मणिपुर में जातीय संघर्ष, व्यापक हिंसा एवं अराजक माहौल के लिए पूर्वोत्तर राज्य के मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह ने बीते साल के आखिरी दिन शांति की दिशा में एक सराहनीय पहल करते हुए ‘माफी’ मांगी है, इस माफी को लेकर राजनीति के गलियारों में व्यापक चर्चा है। क्योंकि इस हिंसा में मई 2023 से 250 से अधिक लोगों की जान चली गई और हजारों लोग बेघर हो गए है। लम्बे समय से यह प्रांत अस्थिरता, असंतोष एवं अशांति की आग में जल रहा है। एन बीरेन सिंह ने माफी मांगते हुए हिंसा के इस लंबे कालखण्ड एवं सिलसिले को दुर्भाग्यपूर्ण बताया और सभी समुदायों से अपील की कि पिछली गलतियों को भुलाकर वे शांति और सौहार्द कायम करें। हालांकि मुख्यमंत्री की इस अपील के अपने मतलब निकाले जा रहे है। कुछ लोगों का कहना है कि यह माफी बहुत पहले मांगी जानी चाहिए थी। कुछ का यह मानना है कि माफी ऐसे समय आई है जब मुख्यमंत्री चौतरफा दबाव में है। विरोधी तो बहुत पहले से उनका इस्तीफा मांग रहे हैं, पिछले कुछ समय से खुद उनके विधायकों और सहयोगियों ने इस माफी को उनकी मजबूरी का परिणाम बताया है। निश्चित ही बीरेन सिंह के लिये माफी मांगना काफी नहीं है, अगर वह मानते हैं कि स्थिति को संभालने में नाकाम रहे तो उन्हें अपने पद से इस्तीफा दे देना चाहिए था या केन्द्र को राष्ट्रपति शासन लगाना चाहिए था। अफसोसनाक यह है कि इस मसले पर अक्सर विवाद उभरते रहे और राजनीतिक शख्सियतों के बीच आरोप-प्रत्यारोप अक्सर बेलगाम बोल में तब्दील ही होते रहे, कोई ठोस समाधान सामने नहीं आया, जो गैरजिम्मेदाराना राजनीति को दर्शाता है।
मणिपुर में 3 मई 2023 से ही बहुसंख्यक मैतेई और कुकी के बीच आरक्षण और आर्थिक लाभ को लेकर जो हिंसा शुरू हुई वह अभी थमने का नाम नहीं ले रही। कभी अपनी सांस्कृतिक सद्भावना के लिए जाना जाने वाला राज्य अब गहराते विभाजन एवं जातीय संघर्ष का सामना कर रहा है और लोग लगातार भय में जी रहे हैं। तनाव कम होने का कोई संकेत नहीं दिख रहा। शांति एवं सद्भावना की तलाश अभी भी जारी है। मणिपुऱ में जब चंद दरिंदें दो महिलाओं को निर्वस्त्र कर उनके साथ बर्बरतापूर्ण हरकत करते नजर आए तो पूरा प्रांत आक्रोश में आ गया। जनमानस की प्रतिक्रिया लोकतांत्रिक व्यवस्था में बहुत महत्व रखती है। न तो राज्य सरकार ने और न ही केन्द्र सरकार ने हिंसा को रोकने के लिए कोई ठोस उपाय किए और न ही शांति स्थापित करने के कोई प्रयास किए गए। मुख्यमंत्री एन. बीरेन सरकार डेढ़ साल से ज्यादा समय से खेमों में बंटती राजनीतिक उलझन में फंसी रही। सभी दल, नेता एवं सरकार नामुमकिन निशानों की ओर कौमों को दौड़ती रही। यह कौमों के साथ नाइंसाफी होने के साथ अमानवीयता की चरम पराकाष्ठा थी। क्योंकि ऐसी दौड़ जहां पहुंचाती है, वहां कामयाबी की मंजिल नहीं, बल्कि मायूसी का गहरा गड्ढा होता है।
मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह स्वीकारोक्ति कि ‘‘मैं राज्य में जो कुछ हुआ उसके लिए खेद व्यक्त करना चाहता हूं। कई लोगों ने अपनों को खो दिया और कई लोगों को अपना घर छोड़ना पड़ा। मैं खेद व्यक्त करता हूं और माफी मांगता हूं। लेकिन पिछले तीन-चार महीनों में अपेक्षाकृत शांति देखने के बाद, मुझे उम्मीद है कि आने वाले साल में स्थिति सामान्य हो जाएगी।’’ प्रश्न है कि मुख्यमंत्री 18 माह के खून-खराबे के बाद अब क्यों माफी मांग रहे हैं? वे क्या संदेश देना चाहते हैं? अगर वह स्थिति को संभालने में नाकाम रहे थे तो उन्हें बहुत पहले इस्तीफा दे देना चाहिए था। ताकि स्थितियों लगातार इतनी विकराल नहीं होती, इतनी अधिक जनहानि नहीं होती। देश के नेताओं को गाल बजाने की बजाय आम आदमी को परेशान करने वाली सामाजिक असुरक्षा, जातीय संघर्ष तथा हिंसा जैसे मुद्दों से निबटने के लिये दूरगामी नीतियों के क्रियान्वयन के प्रयास करने चाहिए। यूं तो मणिपुर हिंसा में इतने मासूमों की मौत के बाद मुख्यमंत्री के माफी मांगने का कोई औचित्य नजर नहीं आ रहा। इसीलिये विपक्ष दल एवं कांग्रेस उन पर और केन्द्र सरकार पर हमलावर है। 19 महीनों में एन.बीरेन असंवेदनशील बने रहे और वर्ष के अंत में उन्होंने माफी मांगकर किस संवेदनशीलता का परिचय दिया है? अब सवाल यह है कि त्रासदी का अंत कैसे हो? कैसे शांति स्थापित हो? जरूरत है मनुष्य को बांटे नहीं, सत्य को ढंके नहीं।
