मुस्लिम वोट हासिल करने के लिए मायावती ने जो रणनीति बनाई उसका सर्वाधिक नुकसान अखिलेश को

By अजय कुमार | Nov 07, 2022

बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती द्वारा 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए बनाया जा रहा चुनावी प्लान रास नहीं आ रहा है। इसी प्लान का एक हिस्सा मुस्लिम वोटर हैं, जो अभी तक तो समाजवादी पार्टी के साथ है, लेकिन इसी वर्ष हुए विधानसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद बसपा मुस्लिम वोटरों पर डोरे डालने में लगी है। माया का यही मुस्लिम प्रेम उनके विरोधी और अन्य मुस्लिम वोटों के ‘सौदागरों‘ को रास नहीं आ रहा है, जबकि मायावती मुस्लिम वोटरों को अपने पाले में खींचकर एक बार फिर 2024 के आम चुनाव में वही कारनामा करना चाहती हैं जो उन्होंने 2007 के विधान सभा चुनाव में किया था, जब पहली बार प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की बहुमत वाली सरकार बनी थी। यह और बात है कि तब बीएसपी ने सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय का नारा दिया था और इसमें मुस्लिम वोटों का ‘तड़का’ लगाया था। लेकिन हर चुनाव पहले के चुनाव से अलग होता है।


बसपा सुप्रीमो मायावती के मुस्लिम प्रेम के चलते समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव के लिए बीते कुछ दिनों का राजनीतिक घटना क्रम तनाव बढ़ाने वाला नजर आ रहा है। 2024 के लोकसभा चुनाव से पूर्व अखिलेश इस तनाव को दूर नहीं कर पाए तो सपा का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है। पिता की मौत और आजम खान को एक मामले में सजा सुनाए जाने से परेशान अखिलेश यादव के लिए नई चुनौती बसपा सुप्रीमो मायावती बनी हुई हैं। मायावती लगातार समाजवादी पार्टी के कद्दावर मुस्लिम नेताओं को अपने पाले में खींच रही हैं। यही वजह है विधानसभा चुनाव के समय जो मुस्लिम वोटर समाजवादी पार्टी के साथ खड़ा हुआ था, अब बसपा की तरफ उसका रुझान देखने को मिल रहा है। पूर्वांचल में आजमगढ़ लोकसभा के उप-चुनाव से यह सिलसिला शुरू हुआ था, वह धीरे-धीरे पश्चिम यूपी में भी पैर पसारने लगा है। उत्तर प्रदेश में मुस्लिम आबादी करीब 20 फीसदी है। 403 विधान सभा सीटों के चुनाव में से करीब 150 विधान सभा सीटों पर मुस्लिम वोटर किसी भी प्रत्याशी की जीत-हार को प्रभावित करते हैं तो करीब 50 सीटों पर मुस्लिम वोटर निर्णायक साबित होते हैं। पिछले विधान सभा चुनाव में सपा को लगभग करीब 90 फीसदी मुस्लिम वोटरों का समर्थन मिला था, लेकिन उसे सत्ता नहीं मिली, लेकिन अब हालात बदल रहे हैं। बसपा ही नहीं कांग्रेस और भाजपा भी मुस्लिम वोट बैंक में सेंधमारी करने में लगे हैं। आम आदमी पार्टी और अन्य तमाम मुस्लिम दल भी अखिलेश की राह में कांटे बिछा रहे हैं। सवाल यह भी उठ रहा है कि विधान सभा चुनाव सम्पन्न होने के पश्चात बसपा सुप्रीमो मायावती ने मुसलमानों को आगाह करते हुए कहा था कि मुलसमानों ने सपा के साथ जाकर बहुत बड़ी गलती कर दी, यदि बीजेपी को हराना है तो दलित-मुस्लिम वोटों का समीकरण जरूरी है, तो क्या अब मुसलमान सपा से किनारा करके इस गलती को सुधार रहे हैं। 

      

