इतनी मेहनत, लगन, और लंबी कोचिंग इस दिन के लिए तो नहीं की, कि जो देखो आ जाता है और कह जाता है यह नहीं हो रहा वह नहीं हो रहा। समाज दिक्कत में हो तो योजनाएं उच्च समझदारी से बनानी पड़ती हैं। विस्तृत विवरण सहित निर्देश जारी करने पड़ते हैं चाहे समझ न आएं। निष्पादन करते हुए नियम और कायदों का ध्यान भी रखना ही पड़ता है। देश की जनता का पैसा है दान में तो नहीं दे सकते। बहुत सोच समझकर ठिकाने लगाना पड़ता है। सबसे कठिन परीक्षा पास कर कुर्सी बनते हैं। अब जो धैर्य के साथ चीज़ों को न समझे उनका क्या करें, कुछ नहीं कर सकते। श्रेष्ठ तो श्रेष्ठ ही होता और रहता है न। श्रेष्ठ ने अपने आप को श्रेष्ठ समझ लिया या कहीं कह दिया तो क्या हो गया। दंभ, अहंकार, इच्छा, अनिच्छा भी तो मानवीय गुण हैं। एक तरफ तो अनुशासन लागू करने की बातें कहते रहते हो, दूसरी तरफ हर जगह हर नियम में छूट या महाछूट चाहते हो। क्या यह अच्छी बात है।
अनुशासन का असली अर्थ तो कुत्ते की दुम की तरह टेढ़ा होना है। अब मुश्किल परीक्षा की आग में से तो सोना कुंदन होकर ही निकलेगा फिर चांदी की तरह क्यूं रहेगा और कहेगा। कई विषय तो नॉन प्रैक्टिकल ही होते हैं। वास्तव में उच्च आचार विचार, ईमानदारी, सत्य निष्ठा तो बातों में ही अच्छी लगती है। विवेक और अंतरात्मा को छोटे मोटे किस्सों में नहीं उलझाना चाहिए। दिमाग़ खर्च हो जाता है तब अधिकार मिलते हैं। समाज सुधार के लिए तो नहीं करता कोई इतनी मेहनत। व्यवहारिक अनुभवों ने यही सिखाया है कि धर्म, आर्थिक, सामाजिक या आर्थिक निरपेक्षता की बातें जोर शोर से करनी चाहिए लेकिन उनकी शक्ल जलेबी जैसी होनी चाहिए। जब पता है कि राज और नीति की सड़क पर चलना होगा तो सहजता और आराम से चलने में क्या हर्ज़ है। जब उनका दिमाग खुला नहीं तो हमारा भी क्यूं हो. दोनों का बंद, दोनों सुखी। उन्हें भी तो आरामदेह मकान बनाना है, बाज़ार में बढ़िया कारें उपलब्ध हैं। मनपसंद जीवन साथी किसे नहीं चाहिए। बच्चे अच्छे स्कूल में पढ़ें तो ही तो उन्हें भी अच्छी जॉब मिलेगी।
बदलाव के जोखिम की बातें करने वाले और वास्तव में जोखिम उठाने वाले बहादुर अभी जिंदा हैं न। फिर यहां बदलना कौन चाहता है। जब रहना लकीर के फकीरों के साथ है तो बदलने की ज़रूरत भी नहीं है। दूसरों के लिए कुछ करने का ज़माना तो कब का दफ़न हो लिया। देश भक्त लोग अब यही चाहते हैं कि भगत सिंह पैदा हो लेकिन किसी और के घर पैदा हो क्यूंकि वह स्वतंत्रता के पवित्र संग्राम में हिस्सा ज़रूर लेगा और एक दिन उसे शहीद होना पड़ेगा और शहीद होने के बाद बंदा शहीद ही रहता है। मरने के बाद तो आत्मा भी नहीं देख पाती। एक बार मिले जीवन को अपने लिए जीना ज़रूरी क्यूं नहीं है। फ़ालतू बातों या कामों में समय नष्ट नहीं करना चाहिए। इसलिए तो समय का सदुपयोग जारी है, अजगर समझ गए हैं कि उनका वास्तविक कार्य क्या है।
- संतोष उत्सुक