By नीरज कुमार दुबे | Sep 10, 2021
अफगानिस्तान में अब तालिबान का राज हो चुका है। दुनिया हैरान है कि जिस अफगान सेना को अमेरिका ने प्रशिक्षण दिया था वह घुटनों के बल कैसे आ गिरी तो आपको बता दें कि अफगान सुरक्षा बलों को जिन तालिबानियों ने हराया है उन्हें भी एक समय अमेरिका ने ही प्रशिक्षण देकर तैयार किया था। अमेरिका और तालिबान की बाद में भले दुश्मनी हो गयी हो लेकिन तालिबान का जनक तो अमेरिका ही है। बात अमेरिका और तालिबान के रिश्ते की शुरुआत की करें तो इतिहास के पन्ने पलटने पर उल्लेख मिलता है कि अफगानिस्तान जब तत्कालीन सोवियत संघ के करीब माना जाता था तब अमेरिका की भी नजर इस क्षेत्र पर पड़ी और अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने अफगानिस्तान के विदेश मंत्री हफीजुद्दीन अमीन को अपने साथ मिला लिया और तत्कालीन अफगान सरकार की छवि मुस्लिम विरोधी की बनाने का खेल शुरू कर दिया। अफगान लोगों को मुजाहिदीन बनने के लिए प्रशिक्षण दिया जाने लगा और इस काम में पाकिस्तान ने भी पूरा साथ दिया। कुछ समय बाद अमेरिका के इस अभियान को सऊदी अरब का भी साथ मिल गया और सबने मिलकर तत्कालीन अफगानिस्तान सरकार को गिराने की रणनीति बना ली। तत्कालीन अफगानिस्तान सरकार जोकि सोवियत संघ के सहयोग से चल रही थी, उसके खिलाफ लड़ने सऊदी अरब से जो लोग पहुँचे थे उसमें ओसामा बिन लादेन भी था।
अफगानिस्तान से रूस को कैसे भगाया था अमेरिका ने?
उस समय अमेरिका के इशारे पर अफगानिस्तान में विभिन्न कबीलों को तो भड़काया ही जा रहा था साथ ही छात्रों के मन में भी आक्रोश पैदा किया जा रहा था। आज जो हम तालिबान नाम सुनते हैं वह तालिब से निकला है। तालिब का मतलब होता है छात्र। छात्र आंदोलन अफगानिस्तान में जोर पकड़ रहे थे तो तत्कालीन अफगान सरकार के मुखिया की नींद उड़ गयी थी और वह परेशान होकर सोवियत संघ मदद मांगने चले गये थे। सोवियत संघ ने उन्हें आगे की रणनीति समझा कर वापस भेजा लेकिन स्वदेश आते ही उनकी हत्या कर दी गयी और अफगान सरकार में रह कर सीआईए के लिए काम कर रहे हफीजुद्दीन अमीन ने अफगानिस्तान की सत्ता अपने हाथ में ले ली। सोवियत संघ ने अफगानिस्तान की डोर अपने हाथ से छूटते देख 1989 के अंतिम दिनों में हमला बोल दिया और रूसी सेना ने काबुल में हफीजुद्दीन अमीन को मार डाला। अमेरिका ने जब यह देखा कि अफगानिस्तान में रूसी हमला हो चुका है तो वह विद्रोहियों को और भड़काने के काम में लग गया। अमेरिका के इशारे पर मुजाहिदीन रूसी सेना के खिलाफ मैदान में उतरने लगे। उस समय मुजाहिदीनों को अमेरिका से पैसा और हथियार आसानी से मिल जाते थे। दूसरी ओर रूस अफगानिस्तान पर हमला तो कर चुका था लेकिन वह वहां फंस इसलिए गया था क्योंकि एक तो पहाड़ी इलाके और पथरीली जमीन पर उसकी सेना टिक नहीं पा रही थी दूसरा अमेरिका भी उसकी राह में बाधाएं खड़ी कर रहा था। यह सब देखते हुए रूस ने अफगानिस्तान से पीछे हटना ही सही समझा।
तालिब कैसे बना तालिबान?
रूसी सेना के अफगानिस्तान छोड़ते ही देश के सभी मुजाहिदीन गुट आपस में भिड़ गये। सभी गुटों का अलग-अलग इलाकों में नियंत्रण हो गया और अफगानिस्तान में गृह युद्ध के चलते सब कुछ बर्बाद होता चला जा रहा था। इन सभी गुटों की आपसी लड़ाई में तालिब गुट विजेता बनकर उभरा। उस समय इस तालिब संगठन में सबसे बड़ा और सफल लड़ाका था मुल्ला उमर। मुल्ला उमर ने रूसी सेना से भी सीधी टक्कर ली थी जिसमें उसे अपनी एक आंख से हाथ धोना पड़ा था। यह मुल्ला उमर बाद में अमेरिका का दुश्मन हो गया और बाद में मारा गया। 9/11 के हमले के बाद से तालिबान के खिलाफ अमेरिकी अभियान और अब साल 2021 में तालिबान के आगे अमेरिका के नतमस्तक हो जाने की कहानी आने वाली पीढ़ी को बताती रहेगी कि अमेरिका सिर्फ युद्ध हारता नहीं है बल्कि सोमालिया, बेनगाजी, सैगॉन और अब अफगानिस्तान से जिस तरह सब कुछ छोड़ कर भागा है वह हार से भी ज्यादा शर्मनाक है। उल्लेखनीय है कि 1945 के बाद से अमेरिका ने जो पाँच बड़े युद्ध लड़े हैं उनमें 1991 के खाड़ी युद्ध को छोड़कर बाकी सभी युद्धों में हार का मुँह ही देखा है।
रिश्तों का अतीत और वर्तमान
तो 15 अगस्त से पहले अफगानिस्तान में अमेरिका के सहयोग से बनी सरकार चल रही थी लेकिन आज वहां जिस संगठन तालिबान की सरकार है उसका जनक भी अमेरिका ही है। अमेरिका ने जैसे तालिबान को उसके जन्म के समय प्रशिक्षण और हथियार मुहैया कराये थे वैसा ही कुछ अब फिर से किया है। अमेरिकी फौजें अफगानिस्तान छोड़ते समय बड़ी संख्या में रक्षा उपकरण तालिबान के लिए ही छोड़ कर आयी हैं। यह बात अलग है कि आज के तालिबान को रूस, चीन और पाकिस्तान से ज्यादा समर्थन प्राप्त है। लेकिन तालिबान अमेरिका से तो डील कर ही चुका है कि वह उसके हितों के खिलाफ काम नहीं होने देगा। दरअसल तालिबान भी यह बात जानता है कि यदि अफगानिस्तान की धरती का इस्तेमाल अमेरिका के खिलाफ हुआ और अमेरिका हमला करने दोबारा आया तो फिर से तालिबानियों को दस-बीस साल के लिए सत्ता से बाहर होना पड़ेगा।
-नीरज कुमार दुबे