इस बदलाव के बारे में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर साहब कहते हैं कि अब मुसलमानों को शिक्षा का महत्व समझ में आने लगा है। वह पढ़-लिख रहा है। अब वह आंख बंद करके किसी एक दल या नेता के पीछे भागने को तैयार नहीं है। इसीलिए समाजवादी पार्टी के लिए परेशानी बढ़ी हुई है। वह अब धर्म के नाम पर नहीं विकास के काम को देख रहा है। वह खामोशी से अपनी मंजिल तलाश रहा है। उसे विकास, शिक्षा और सेहत की चिंता है, इसलिए मुस्लिम वोटों के बिखराव से इंकार नहीं किया जा सकता है, जबकि सपा सांसद शफीर्कुरहमान बर्क कहते हैं कि मुसलमानों की चिंता सिर्फ सपा ने की है और लोगों ने मुसलमानों को डराया-धमकाया है। दूसरे दलों में वह कूवत नहीं है कि वह भाजपा की साम्प्रदायिक राजनीति का मुकाबला कर सकें। बर्क कहते हैं कि भाजपा के पसमांदा सम्मेलन के पीछे की राजनीति को मुस्लिम वोटर समझ रहा है। वह जानता है कि भाजपा मुस्लिमों को बांटने के लिए यह सब कर रही है। वह मुसलमानों का भला करने वाली पार्टी नहीं है। बात बसपा तक ही सीमित नहीं है। कांग्रेस, भाजपा, आम आदमी पार्टी और ओवैसी को भी लोग हल्के में नहीं ले रहे हैं। सामाजिक चेतना फांउडेशन के अध्यक्ष और पूर्व नयायाधीश बीडी नकवी कहते हैं कि सपा को अपनी रणनीति बदलते हुए मुसलमानों को यह अहसास कराना होगा कि वह कल भी मुसलमानों के साथ थी और आगे भी रहेगी।

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खैर, बात इससे इतर की जाए तो अखिलेश का साथ छोड़कर उनकी पार्टी के मुस्लिम नेता अन्य दलों और खासकर बसपा में जा रहे हैं तो यह उनके लिए चिंता का विषय होना लाजिमी है। पश्चिमी यूपी से बीते दिनों बसपा के लिए तब एक बड़ी खबर सामने आई थी, जब इलाके के सपा नेता इमरान मसूद ने बसपा का दामना थाम लिया था। मसूद ने विधान सभा चुनाव से पूर्व कांग्रेस की सदस्यता छोड़कर सपा का दामन थामा था, लेकिन अखिलेश ने उन्हें कोई अहमियत नहीं दी। ऐसा क्यों हुआ इसके पीछे भी कारण है। दरअसल, अखिलेश इमरान मसूद को तरजीह देकर अपने पुराने नेता आजम खान को नाराज नहीं करना चाहते थे, जबकि इमरान की सियासी ताकत आजम खान से कम नहीं थी। आज की तारीख में लोकप्रियता के मामले में तो मसूद सपा नेता आजम खान से काफी आगे नजर आते हैं। मसूद समझ गए थे कि आजम की वजह से उनके लिए सपा में अपनी जगह बनाना आसान नहीं है। इसीलिए वह नीले रंग में रंग गए। इसके पहले उन्होंने मायावती से मुलाकात की। वहीं बसपा में शामिल होने के बाद मुस्लिम वोट बैंक पर दांव लगाते हुए बसपा सुप्रीमो द्वारा इमरान मसूद को पश्चिमी उत्तर प्रदेश बसपा का संयोजक नियुक्त कर दिया जाना यह साबित करता है कि मुस्लिम समुदाय पर इमरान मसूद की पकड़ है। मसूद के बसपा की सदस्यता ग्रहण करते ही मुरादाबाद के सपा नेता इकराम कुरैशी, रिजावन, अतरौला के पूर्व विधायक आरिफ अनवर, फिरोजाबाद के पूर्व विधायक अजीम, पडरौना में पूर्व जिलाध्यक्ष इलियास अंसारी, अयोध्या में अब्बास अली चिश्ती मियां जैसे नेताओं ने भी सपा का दामन छोड़ दिया है। उधर, पूर्वांचल में ओवैसी की पार्टी के पूर्वांचल के अध्यक्ष इरफान मलिक ने भी बसपा की सदस्यता ग्रहण कर ली है।