बड़ा सवाल यह है कि राज्य द्वारा माफ़ी मांगना केवल दिखावा है और राजनीतिक अपयश निवारण और क्षतिपूर्ति की आवश्यकता मात्र है या किसी सार्थक बदलाव की बुनियाद। हालांकि इस तरह की राजनीतिक माफी अक्सर संदेहास्पद ही होती है क्योंकि माफ़ी में इससे कहीं अधिक की क्षमता होती है। सार्वजनिक रूप से माफ़ी मांगने वाले नेताओं की संख्या में वृद्धि विशेष रूप से उल्लेखनीय एवं चिन्तनीय रही है। माफ़ी मांगना एक ऐसी युक्ति है जिसका इस्तेमाल नेता अब अक्सर अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिये करते हैं, ताकि वे कम से कम लागत पर अपनी गलतियों को पीछे छोड़ सकें या उनसे पीछा छूडा सके। लेकिन बीरेन सिंह की माफी की अच्छी बात यह है कि तमाम दबावों के बाद ही सही, राजनीति और समाज के हर प्रमुख हिस्से ने उनकी माफी को सकारात्मक कदम माना है। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि इस माफी की पहल को विश्वसनीय बनाया जाये एवं ऐसे उपयोगी एवं जरूरी कदम उठाए जाये ताकि मणिपुर राज्य में मैतेई समुदाय और पहाड़ी क्षेत्रों में कुकी जनजातीय समुदायों के बीच चला आ रहा टकराव विराम पा जाये। जरूरी है कि केंद्र और राज्य की सरकार मुख्यमंत्री की इस पहल से उपजे सद्भाव को स्थायित्व देने की कोशिशें अविलंब शुरू कर दें।
2023 के मुकाबले 2024 की दूसरी छमाही में मणिपुर के हालात बेहतर रहे, संघर्ष की स्थितियां कम देखने को मिली। लेकिन पूर्व की हिंसक घटनाओं और मृतकों की संख्या को उससे बनने वाले माहौल से अलग करके नहीं देखा जा सकता। तनाव, संघर्ष और अविश्वास के जिस माहौल से मणिपुर गुजर रहा है, उसकी सचाई इसी हफ्ते कांगपोकपी जिले में कथित कम्युनिटी बंकरों को सुरक्षा बलों द्वारा नष्ट किए जाने पर हुए संघर्ष में 40 लोगों के जख्मी होने और कुकी नैशनल फ्रंट के कथित हमलों के खिलाफ चुराचांदपुर जिले में बंद का आह्वान किए जाने से स्पष्ट है। अभी भी असामान्य हालातों के बीच सवाल है कि मुख्यमंत्री की इस माफी का राज्य के अलग-अलग समुदायों के लोगों पर कैसा और कितना असर पड़ेगा? सवाल महत्वपूर्ण इसलिए भी हो जाता है क्योकि यह आरोप संघर्ष शुरू होने के बाद से ही लगता रहा है कि मुख्यमंत्री और राज्य प्रशासन की भूमिका निरपेक्ष नहीं है। आरोप पूरी तरह गलत हो तो भी इससे इतना तो स्पष्ट है कि प्रदेश के लोगों का एक खेमा उन्हें अविश्वास भरी नजरों से देखता है। इतने गंभीर और मानवता के अस्तित्व को ही नकारने से जुड़े मसले पर भी समाज के लोगों में जो बंटवारे की प्रवृत्ति राजनीतिक कारणों से दिख रही है वो किसी भी नजरिए से देश की एकता और अखण्डता के लिये फायदेमंद नहीं है।
मुद्दा चाहे कोई भी, खांचों या खेमों में बांटने या बंटने का और आम लोगों को तोड़ने का या जोड़ने का- राजनीति से जुड़े लोगों, राजनीतिक दलों और नेताओं में तो शुरू से रहा है लेकिन जब समाज में आम लोग भी इस तरह के बंटवारे का हिस्सा बन जाते हैं तो इसमें नुकसान सिर्फ और सिर्फ देश के नागरिकों का होता है। मणिपुर के मुख्यमंत्री एन. बीरेन सरकार संकट में सही ढंग से नहीं निपटने के चलते अपनी विश्वसनीयता पहले ही खो चुकी है, लेकिन उसे पुनः हासिल करने के लिये माफी से आगे बढ़कर और अधिक सामाजिक एकता, समरसता एवं सौहार्द के प्रयत्न करने होंगे। हमारे देश की राजनीति की विडम्बना ही रही है कि लोगों को धर्म, जाति, वर्ग, भाषा, वर्ण के नाम पर बांट कर किसी न किसी तरह सत्ता हासिल करना। हालांकि सही मायने में लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीति की परिभाषा और दायरा उससे कहीं ज्यादा व्यापक है। जातीय हिंसा का समाधान संवाद से ही होता है। राज्य सरकार को अपनी जिम्मेदारी समझते हुए मैतेई और कुकी समुदाय के साथ लगातार संवाद जारी रखना चाहिए।
- ललित गर्ग
लेखक, पत्रकार, स्तंभकार