By नीरज कुमार दुबे | Aug 10, 2023
संसद में मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाकर विपक्ष ने राजनीति की पिच पर सत्ता पक्ष के सामने जो बॉल फेंकी थी उस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने छक्का लगा दिया है। वैसे आंकड़ों के लिहाज से यह पहले से तय था कि विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव से सरकार को कोई खतरा नहीं है। यही नहीं, लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा शुरू होने से एक दिन पहले ही राज्यसभा में भी विपक्ष की बड़ी हार हो गयी थी जब सत्ता पक्ष ने सदन में अपना बहुमत नहीं होते हुए भी दिल्ली में सेवाओं संबंधी विधेयक को पारित करा लिया था। ऐसे में सवाल उठता है कि एक हार के तुरंत बाद विपक्ष दूसरी हार का स्वाद चखने को क्यों आतुर था? देखा जाये तो इस प्रश्न का जवाब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक पुराने बयान से मिल जाता है। प्रधानमंत्री ने संसद में पिछले अविश्वास प्रस्ताव के समय कहा था कि कांग्रेस ने इस संवैधानिक प्रावधान का सर्वाधिक बार दुरुपयोग किया है। देखा जाये तो इस बार कांग्रेस सांसद गौरव गोगोई ने जो अविश्वास प्रस्ताव पेश किया वह भी एक तरह से संवैधानिक प्रावधान का दुरुपयोग ही था क्योंकि यह सिर्फ राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उठाया गया कदम था। प्रधानमंत्री ने तो कहा भी है कि पिछली बार भी और इस बार भी फ्लोर टेस्ट सरकार का नहीं बल्कि विपक्ष का ही था।
लोकसभा में तीन दिन की बहस में सबसे अच्छा भाषण किसका रहा, किसने किसको धो डाला, किसका भाषण सबसे खराब था या किसका भाषण औसत दर्जे का था, इन सब मुद्दों की चर्चा से पहले हमें यह देखना चाहिए कि इस बार की बहस के दौरान क्या नया रिकॉर्ड बना है? हम आपको बता दें कि जो नया रिकॉर्ड बना है वह है हर पक्ष के वक्ताओं की ओर से एक दूसरे पर निजी हमले बोलने का। यह निजी हमले जिस तरह बेहद निजी हमलों में परिवर्तित हुए वह दुर्भाग्यपूर्ण था। इसके अलावा, पांच साल पहले लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव के दौरान एक सदस्य द्वारा आंख मारी गयी थी तो इस बार सदन में उनकी फ्लाइंग किस का किस्सा सामने आया।
विपक्ष के नेताओं के भाषणों का विश्लेषण
संसद में पहले भी अविश्वास प्रस्ताव आये हैं लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली और प्रमोद महाजन जैसे विपक्षी नेता सत्ता पक्ष पर हमले के लिए निचले स्तर पर कभी नहीं उतरे थे। उस समय माहौल ऐसा होता था कि सत्ता पक्ष से ज्यादा लोग विपक्ष के प्रमुख नेताओं के भाषण सुनने को आतुर रहते थे क्योंकि वह सिर्फ और सिर्फ तथ्यों और तर्कों के आधार पर ही अपनी बात गरिमापूर्ण तरीके से रखते थे। लेकिन इस बार विपक्ष ने जिस तरह अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान सिर्फ और सिर्फ चुनावी भाषण दिये और प्रधानमंत्री पर तीखे हमले किये, वह अभूतपूर्व था। विपक्ष की ओर से गौरव गोगोई ने भले शानदार शुरुआत की और मणिपुर को लेकर अपनी पार्टी की चिंताओं को प्रमुखता के साथ देश के समक्ष रखा लेकिन विपक्ष के अन्य नेता कनिमोझी, सुप्रिया सुले, डिंपल यादव, टीआर बालू, अरविंद सावंत, सिमरनजीत सिंह, एनके प्रेमचंद्रन, महुआ मोइत्रा आदि कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाये। इसके अलावा, विपक्ष की ओर से अधीर रंजन चौधरी, राहुल गांधी और मनीष तिवारी के भाषणों में तर्कों और अनुभव की झलक थी लेकिन अधीर रंजन और राहुल गांधी ने कई विवादित बातें कह कर सत्ता पक्ष को और हमलावर होने का मौका दे दिया। इसके साथ ही जदयू के राजीव रंजन सिंह हों, शिरोमणि अकाली दल बादल की हरसिमरत कौर बादल हों, एआईएमआईएम के असद्दुदीन ओवैसी हों, बीजद के पिनाकी मिश्रा हों, नेशनल कांफ्रेंस के फारुक अब्दुल्ला हों, निर्दलीय नवनीत राणा हों, लोजपा रामविलास के चिराग पासवान हों, आरएलपी के हनुमान बेनीवाल हों या वाईएसआर कांग्रेस के पीवी मिधुन रेड्डी हों...इन सबका भाषण भी स्थानीय राजनीति और आगामी चुनावों को ध्यान में रखकर दिया गया।
सत्ता पक्ष के नेताओं के भाषणों का विश्लेषण
