लगातार दूसरी हार के बाद छोटे चौधरी और रालोद के भविष्य पर लगा प्रश्न चिन्ह

By -अभिनय आकाश | May 27, 2019

डोडो एक ऐसा पक्षी है जो उड़ नहीं सकता था। मान्यताओं के अनुसार यह पक्षी 17 वीं सदी में लुप्त होने लगा और अब यह बिल्कुल नहीं पाया जाता। एक ऐसा ही राजनीतिक दल और उसके राजनेता हैं जिसका राष्ट्रीय राजनीति में तो कोई स्थान नहीं है लेकिन महत्वाकांक्षाएं बहुत बड़ी-बड़ी रहीं हैं और इस वजह से राजनीति से वो भी लगभग विलुप्त होने की कगार पर है। 3 मार्च 1971 जब उस लोकसभा क्षेत्र की सभी आठ विधानसभा सीटें भारतीय किसान दल के पास होने की वजह से हवा का रूख अपनी ओर मानकर चौधरी चरण सिंह मुजफ्फरनगर सीट से चुनाव लड़ने के लिए आए थे। होली के तीन दिन पहले हुई मतगणना में अपने पहले ही लोकसभा चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ता है।

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कहते हैं इतिहास न खुद को कभी दोहराता है न किसी को दोबारा मौका देता है। लेकिन राजनीति के पटल पर एक पराजय ने इतिहास को एक बार फिर से दोहराव की दहलीज पर लाकर खड़ा कर दिया है। अपना आखिरी चुनाव लड़ रहे छोटे चौधरी कहे जाने वाले अजीत सिंह ने जाट-मुस्लिम समीकरण को साधने की कवायद से उसी मुजफ्फरनगर लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा लेकिन उनके हिस्से में भी पराजय ही आई। पश्चिमी उत्तर प्रदेश का सियासी गढ़ और जाटलैंड के नाम से मशहूर बागपत लोकसभा सीट से अजीत सिंह के पुत्र जयंत चौधरी मैदान में उतरे लेकिन उनको भी हार का मुंह देखना पड़ा। अजित व उनके पुत्र जयंत चौधरी की सीटों के साथ जाट बहुल तीसरी सीट मथुरा भी रालोद नहीं जीत सका।

 

हरेक चुनाव में गठबंधन के नए-नए प्रयोग करने वाले रालोद के रिकॉर्ड पर गौर करें तो वर्ष 2002 में भाजपा से गठबंधन कर विधानसभा चुनाव लड़ते हुए रालोद के कुल 14 विधायक जीते थे। वर्ष 2009 में भाजपा से गठबंधन में लोकसभा चुनाव लड़ा और उनके पांच सांसद निर्वाचित हुए। उस चुनाव में रालोद के कोटे में सात सीटें आयीं और यह अब तक का उसका सबसे बेहतर प्रर्दशन रहा। वर्ष 2012 में कांग्रेस के साथ मिलकर रालोद ने विधानसभा चुनाव लड़ा और नौ सीटों पर सिमट गया। 2014 नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय पटल पर उदय होने का साल था जो रालोद के लिए बेहद निराशाजनक रहा। यहीं से उनके धरातल पर जाने की कहानी शुरू होती है। 

2017 में कांग्रेस से मिलकर लड़ने के बाद भी रालोद एक विधानसभा सीट छपरौली ही जीत पाई और वह विधायक भी भाजपा में चला गया। साल 2019 में लोकसभा चुनाव में एक भी सीट न होने के बावजूद जातिय गणित को साधने की कवायद से मायावती और अखिलेश यादव ने कांग्रेस की बजाय राष्ट्रीय लोक दल को अपने गठबंधन में जगह देना जरूरी समझा। लोकसभा में तीन सीटों पर चुनाव लड़ रही रालोद ने इस बार भी पिछले दफा की भांति शून्य का अपना रिकॉर्ड कायम रखा।

