पिता की बात नहीं मानने पर क्या हश्र होता है, अखिलेश इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं

By अजय कुमार | May 29, 2019

कुछ वर्षों पहले की ही बात है जब समाजवाद अथवा समाजवादी पार्टी का नाम आता था तो मुलायम सिंह का चेहरा अनायास ही आंखों के सामने उभर कर आ जाता था। मुलायम सिंह वह नाम था जो अपने बल पर सियासत की लम्बी यात्रा करते हुए शून्य से शिखर तक पहुंचे थे। अपनी समाजवादी पार्टी को खून−पसीने की मेहनत से खड़ा किया था। मुलायम ने लगभग साठ सालों तक अनवरत राजनीति के थपेड़े झेलकर सियासत में यह मुकाम बनाया था। वह तब तक देश की राजनीति पर धूमकेतु की तरह चमकते रहे, जब तक कि उन्होंने स्वयं अपने पुत्र अखिलेश यादव को उत्तराधिकारी के रूप में आगे नहीं किया था। मुलायम सिंह के बारे में यहां तक कहा गया कि वह कायदे से हिंदी भी नहीं बोल पाते थे जिसकी जरूरत एक अदद बड़े राजनेता को हमेशा रहती है, फिर भी उन्होंने एक पार्टी बनाई, उसे यहां तक पहुंचाया।

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सियासी नजरिए से देश के सबसे महत्वपूर्ण सूबे में उनकी धाक जम गई, लेकिन सिर्फ इसी आधार पर मुलायम सिंह के पूरे सियासी सफर का आकलन नहीं किया जा सकता है। उनकी राजनीति हमेशा औरों के लिए एक बड़ी पहेली बनी रही। एक सिरे से देखने पर लगता था कि उत्तर प्रदेश का यह यदुवंशी खुद में बुरी तरह से उलझा हुआ रहता था। दूसरे सिरे से दिखता है कि उन्होंने बड़ी चतुराई से पूरी राजनीतिक जमात को उलझा कर रखा था। उनकी यही राजनीतिक सफलता असाधारण की श्रेणी में आती थी। पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह कहते थे यह छोटे कद का बड़ा नेता है। आगे चलकर छोटे कद के बड़े नेता मुलायम सिंह यादव ने चौधरी चरण सिंह की पूरी राजनीतिक विरासत पर कब्जा कर लिया था। चरण सिंह के पुत्र अजित सिंह को सियासत के हाशिये पर पहुंचाने में मुलायम सिंह की बड़ी भूमिका रही। इस तरह की तमाम छोटी−छोटी बातें मुलायम सिंह की राजनीति का अभिन्न हिस्सा थीं। मुलायम सिंह के बारे में मशहूर है कि उनमें आला दर्जे की राजनीतिक चतुराई, हद दर्जे का अवसरवाद, साथियों के साथ खड़ा रहने का जीवट, परिवारवाद की बीमारी और राजनीति में सफलता के लिए सबसे जरूरी खास किस्म की मोटी चमड़ी जैसी खासियतें प्रचुरता में मौजूद थीं।

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मुलायम के बारे में मशहूर था कि वो उत्तर प्रदेश में किसी भी जनसभा में कम से कम पचास लोगों को नाम लेकर मंच पर बुला सकते थे। समाजवाद का यह पुरोधा कभी गांव रहे सैफई के अखाड़े में तैयार हुआ था। वहीं से उन्होंने पहलवानी के साथ राजनीति के पैंतरे भी सीखे। मुलायम सिंह की सियासत का पहला अध्याय 60 के दशक में शुरू हुआ था। यह कांग्रेस विरोध का दौर था तब से अब तक वो पांच बार लोकसभा के सदस्य, तीन बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और एक बार देश के रक्षा मंत्री रह चुके हैं। यह रिकॉर्ड उनकी सफल राजनीतिक जीवन की कहानी है।

 

मुलायम सिंह एक जनाधार वाले नेता हैं। विचारधारा के स्तर पर मुलायम सिंह के विचार हमेशा संदेहास्पद रहे। जिस लोहिया को वे अपना राजनीतिक गुरु और रहनुमा मानते थे, कई मामलों में मुलायम उनके ही विचारों से दूर खड़े रहे। मसलन लोहिया कई मुद्दों पर बेहद स्पष्टवादी थे, जबकि मुलायम सिंह के विचार उन मुद्दों पर आज तक कोई जान ही नहीं सका था। मुलायम के गुरु डॉ. राम मनोहर लोहिया एक व्यक्ति, एक पत्नी की बात करते थे, लेकिन मुलायम ने मुस्लिम राजनीति के चलते इस पर कभी मुंह नहीं खोला। धर्म निरपेक्षता की परिभाषा के साथ उन्होंने जमकर प्रयोग किए। पिछड़ा राजनीति की लोहियावादी परिभाषा को समेटकर उन्होंने 'यादव−मुस्लिम' तक सीमित कर दिया था।

