पर्यावरण दिवस मनाने के साथ-साथ हमें कुछ सार्थक काम भी करना होगा

By ब्रह्मानंद राजपूत | Jun 04, 2022

हर साल पूरे विश्व में पांच जून को पर्यावरण दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। पर्यावरण दिवस पर्यावरण के संरक्षण के लिए शपथ लेने का दिन है। सभी लोगों को आज के दिन इस प्रकृति और पर्यावरण को सहेजने की जिम्मेदारी लेनी चाहिये। संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित यह दिवस पर्यावरण के प्रति अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर राजनैतिक और सामाजिक जागृति लाने के लिए मनाया जाता है। जब से इस दिवस को सिर्फ मनाया जा रहा है तबसे इसके मनाए जाने को दिखाया या जताया जा रहा है तभी से लगातार पूरे विश्व में पर्यावरण की खुद की सेहत बिगडती जा रही है। इससे बडी विडंबना और क्या हो सकती है कि आज जब ये विश्व पर्यावरण दिवस को मनाए जाने की खानापूर्ति की जा रही है। तो प्रकृति भी पिछले कुछ वर्षों से धरती के अलग अलग भूभाग पर, कहीं ज्वालामुखी फटने के रूप में, तो कहीं ताउते, कहीं सुनामी, कहीं भूकंप, कहीं यश चक्रवात और कहीं ऐसे ही किसी प्रलय के रूप में इस बात का ईशारा भी कर रही है कि अब विश्व समाज को इन पर्यावरण दिवस को मनाए जाने जैसे दिखावों से आगे बढ कर कुछ सार्थक करना होगा। विश्व के बडे-बडे विकसित देश और उनका विकसित समाज जहां प्रकृति के हर संताप से दूर इसके प्रति घोर संवेदनहीन होकर मानव जनित वो तमाम सुविधाएं उठाते हुए स्वार्थी और उपभोगी होकर जीवन बिता रहा है जो पर्यावरण के लिए घातक साबित हो रहे हैं। वहीं विकासशील देश भी विकसित बनने की होड में कुछ-कुछ उसी रास्ते पर चलते हुए दिख रहे हैं। जो कि पर्यावरण और धरती के लिए लिए घातक सिद्ध हो रहा है।

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हम सभी ने इस कोरोना महामारी में देखा कि न जाने कितने लोगों ने ऑक्सीजन के अभाव में अपने प्राण गवाए हैं, इस ऑक्सीजन के अभाव में न जाने कितने परिवार उजाड़ गए, हजारों लोगों ने अपनों को खोया है; ये सब मानव द्वारा प्रकृति और पर्यावरण से की गयी छेड़छाड़ का ही नतीजा है। मानव जाति ने जगह-जगह से प्रकृति का सत्यानाश किया है। इस धरा से पेड़-पौधों को नष्ट किया है। पहाड़ों और ग्लेशियर्स के साथ छेड़छाड़ की है। नदियों के मूल बहाव को रोका है, कई जगह तो इस धरती पर नदियां नाला बनकर रह गयी हैं। नदियों में इंसानी जाति ने इतना प्रदूषण और गन्दगी उड़ेली है कि इससे कई बड़ी-बड़ी नदियां अपनी अंतिम सांसें गिन रही हैं। अगर हम प्रकृति की सांसें रोकेंगे तो प्रकृति तो अपना रूप दिखाएगी ही। जितना इंसानी जाति ने प्रकृति के साथ गलत किया है, अगर उसका एक प्रतिशत भी प्रकृति हमसे बदला लेती है तो इस धरती से इंसान का नामोंनिशान मिट जाएगा। जितना क्रूर हम प्रकृति और पर्यावरण के लिए हुए हैं अगर जिस दिन प्रकृति ने अपनी क्रूरता दिखाई उस दिन इस धरती पर प्रलय होगी। इसलिए जरूरी है हम प्रकृति और पर्यावरण की मूलता को नष्ट करने की जगह उसका संरक्षण करें, नहीं तो अभी ऑक्सीजन की कमी से लोगों ने अपने प्राण गवाए हैं; आने वाले दिनों में पीने के पानी की कमी से लोगों को परेशानियों का सामना करना पड़ेगा। हमने ऑक्सीजन तो कृत्रिम बना ली लेकिन पीने के पानी को बनाने की कोई कृत्रिम तकनीक नहीं है। इसलिए समय रहते हमें प्रकृति की ताकत को समझना होगा नहीं तो बहुत देर हो जायेगी। हमें ये भी समझना होगा कि हम प्रकृति के स्वरुप को अपने हिसाब से नहीं बदल सकते, अगर हमने अपने हिसाब से प्रकृति और पर्यावरण के स्वरुप को बदलने का प्रयास किया तो यह आने वाली पीढ़ियों और इस धरती पर रहने वाली मानव जाति और करोड़ों जीव-जंतुओं, पक्षियों के लिए नुकसानदेह होगा।