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अजित सिंह के रिकार्ड को देखें तो भाजपा के संजीव बाल्यान ने उन्हें 6 हजार 526 वोटों से हराया जबकि इस सीट पर अकेले नोटा पर 5,110 वोट पड़े तथा चुनाव में खड़े चार निर्दलियों को 13,620 वोट मिले। बागपत सीट पर नजर डालें तो अजीत सिंह के पुत्र जयंत चौधरी को भाजपा के सत्यपाल सिंह से 23 हजार 502 मतों से मात दी। मथुरा सीट पर भाजपा की हेमा मालिनि ने रालोद के नरेंद्र सिंह को 2 लाख 27 हजार 892 मतों से मात दी। 

 

वोट प्रतिशत पर एक नजर

महागठबंधन के चुनावी आंकडो़ं पर गौर करें तो चुनाव आयोग के मुताबिक वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में जहां सपा को 22.35 प्रतिशत वोट मिले थे, वहीं इस बार यह आंकड़ा घटकर 17.96 फीसद ही रह गया। बसपा का वोट प्रतिशत 19.77 प्रतिशत रहा था जो इस बार घटकर 19.26 फीसद रह गया। लेकिन जहां तक रालोद का सवाल है तो पिछली बार की तरह इस चुनाव में उसका खाता नहीं खुला है। लेकिन उसका वोट प्रतिशत 0.86 प्रतिशत से बढ़कर 1.67 फीसद हो गया।

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पाला बदलने में माहिर रहे हैं पिता-पुत्र

अजित सिंह भारतीय राजनीति के ऐसे नेताओं में गिने जाते हैं जो लगभग हर सरकार में मंत्री रहे हैं। वे कपड़ों की तरह सियासी साझेदार बदलते रहे हैं। छोटे चौधरी को यह गुण राजनीतिक विरासत को रुप में प्राप्त हुआ है। उनके पिता चौधरी चरण सिंह ने 1967 में पहले कांग्रेस की सरकार गिराई और फिर खुद मुख्यमंत्री बन गए। इसी तरह 1979 में उन्होंने पहले मोरारजी देसाई का सरकार गिराई और फिर पाला बदल कर कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री बन बैठे। पुराने दौर में कहा जाता था कि चौधरी चरण सिंह चुनाव के वक़्त बूढ़ों के सपनों में आकर उन्हें बेटे का ख़्याल रखने की ताक़ीद कर जाते थे नतीजतन क्षेत्र में सक्रियता न होने के बावजूद चुनाव परिणाम में वोट जमकर छोटे चौधरी के खाते में बरसते थे। लेकिन इस बार लगता है नई पीढ़ी के वोटरों ने सपने को वास्तिवकता से जोड़कर मतदान किया। 

 

चौधरी अजित सिंह की हार की वजह

भाजपा को मुजफ्फरनगर में दफन करने के कटाक्ष की प्रतिक्रिया लोगों में रही मुजफ्फरनगर दंगे के बाद राजनीति में बने मुजफ्फरनगर माड्यूल को भांपने में विफल रहे।  महागठबंधन के स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच तालमेल की कमी।चौधरी अजित सिंह ने जीत सुनिश्चित मानकर जनसंपर्क पर अधिक जोर नहीं दिया।

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गौर करने वाली बात है कि मुजफ्फरनगर लोकसभा सीट पर हारने वाले बड़े जाट नेताओं की सूची में अजीत सिंह का नाम भी शामिल हो गया है।  आज तक के इतिहास में यहां कोई गैर भाजपाई जाट चुनाव नहीं जीत पाया है। हारने वालों में जाट समाज की सभी बड़ी हस्तियां रही हैं। इनमें पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरणसिंह, पूर्व मंत्री अनुराधा चौधरी, हरेंद्र मलिक, मेजर जयपाल सिंह, वरुण सिंह शामिल हैं। बहरहाल, लोकसभा चुनाव में पराजय के इतने बुरे दिन देख रहे रालोद और अजीत सिंह के लिए वापस अपनी जमीन पाना एक बड़ी चुनौती होगा। वो भी तब जब देश के साथ-साथ प्रदेश की राजनीति में गठबंधन के सहारे चुनावी नैया पार लगाने के प्रयास जमींदोज हो गए हैं।

-अभिनय आकाश

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