समय केजरीवाल को दिल्ली का अनिवासी मुख्यमंत्री भी कहा गया यानि दिल्ली का ऐसा मुख्यमंत्री जो दिल्ली में निवास नहीं करता है। 


उस समय कौशांबी के साथ-साथ दिल्ली से सटे गाज़ियाबाद और नोएडा के लोग भी बहुत खुश थे। सबको यह लगा कि केजरीवाल दिल्ली की भौगोलिक सीमा से बाहर एनसीआर के अन्य जिलों में रहने वाले लोगों का दुख-दर्द समझेंगे और उनके लिए दिल्ली और ज्यादा सुलभ हो जाएगी। 


दिल्ली के पड़ोसी जिलों में जगी थी आस


दिल्ली एनसीआर के गठन के बाद दिल्ली के पड़ोसी जिलों में रहने वाले लोगों की निर्भरता दिल्ली पर पूरी तरह से बढ़ गई थी। रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सुविधाओं के लिए पड़ोसी राज्यों के करीबी जिलों में रहने वाले लोग पूरी तरह से दिल्ली पर निर्भर हो गए थे। लेकिन उस समय सबसे बड़ी समस्या आवागमन की थी। दिल्ली से गाज़ियाबाद या नोएडा आने वाली या जाने वाली बसों का किराया टैक्स की वजह से ज्यादा था। ओला-उबर जैसी टैक्सियां भी टोल टैक्स लगने की वजह से महंगी हो जाया करती थीं। 2013 में केजरीवाल के कमान संभालने के बाद लोगों को लगा कि इन दिक्कतों का समाधान हो जाएगा लेकिन हुआ ठीक इसका उल्टा। 


उत्तर प्रदेश और हरियाणा से ही चला था अन्ना आंदोलन


उत्तर प्रदेश और हरियाणा की सीमा से लगते दिल्ली के जितने भी सरकारी स्कूल हैं, उन सभी में एक जमाने में 75 प्रतिशत से भी ज्यादा विद्यार्थी इन्हीं राज्यों के हुआ करते थे। दिल्ली के कॉलेजों में भी ज्यादातर विद्यार्थी इन्हीं इलाकों से आते हैं। वास्तव में उस समय यह कोई भी मानने को तैयार ही नहीं होता था कि गाज़ियाबाद या नोएडा दिल्ली से अलग हैं। अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, कुमार विश्वास, शांति भूषण, प्रशांत भूषण, नवीन जयहिंद जैसे इनके सैंकड़ों नेताओं और हज़ारों कार्यकर्ताओं ने उत्तर प्रदेश और हरियाणा के नागरिक होते हुए जंतर-मंतर और रामलीला मैदान को भ्रष्टाचार विरोधी नारों से गुंजा दिया था। 

 

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पहले शिक्षा और अब स्वास्थ्य सुविधाओं पर मार


दिल्ली के मुख्यमंत्री पद की कमान संभालने के साथ ही केजरीवाल ने एक-एक करके पड़ोसी राज्यों की उम्मीदों को तोड़ना शुरू कर दिया। ट्रांसपोर्ट सस्ता होना तो छोड़िए बच्चों की पढ़ाई भी छिनती नजर आई। दिल्ली के सरकारी स्कूलों में दाखिले के लिए दिल्ली के आधार कार्ड को ही अनिवार्य कर देने की वजह से लाखों अभिभावकों का सपना टूट गया और अब स्वास्थ्य सुविधाओं को भी दिल्ली सरकार ने छीन लिया। 


दिल्ली सरकार के नए फैसले के मुताबिक, अब दिल्ली के सभी सरकारी और प्राइवेट अस्पतालों में उन्हीं लोगों का इलाज हो पाएगा, जो दिल्ली के निवासी होंगे। ध्यान दीजिएगा, सिर्फ दिल्ली में रहने की वजह से आप इलाज के हकदार नहीं माने जाएंगे बल्कि आपके पास दिल्ली का आधार कार्ड, वोटर आईडी कार्ड, राशन कार्ड, बैंक पासबुक या कोई अन्य निवास का प्रमाणपत्र होना ही चाहिए। हालांकि उपराज्यपाल ने इस फैसले को पलट दिया है।


केजरीवाल सरकार का यह फैसला निश्चित तौर पर काफी चौंकाने वाला है। इस पर तीखी राजनीतिक बयानबाजी तो हो ही रही है लेकिन सोशल मीडिया के तमाम प्लेटफॉर्म्स पर अलग-अलग तर्कों के साथ आम आदमी पार्टी की सरकार को घेरा जा रहा है। लोग यह कह रहे हैं कि गनीमत है कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं मिला है। कई लोग तो चुटकियां लेते हुए यहां तक कह रहे हैं कि अच्छा है कि दिल्ली पुलिस केजरीवाल के अधीन नहीं है वरना क्या पता, मुख्यमंत्री दिल्ली में प्रवेश के लिए वीजा और पासपोर्ट को भी अनिवार्य कर दें। यह बात भले ही मजाक में कही जा रही हो लेकिन इससे साफ-साफ यह भी नजर आ रहा है कि लोग कितने गुस्से में हैं।


-संतोष पाठक

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)


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