वैज्ञानिकों के अनुसार अगर धरती का तापमान 2 डिग्री से ऊपर बढ़ता है तो धरती की जलवायु में बड़ा परिवर्तन हो सकता है। जिसके असर से समुद्र तल की ऊंचाई बढ़ना, बाढ़, जमीन धंसने, सूखा, जंगलों में आग जैसी आपदाएं बढ़ सकती हैं। वैज्ञानिक इसके लिए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को जिम्मेदार मानते हैं। ये गैस बिजली उत्पादन, गाड़ियाँ, फैक्टरी और बाकी कई वजहों से पैदा होती हैं। चीन दुनिया में सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करने वाला देश है, चीन के बाद दूसरे नंबर पर अमेरिका विश्व में कार्बन का उत्सर्जन करता है, जबकि भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जन करने वाला देश है। अगर विश्व के ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करने वाले देश कॉर्बन उत्सर्जन में आने वाले समय में कटौती करते हैं तो यह विश्व के पर्यावरण और जलवायु के लिए निश्चित ही सुखद होगा। 

 

अगर बात भारत के वायु प्रदूषण की करी जाये तो आज भारत देश के बड़े-बड़े शहरों में अनगिनत जेनरेटर धूंआ उगल रहे हैं, वाहनों से निकलने वाली गैस, कारखानों और विद्युत गृह की चिमनियों तथा स्वचालित मोटरगाड़ियों में विभिन्न इंधनों के पूर्ण और अपूर्ण दहन भी प्रदूषण को बढ़ावा दे रहे हैं, और पर्यावरण की सेहत को नुकसान पहुंचा रहे हैं। लगातार जहरीली गैसों कार्बन डाई ऑक्साइड, कार्बन मोनो ऑक्साइड, नाइट्रोजन आक्साइड, सल्फर डाइआक्साइड और अन्य गैसों सहित एसपीएम, आरपीएम, सीसा, बेंजीन और अन्य खतरनाक जहरीले तत्वों का उत्सर्जन लगातार बढ़ रहा है। जो कि मुख्य कारण है वायु प्रदूषण का। कई राज्यों में इस समस्या का कारण किसानों द्वारा फसल जलाना भी है। साथ ही साथ अधिक पटाखों का जलाना भी वायु प्रदूषण को बढ़ावा देता है। आज जरूरत है केंद्र और प्रदेश सरकारों को वायु-प्रदूषण से होने वाले स्वास्थ्य-जोखिम के बारे में जागरूकता बढ़ानी चाहिए। और लोगों को विज्ञापन या अन्य माध्यम से वायु प्रदूषण व अन्य प्रदूषण के बारे में जागरूक किया जाना चाहिए। लेकिन विडंबना है कि इस पर अमल नहीं हो रहा है। सरकार को किसानों को फसलों को न जलाने के लिए जागरूक करना चाहिए। किसानों को फसलों (तूरियों) को जलाने की जगह चारे, खाद बनाने या अन्य प्रयोग के लिए जागरूक करना चाहिए। ज्यादा प्रदूषण करने वाले पटाखों पर भी सरकार को प्रतिबन्ध लगाना चाहिए।  हमारी सरकार को ईधन की गुणवत्ता को बढ़ाकर पॉल्यूशन को काफी हद तक कंट्रोल करने पर जोर देना चाहिए। जिससे उसमें उपलब्ध जरूरी तत्वों की मात्रा आवश्यकता से अधिक न हो तथा उत्सर्जन निर्धारित मानक अनुसार रहे। ईंधन से ज्यादा प्रदूषण करने वाले तत्वों की कमी कैसे की जाए इस पर भी सरकारों को मिलकर काम करना चाहिए। कम पॉल्यूशन करने वाले ईधन जैसे सीएनजी, एलपीजी इत्यादि का अधिक प्रयोग करने लिए लोगों में जागरूकता बढ़ानी चाहिए।  साथ ही साथ यातायात प्रणाली में सुधार करना चाहिए। आज सरकारों को उत्सर्जन मानकों का भी सुदृढ़ीकरण करने की जरूरत है। अगर लोग साइलेंसर पर केटालिक कनवर्टर लगाएं तो भी वाहन द्वारा होने वाले वायु प्रदूषण को कम किया जा सकता है। सरकार को लोगों को वाहनों का समय पर मेंटीनेंस कराने के लिए जागरूक करना चाहिए। जागरूक लोगों को स्वतः ही अपने वाहनों का मेंटीनेंस करना चाहिए।  जब प्रदूषण स्तर बहुत ज्यादा बढ़ जाता है तो स्वास्थ्य के लिए घातक हो जाता है, और तमाम तरह की स्वास्थ्य समस्याएं जैसे कि फेफड़ों में संक्रमण व आंख, नाक व गले में कई तरह की बीमारियों और ब्लड कैंसर जैसी तमाम घातक बीमारियों को जन्म देता है। अगर क्षेत्र में वायु प्रदूषण मानकों से ज्यादा है तो लोगों को मास्क का इस्तेमाल करना चाहिए। जिससे कि वायु में मिले हुए घातक तत्वों और गैसों से काफी हद तक बचा जा सके। 


