By डॉ. अजय खेमरिया | Dec 14, 2019
"मोदी है तो मुमकिन है", यह नारा पिछले लोकसभा चुनावों में जमकर चला। यह भारतीय मतदाताओं को भी खूब भाया और 2014 की तुलना में ज्यादा सीटें देकर जनता ने नरेन्द्र मोदी को फिर से देश की कमान सौंपी। दोबारा सत्ता में आने के बाद 'मोदी है तो मुमकिन है' के नारे को सार्थक बनाने में जिस एक शख्स की भूमिका निर्णायक बनकर देश के समक्ष साबित हो रही है वह गृह मंत्री अमित शाह हैं। नागरिकता संशोधन बिल को पारित कराने के बाद कहा जा सकता है कि अमित शाह "मोदी के मुमकिन मैन" बनकर उभरे हैं। जिस दमदारी के साथ वह गृह मंत्री के रूप में निर्णय ले रहे हैं उससे उन्हें मैन ऑफ डिसीजन भी कहा जा सकता है। नागरिकता संशोधन बिल पर संसद के दोनों सदनों में उनके वक्तव्यों और भाव-भंगिमा को अगर ध्यान से विश्लेषित किया जाए तो आसानी से समझा जा सकता है कि अब भारत में ऐसी सरकार का दौर है जो पॉलिसी पैरालाइसिस की जगह आक्रामकता और नेशन फर्स्ट को आगे रखकर निर्णय लेती है।
सीएबी के इतर अनुच्छेद 370, तीन तलाक, एनआईए जैसे बड़े और नीतिगत निर्णय यह भी साबित कर रहे हैं कि मोदी और अमित शाह की जोड़ी भारत से अल्पसंख्यकवाद की सियासी दुकानों का भी पिंडदान करने का ठान चुकी है। अमित शाह जिस सुनियोजित और ठोस रणनीति के साथ गृह मंत्री के रूप में काम करते हैं वह उनके असीम और अदम्य प्रशासनिक कौशल का भी प्रमाण है। अनुच्छेद 370 एवं नागरिकता बिल के मामलों में गृह मंत्री बहुसंख्यक जनता की नजरों में एक स्टे्टसमैन की तरह नजर आए हैं। राज्यसभा में उन्होंने जिस अंदाज में नागरिकता बिल पर विपक्षी दलीलों को खारिज करते हुए बीजेपी के घोषणा पत्र को सरकार के संकल्प और सिद्धि से जोड़ा वह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि आमतौर पर भारत की हर सरकार ने हिंदुओं के संरक्षण के मामले में अल्पसंख्यक तुष्टिकरण को तरजीह दी है। अमित शाह इस ट्रेंड को बदलने के लिये खुद निर्णय ले रहे हैं वे उन मुद्दों को बीजेपी के वैचारिक विकल्प से सुलझाने में लगे हैं जिन्हें 70 सालों तक विवादित मानकर कोई सरकार छूने का राजनीतिक साहस नहीं दिखा पाई थी। 370 और 35 ए, राम मंदिर तथा कॉमन सिविल कोड बीजेपी के ऐसे ही मुद्दे थे जिनकी वजह से देश की करोड़ों जनता के बीच बीजेपी की स्वीकार्यता शिखर तक पहुँची है।
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अटल जी की 24 दलों की सरकार में इन मुद्दों पर इसलिए पहल नहीं हुई क्योंकि तब सरकार कॉमन मिनिमम प्रोग्राम पर आधारित थी लेकिन मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी को लगातार दूसरी बार देश ने पूर्ण बहुमत इन विवादित मुद्दों पर पार्टी की अधिकृत लाइन और मोदी की विश्वसनीयता को ध्यान में ऱखकर ही दिया है। नरेन्द्र मोदी औऱ अमित शाह यह अच्छी तरह से जानते हैं कि लोकप्रिय सदन का बहुमत जनाकांक्षाओं और जनाक्रोश की महीन चादर से ही विभाजित रहता है। इसीलिए वह दूसरे कार्यकाल की शुरुआत से ही उन मामलों को निपटाने में जुटे हैं जो भारत के संसदीय लोकतंत्र में बीजेपी को वैशिष्ट्य के साथ विश्वसनीयता प्रदान करते हैं।