दूसरी ओर सत्ता पक्ष के नेताओं के भाषणों को देखें तो इसमें कोई दो राय नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हर पक्ष पर भारी पड़े। अपने सारगर्भित संबोधन के जरिये उन्होंने देश को हर सवाल का जवाब दिया और अपनी पार्टी को आगामी चुनावों में जीत के लिए भी तैयार कर दिया। प्रधानमंत्री के बाद गृह मंत्री अमित शाह के भाषण को रखा जा सकता है। उन्होंने सिर्फ मणिपुर ही नहीं बल्कि देश से जुड़े हर मुद्दे का तर्कपूर्ण जवाब दिया और विपक्ष की ओर से फैलायी जा रही भ्रांतियों को भी दूर किया। केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू का संबोधन भी काफी व्यापक रहा। एक तो वह उसी पूर्वोत्तर से आते हैं जहां मणिपुर स्थित है, दूसरा वह अल्पसंख्यक समुदाय से भी हैं। विपक्ष केंद्र सरकार पर अल्पसंख्यकों के प्रति सत्तारुढ़ दल के रुख और सरकार की पूर्वोत्तर नीति को लेकर निशाना साधता है इसीलिए रिजिजू का संबोधन काफी महत्वपूर्ण रहा। इसके अलावा केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने भी सरकार की आर्थिक नीतियों और उसके प्रभाव को लेकर विस्तृत रूप से अपना पक्ष रखा। अन्य मंत्रियों में स्मृति ईरानी का संबोधन राजनीतिक भाषण की दृष्टि से काफी प्रभावी रहा। ज्योतिरादित्य सिंधिया भी अच्छा बोले लेकिन वह अपनी पूर्व पार्टी कांग्रेस पर ही ज्यादा निशाना साधते दिखे। नारायण राणे और साध्वी निरंजन ज्योति जैसे मंत्री कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाये। राज्यवर्धन सिंह राठौड़, निशिकांत दुबे जैसे सत्तारुढ़ पक्ष के वक्ता औसत ही रहे। लॉकेट चटर्जी ने महिलाओं से जुड़े मुद्दों खासकर बंगाल से जुड़े विषयों को लेकर प्रभावी ढंग से अपनी बात रखी। शिवसेना शिंदे गुट से श्रीकांत शिंदे का संबोधन शानदार रहा। उन्होंने दर्शा दिया है कि वह उद्धव गुट के उत्तराधिकारी आदित्य ठाकरे के मुकाबले ज्यादा प्रभावी वक्ता हैं।
अविश्वास प्रस्ताव से किसको क्या हासिल हुआ?
तीन दिनों तक चली इस बहस का निचोड़ देखेंगे तो यही सामने आता है कि सभी नेताओं ने अपने अपने राजनीतिक हित साधे। राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता बहाल होने के बाद कांग्रेस ने उनका भाषण कराके अपने कार्यकर्ताओं में उत्साह का संचार किया। इसके अलावा, एनडीए और इंडिया गठबंधन के नेताओं ने अपनी अपनी पार्टी से वक्ता के रूप में लोगों का चयन करते समय चुनाव से जुड़े हितों को ही ध्यान में रखा। देखा जाये तो सभी पार्टियों के नेता साल 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले खुद की तैयारियों को परखना चाहते थे इसलिए सबने अपने भाषण को ज्यादा से ज्यादा प्रभावी बनाने का काम किया। देखा जाये तो राजनेताओं के भाषणों को उनके समर्थकों ने सराहा, लाइक किया और शेयर किया। लेकिन सवाल उठता है कि इससे देश को और मणिपुर को क्या मिला? देश चाहता था कि संसद के मॉनसून सत्र में चर्चा हो कि महंगाई को कैसे कम किया जाये, बेरोजगारी को कैसे कम किया जाये, साम्प्रदायिक सद्भाव के बिगड़ते माहौल संबंधी घटनाओं को कैसे काबू में लाया जाये, भ्रष्टाचार को कैसे पूरी तरह खत्म किया जाये, महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराधों पर कैसे लगाम लगायी जाये, ऑनलाइन फ्रॉड की बढ़ती घटनाओं पर कैसे तत्काल रोक लगाई जाये...लेकिन इसमें से किसी भी विषय पर चर्चा नहीं हुई। यानि जनता के जो मुद्दे थे वो वहीं के वहीं रह गये।
बहरहाल, विपक्ष इस बात पर अपनी जीत मना रहा है कि वह प्रधानमंत्री को विभिन्न मुद्दों पर बोलने के लिए मजबूर करने में सफल रहा। सरकार इस बात पर अपनी जीत मना रही है कि विपक्ष का अविश्वास प्रस्ताव गिर गया। यानि दोनों पक्ष अलग-अलग तरह से अपनी-अपनी जीत के दावे कर रहे हैं लेकिन इस सारे शोर में हार तो संसदीय प्रणाली की हुई है क्योंकि विपक्ष ने संसद के मॉनसून सत्र का अधिकांश समय हंगामा करके बर्बाद कर दिया जिससे जनहित के मुद्दे नहीं उठ पाये। यही नहीं, सत्र दर सत्र लगातार हंगामे के बीच ही बिना चर्चा के सरकार को विधेयक पारित कराने की अब आदत पड़ गयी है। विधेयकों पर चर्चा नहीं होने से जनता को अपने लिये बन रहे कानून के सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष के बारे में जानने का अवसर ही नहीं मिल पाता। यही नहीं, जिस मणिपुर को लेकर यह सारा राजनीतिक हंगामा हुआ उस पर चर्चा के बहाने से सभी दलों ने एक दूसरे के कार्यकाल में हुए दंगों और हिंसा से जुड़े घटनाक्रमों का उल्लेख कर पुराने जख्मों को कुरेदा। खैर...लोकसभा ने मणिपुर में शांति की अपील का जो प्रस्ताव पारित किया है वह काफी सकारात्मक कदम है। यदि इस चर्चा के माध्यम से ही मणिपुर में शांति कायम हो जाये तो एनडीए और इंडिया गठबंधन, दोनों की ही बड़ी जीत होगी।
-नीरज कुमार दुबे