आज प्रदूषण को कम करने के लिए हमारी सरकारों को नियमों को सख्ती से लागू करना होगा। अगर लोग देश में निजी वाहनों कि जगह सार्वजनिक वाहनों का प्रयोग करें तो वायु प्रदूषण को काफी नियन्त्रित किया जा सकता है, इसके लिए लोगों को खुद सोचना होगा। अगर कोई नियम तोड़ता है तो उस पर जुर्माने का प्रावधान हो। तभी देश में वायु प्रदूषण से निपटा जा सकता है। अगर देश में वायु प्रदूषण से जुडे हुये कानूनों का सख्ती से पालन हो तो वायु प्रदूषण जैसी समस्या से आसानी से निपटा जा सकता है। इससे पर्यावरण को भी सुरक्षित रखने में भी मदद मिलेगी।

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आज यदि धरती के स्वरूप को गौर से देखा जाए तो साफ पता चल जाता है कि आज नदियां, पर्वत, समुद्र, पेड, और भूमि तक लगातार क्षरण की अवस्था में हैं। और ये भी अब सबको स्पष्ट दिख रहा है कि आज कोई भी देश, कोई भी सरकार, कोई भी समाज इनके लिए उतना गंभीर नहीं है जितने की जरूरत है। बेशक लंदन की टेम्स नदी को साफ करके उसे पुनर्जीवन प्रदान करने जैसे प्रशंसनीय और अनुकरणीय प्रयास भी हो रहे हैं मगर ये ऊंट के मुंह में जीरे के समान हैं। ऐसे अनुकरणीय प्रयास भारत में भी हो सकते हैं जिसके द्वारा भारत की प्रदूषित नदियों को निर्मल और अविरल बनाया जा सकता है। चाहे वो गंगा नदी हो या यमुना नदी इस सबके लिए जरूरी है दृढ इच्छा शक्ति की जो कि भारतीय सरकार के साथ-साथ भारत के हर इंसान में होनी चाहिए। 