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अपवाद को छोड़कर मुलायम सिंह हमेशा एकला चलो के फार्मूले पर आगे बढ़े। उनके पास एक पार्टी थी, एक कैडर था, एक कोर वोटबैंक था। इस दौरान वे बसपा के सहयोग से एक बार फिर से प्रदेश के मुख्यमंत्री बने पर दोनों के रिश्ते उसी दौरान इतने खराब हो गए कि उनके पार्टी प्रमुख रहते कभी सुधर नहीं पाए। इसका मुलायम को फायदा भी मिला और नुकसान भी हुआ। 60 के दशक में सियासत की शुरूआत करने वाले मुलायम सिंह 2012 के विधान सभा चुनाव तक सक्रिय रहे। उनके नेतृत्व में समाजवादी पार्टी ने जीत का परचम लहराया, लेकिन जब सीएम बनने की बात आई तो मुलायन ने बेटे अखिलेश यादव का नाम आगे कर दिया। उन्हें उम्मीद थी कि बेटा अखिलेश ही उनकी सियासी विरासत को अच्छी तरह से संभाल सकता है, लेकिन मुलायम की यह उम्मीद दो साल में ही चकनाचूर हो गई।

 

2014 के लोकसभा चुनाव में अखिलेश की अगुवाई में समाजवादी पार्टी पांच सीटों पर सिमट गई। इसके बाद अखिलेश ने पिता मुलायम सिंह यादव को समाजवादी पार्टी का संरक्षक बनाकर किनारे कर दिया तो चाचा शिवपाल यादव को बाहर का रास्ता दिखा दिया, लेकिन इसके बाद भी 2017 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी 229 से 47 सीटों पर पहुंच गई। 2017 का विधानसभा चुनाव समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ा था, लेकिन यह प्रयोग पूरी तरह से फेल रहा। तब भी मुलायम ने कांग्रेस के साथ चुनाव लड़ने के अखिलेश के फैसले पर सवाल उठाए थे और अबकी बार बसपा के साथ अखिलेश के हाथ मिलाने को मुलायम पचा नहीं पाए थे, लेकिन अखिलेश तो अपने आप को मुलायम से बड़ा नेता समझने लगे थे, जिसका खामियाजा उन्हें इस लोकसभा चुनाव में भी उठाना पड़ा। अखिलेश को छोड़कर मुलायम परिवार का कोई सदस्य अबकी से लोकसभा में नहीं पहुंच पाया, लेकिन मुलायम का परचम इस बार भी लहराया। अखिलेश चुनाव ही नहीं हारे, उन्होंने सियासी पिच पर वह सब किया जिससे अपने सियासी सफर में मुलायम हमेशा गुरेज करते रहे थे।

 

 

उत्तर भारत में एक मान्यता है कि बेटे से हार में बाप का कोई अपमान नहीं होता, बाप अंतरमन में खुशी−खुशी इस तरह की हार को स्वीकार कर लेता है। मुलायम सिंह वो मन अभी तक नहीं दिखा पाए हैं, इसकी सबसे बड़ी वजह है उस समाजवादी पार्टी का रसातल में जाना जिसे मुलायम ने अपने खून पसीने से सींचा था। शायद इसीलिए मुलायम और अखिलेश के बीच मतभेद की खबरें भी समय−समय पर सुर्खिंया बनती रहीं। उधर, अखिलेश भी पिता से लगातार दूरी बनाते गए। उनके साथ सार्वजनिक मंचों पर जाना नहीं पसंद करते थे। लोगों के बीच यहां तक संदेश गया कि अखिलेश पिता मुलायम को घर से बाहर ही नहीं निकलने देते हैं, लेकिन अब ऐसा नहीं हो पाएगा। कम से कम जब लोकसभा का सत्र चलेगा तो अखिलेश को मुलायम की 'बैसाखी' तो बनना ही पड़ेगा साथ ही साथ मुलायम अगर किसी बहस में हिस्सा लेकर पार्टी के लिए मुसीबत खड़ी करेंगे तो उसे भी संभालना अखिलेश के लिए आसान नहीं होगा। अगर मुलायम सिंह लोकसभा में गए तो अखिलेश को उनका पूरा ख्याल रखना होगा, अगर किसी वजह से मुलायम लोकसभा की बैठक में नहीं गए तो भी अखिलेश पर ही उंगली उठेगी,उन्हें बार−बार सफाई देनी पड़ेगी।

 

बात समाजवादी पार्टी के गिरते वोट प्रतिशत की कि जाए तो इस बार के लोकसभा चुनाव में सपा को करारा झटका लगा है। उसे महज 18 प्रतिशत ही वोट मिल सके। जबकि 2014 के लोकसभा चुनाव में सपा का वोट प्रतिशत 22.20 प्रतिशत था। इस तरह से सपा को 4.20 प्रतिशत वोट का नुकसान हुआ। 2014 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले इस बार भी सपा 5 सीटों की जीत से आगे नहीं बढ़ पायी। सपा प्रमुख अखिलेश यादव की पत्नी डिम्पल भी कन्नौज से हार गयीं। हालांकि आजमगढ़ सीट से अखिलेश यादव और मैनपुरी सीट से सपा संरक्षक मुलायम सिंह जीते गए। रामपुर सीट से सपा के ही आजम खां भी लोकसभा पहुंचे। इस बार सपा 37 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। सपा का तो वोट प्रतिशत कम हुआ, लेकिन उसके गठबंधन की सहयोगी बसपा का वोट प्रतिशत अगर बढ़ा नहीं तो घटा भी नहीं। 2014 के चुनाव में बसपा का वोट प्रतिशत 19.60 प्रतिशत रहा था जबकि इस बार उसे 19.30 प्रतिशत वोट मिले। इस तरह से पार्टी को मात्र 0.30 प्रतिशत का नुकसान हुआ, जबकि उसकी सीटें शून्य से 10 हो गईं।

 

-अजय कुमार

 

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