बहरहाल, इमरान को सपा छोड़े एक पखवड़ा भी नहीं हुआ था और बसपा ने एक बार फिर सपा को झटका दे दिया। इमरान मसूद के बाद एक और मुस्लिम नेता ने बसपा का दामना थाम लिया। इस बार पश्चिमी के बदले पूर्वी इलाके यानी पूर्वांचल से खबर आई। यहां एआईएमआईएम के पूर्वांचल के अध्यक्ष इरफान मलिक ने बसपा की सदस्यता ग्रहण कर ली। मलिक ने भी मसूद की ही तरह बीएसपी में शामिल होने से पहले मायावती से मुलाकात की थी। इरफान मलिक डुमरियागंज से छह बार विधायक और मंत्री रहे स्वर्गीय कमाल मलिक के बेटे हैं। इनके आने से एक बार फिर वही पुरानी चर्चा शुरू हो गई है। कहा जा रहा है कि मुस्लिम नेताओं का जिस तरह से बसपा की तरफ झुकाव बढ़ता जा रहा है, वह सपा के लिए चिंता का विषय है। इस संबंध में एक मुस्लिम सपा नेता का कहना था कि पार्टी में न केवल मुलायम जैसे मजबूत चेहरे की कमी है, बल्कि मुस्लिम समुदाय के मुद्दों पर चुप्पी बनाए रखने के आरोपों का भी सामना करना पड़ रहा है। बहुजन समाज पार्टी ने इस मुद्दे को लेकर सपा पर निशाना साधा है और पश्चिमी यूपी में प्रभाव रखने वाले इमरान मसूद की मदद से मुसलमानों तक पहुंचने की कोशिश कर रही है। वहीं भाजपा अपनी उपस्थिति को मजबूत करने के लिए पसमांदा मुसलमानों तक पहुंचने का प्रयास कर रही है। सपा नेता ने कहा, “हालात तब खतरनाक हो गए जब बसपा के मुस्लिम उम्मीदवार गुड्डू जमाली को इस साल जून में आजमगढ़ लोकसभा उपचुनाव में 2.66 लाख से ज्यादा वोट मिले और सपा अपनी सीट बीजेपी उम्मीदवार से हार गई। परिणाम ने प्रदर्शित किया कि मुसलमान अपने समुदाय के एक दूसरे नेता (सपा से अलग) को पसंद कर सकते हैं यदि उन्हें सपा से एक अच्छा नेता नहीं मिलता है।” जमाली कुछ समय पूर्व ही बसपा छोड़कर सपा में गए थे और आजमगढ़ के लोकसभा उपचुनाव से पूर्व उन्होंने घर वापसी करते हुए फिर से बसपा ज्वाइन कर ली थी। बसपा ज्वाइन करते ही जमाली ने आजमगढ़ में सपा का खेल बिगाड़ दिया, जबकि 2019 का लोकसभा चुनाव यहां से सपा प्रमुख अखिलेश यादव जीते थे।


वहीं मुसलमानों के इस बदले रुख को तमाम राजनैतिक पंडित सपा के लिए बढ़ती मुश्किलों और चुनौतियों के रूप में भी देख रहे हैं। कहा जा रहा है कि मुस्लिम नेताओं के बीएसपी का रुख करने की वजह से अब सपा के खेमे में टेंशन बढ़ गई है। इसी वजह से अखिलेश यादव भी आजम खान के मुद्दे पर पहले से ज्यादा मुखर नजर आ रहे हैं। मुस्लिम वोटर्स को लेकर आम धारणा है कि वे भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ वोट करेंगे, लेकिन उत्तर प्रदेश चुनाव में पार्टी को आठ प्रतिशत मुस्लिमों ने वोट दिया। यह 2017 के विधानसभा चुनाव से एक फीसदी ज्यादा है। समाचार एजेंसी आईएएनएस के अनुसार सीएसडीएस-लोकनीति के सर्वे में यह बात सामने आई है। समाजवादी पार्टी को इस समुदाय के लगभग 70 प्रतिशत वोट मिले हैं।

     

सबसे आश्चर्य की बात यह है कि धीरे-धीरे ही सही भाजपा अब मुसलमानों के लिए अछूत नहीं रह गई है। सर्वे से पता चलता है कि मुसलमान वोटर भाजपा का समर्थन करने के लिए तैयार है, लेकिन संकेत यह भी देते हैं कि दोनों तरफ से सहयोग की आवश्यकता है। मुस्लिम वोटों का भाजपा की ओर खिसकने का मुख्य कारण यह है कि उत्तर प्रदेश में पिछले पांच वर्षों के दौरान विभिन्न योजनाओं से इन लोगों को उतना ही लाभ हुआ है, जितना कि हिंदु या किसी अन्य धर्म के लोगों को। जबकि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के अध्ययन से पता चलता है कि गैर-भाजपा सरकारों का समर्थन करने से उन्हें कोई मदद नहीं मिली है। उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति बद से बदतर होती चली गई है।


-अजय कुमार

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