आज जलवायु परिवर्तन, वैश्विक तापमान में वृद्धि के कारण पृथ्वी के ऊपर से हरा आवरण लगातार घटता जा रहा है जो पर्यावरणीय असंतुलन को जन्म दे रहा है। पर्यावरणीय संतुलन के लिए वनों का संरक्षण और नदियों का विकास अत्यंत महत्वपूर्ण है। अब समय आ गया है कि धरती को बचाने की मुहिम को इंसान को बचाने के मिशन के रूप में बदलना होगा क्योंकि मनुष्य और पर्यावरण का परस्पर गहरा संबंध है। पर्यावरण यदि प्रदूषित हुआ, तो इसका प्रभाव मनुष्य पर पड़ेगा और मनुष्य का स्वास्थ्य बिगडेगा और जनस्वास्थ्य को शत-प्रतिशत उपलब्ध करा सकना किसी भी प्रकार संभव न हो सकेगा। सभी जानतें हैं कि इंसान बडे बडे पर्वत नहीं खडे कर सकता, बेशक चाह कर भी नए साफ समुद्र नहीं बनाए जा सकते; किंतु ये प्रयास तो किया ही जा सकता है कि इन्हें दोबारा से जीवन प्रदान करने के लिए संजीदगी से प्रयास किया जाए। भारत में तो हाल और भी बुरा है। जिस देश को प्रकृति ने अपने हर अनमोल रत्न, पेड, जंगल, धूप, बारिश, नदी, पहाड, उर्वर मिट्टी से नवाजा हो, और उसको मुकुट के सामान हिमालय पर्वत दिया हो और हार के समान गंगा, यमुना, नर्मदा जैसी नदियाँ दी हों यदि वो भी इसका महत्व न समझते हुए इसके नाश में लीन हो जाए तो इससे अधिक अफसोस की बात और क्या हो सकती है। आज ये सब पर्यावरणीय समस्याएं विश्व केसामने मुंह बाए खड़ी हैं। विकास की अंधी दौड़ के पीछे मानव प्रकृति का नाश करने लगा है। सब कुछ पाने की लालसा में वह प्रकृति के नियमों को तोड़ने लगा है। प्रकृति तभी तक साथ देती है, जब तक उसके नियमों के मुताबिक उससे लिया जाए। इसके लिए सबसे सरल उपाय है कि पूरी धरती को हरा भरा कर दिया जाए। इतनी अधिक मात्रा में धरती पर पेडों को लगाया जाए कि धरती पर इंसान द्वारा किया जा रहा सारा विष वमन वे वृक्ष अपने भीतर सोख सकें और पर्यावरण को भी सबल बनाने की उर्जा प्रदान कर सकें। अच्छा होगा यदि कुछ छोटे-छोटे कदम उठा कर लोगों को धरती के प्रति, पेड-पौधे लगाने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। बडे-बडे सम्मेलनों, आशावादी समझौतों आदि से अच्छा तो ये होगा कि इन उपायों पर काम किया जाए। लोगों को बताया समझाया और महसूस कराया जाए कि पेड बचेंगे, तो धरती बचेगी, धरती बचेगी, तो इंसान बचेगा। सरकार यदि ऐसे कुछ उपाय अपनाए तो परिणाम सुखद आएंगे।


आज विवाह, जन्मदिन, पार्टी और अन्य ऐसे समारोहों पर उपहार स्वरूप पौधों को देने की परंपरा शुरू की जाए। फिर चाहे वो पौधा, तुलसी का हो या गुलाब का, नीम का हो या गेंदे का। इससे कम से कम लोगों में पेड पौधों के प्रति एक लगाव की शुरूआत तो होगी। और लोगों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता आएगी और ईको फ्रेंडली फैशन की भी शुरुआत होगी। और सभी शिक्षण संस्थानों, स्कूल कालेज आदि में विद्यार्थियों को, उनके प्रोजेक्ट के रूप में विद्यालय प्रांगण में, घर के आसपास, और अन्य परिसरों में पेड पौधों को लगाने का कार्य दिया जाए। यदि इन छोटे छोटे उपायों पर ही संजीदगी से काम किया जाए तो ये निःसंदेह कम से कम उन बडे-बडे अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों से ज्यादा ही परिणामदायक होगा। और इससे अपने पर्यावरण और अपनी धरती को बचाने की दिशा में एक मजबूत पहल होगी। अब सोचना छोडिये और खुद से कहिए कि चलो ज्यादा नही पर हम एक शुरुआत तो कर सकते हैं। सच पूछें तो पर्यावरण की सुरक्षा के लिए हमे कुछ ज्यादा करना भी नहीं है। सिर्फ एक पहल करनी है यानी खुद को एक मौका देना है। हमारी छोटी-छोटी, समझदारी भरी पहल पर्यावरण को बेहद साफ-सुथरा और तरो-ताजा कर सकती है।

 

- ब्रह्मानंद राजपूत

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