'मोदी है तो मुमकिन है' और' 'मैं भी चौकीदार' को करोड़ों वोटरों की अभिस्वीकृति कोई सामान्य चुनावी घटनाक्रम नहीं है इसे मोदी और अमित शाह से बेहतर कोई नहीं जानता है। मौजूदा सरकार का नागरिकता बिल असल में भारत के 'मतदान व्यवहार' का सामयिक विश्लेषण भी है क्योंकि पाकिस्तान और अल्पसंख्यक के नाम पर मुस्लिम वोटबैंक की सियासत से नए भारत का अब कोई लगाव नहीं बचा है, लगातार दो चुनावों में कांग्रेस की ऐतिहासिक शिकस्त से यह साबित हो चुका है। जिन इलाकाई क्षत्रपों ने मुस्लिम वोट बैंक से अपनी फैमिली लिमिटेड पार्टियां खड़ी की हैं वे भी अब अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं इसलिये मोदी और अमित शाह 370, अयोध्या, कैब, ट्रिपल तलाक, एनआईए संशोधन, पुलिस एक्ट जैसे मुद्दों पर आगे बढ़कर निर्णय कर रहे हैं। सियासी कौशल के मामले में भी अमित शाह ने खुद को भारत की सियासत में प्रमाणित किया है खासकर यूपी में पार्टी के प्रभारी महासचिव के तौर पर 2014 की रणनीति और फिर अध्यक्ष के तौर पर 2019 की विजय वस्तुतः उनकी चाणक्य-सी सोच और रणनीति का नतीजा ही है।
राजनीतिक पंडित भी मानते हैं कि अमित शाह ने 2014 के बाद भारत की संसदीय राजनीति की न केवल इबारत बदली है बल्कि वे नए व्याकरण का सृजन करने में भी कामयाब रहे हैं। मायावती, केजरीवाल, नीतीश, चंद्रशेखर राव, नवीन पटनायक, पलानीस्वामी, जगनमोहन जैसे नेता अपनी अपनी पार्टियों के साथ अगर चिर-विवादित मुद्दों पर मोदी के साथ संसद में कदमताल करते दिख रहे हैं तो आप नए संसदीय व्याकरण और इबारत को कैसे खारिज कर सकते हैं। अमित शाह और मोदी के बीच पारस्परिक समझ एक दौर की अटल-अडवाणी युगल की याद दिलाती है लेकिन इस युग्म का एक साम्य और भी है जिसे आज भले नजरअंदाज किया जा रहा हो। वह यह कि मोदी की तरह अमित शाह भी विरोधियों और बुद्धिजीवियों के निशाने पर ठीक वैसे ही नफरत मोड़ में हैं जैसे गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में मोदी हुआ करते थे। प्रधानमंत्री मोदी यह जानते हैं इसलिए पार्टी प्रमुख के साथ उन्होंने अमित शाह को गुजरात की तर्ज पर ही केंद्र में गृह मंत्री की कुर्सी पर बिठाया है। कहा जा सकता है कि गुजरात देश नहीं है लेकिन यह दलील दोनों की जोड़ी 2014 और फिर 2019 में खारिज कर चुकी है। देश की जनता फिलहाल दोनों के साथ है क्योंकि आज भारत का गृह मंत्री बहुसंख्यक समाज के मन मस्तिष्क की भाषा बोलता है वह आतंकवाद और अपराध को सख्ती से कुचलने की बात करता है। वह हिंदुओं के स्वाभिमान की कीमत पर अल्पसंख्यक तुष्टिकरण को खुलेआम खारिज करता है। सच्चाई यह है कि अमित शाह में नए भारत की प्रतिध्वनि सुनाई देती है। भारत में संभवतः पहली बार कोई गृह मंत्री विवादित मुद्दों पर खुलकर जनापेक्षाओं के अनुरूप निर्णय लेता है और बहुसंख्यक अस्मिता के लिये दोयम समझने के स्थान पर उसे अपना घोषित एजेंडा स्वीकार करता है।
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यह भी रोचक बात है कि अमित शाह के चुनावी चक्रव्यूह में कई बार शिकस्त खा चुके राजनीतिक दल उनकी प्रशासनिक जादुगिरी में भी एक के बाद एक उलझते जा रहे हैं। 370 पर मायावती और केजरीवाल जैसे नेताओं का रुख हो या कैब पर गैर बीजेपी दलों का स्टैंड, सभी मामलों में गैर बीजेपी पार्टियां और नेता उलझन और भ्रम में ही नजर आये हैं। यह अमित शाह के वैशिष्ट्य को भारत की सियासत में स्थापित कर रहे हैं इस विशेषण के साथ- अमित शाह यानी 'मैन ऑफ मुमकिन'।
- डॉ. अजय खेमरिया