आखिर चुनावी रेवड़ी को परिभाषित करना इतना मुश्किल क्यों है?

By कमलेश पांडेय | Jan 09, 2025

दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 की घोषणा करते वक्त मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने एक सवाल का जवाब देते हुए कहा कि 'चुनावी रेवड़ी' क्या है, इसे परिभाषित करना मुश्किल है। चूंकि इस मुद्दे पर आयोग के हाथ बंधे हुए हैं। इसलिए, कानूनी उत्तर ढूंढे जाएं।" हालांकि, उनकी इस साफगोई से हमारी संसद और हमारे संविधान के संरक्षक सुप्रीम कोर्ट, दोनों की जिम्मेदारी बढ़ चुकी है। वह यह कि वो जल्द से जल्द इस मसले पर व्याप्त कानूनी असमंजस को दूर करने के लिए एक नेक पहल करें। 


वहीं, अब तक ऐसा नहीं होना निष्पक्ष चुनावी प्रक्रिया पर एक गम्भीर सवालिया निशान छोड़ जाता है। क्योंकि जब इस मसले पर स्पष्ट नियमन होंगे तो इसका उल्लंघन करने वाले राजनीतिक दलों व उनके नेताओं को कानून के कठघरे में खड़ा किया जा सकेगा। हालांकि, मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार की बात से अब यह स्पष्ट हो चुका है कि आजादी और गणतंत्र बनने के इतने दशकों बाद भी हमारे सत्ता पक्ष या विपक्ष ने कभी इस मुद्दे पर स्पष्ट नियमन बनाने की पहल ही नहीं की, ताकि दुविधाजनक कानूनी परिस्थितियों से चुनावी लाभ उठाते रहा जाए। 

 

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जबकि, मीडिया में इस बारे में जब-तब बहस होती रहती है, और सर्वोच्च न्यायालय में भी इस बारे में कुछ जनहित दायर है, जिस पर दो टूक निर्णय की प्रतीक्षा देशवासियों को है। लेकिन वर्ष 2018 से अब तक इस पर स्पष्ट निर्णय नहीं हो पाया है। यह गम्भीर बात है, क्योंकि इससे इस अहम मसले पर राजनेताओं और सम्बन्धित पेशेवरों द्वारा जितने मुंह, उतनी बातें की जा रही हैं जिससे मतदाता भी असमंजस में हैं। इसके उलट जिन्हें फ्रीबीज यानी मुफ्त की चुनावी रेवड़ी का लाभ मिल रहा है, उनकी तो बल्ले बल्ले है। वहीं, जिन करदाताओं की जेबें तरह-तरह के टैक्स के माध्यम से हर रोज काटी जा रही हैं और सरकार प्रदत्त जनसुविधा भी नदारत या नाकाफी दिख रहीं हैं, उनके दिलोदिमाग में इस सियासी प्रवृत्ति को लेकर अनेक सवाल उठ रहे हैं।


वैसे तो सुप्रीम कोर्ट ने भी गत दिनों फ्रीबीज मामले पर सख्त टिप्पणी की और कहा कि राज्यों के पास उन लोगों को ‘मुफ्त सौगात’ देने के लिए पर्याप्त धन है, जो कोई काम नहीं करते। लेकिन जजों की सैलरी-पेंशन देने के लिए नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, "राज्य के पास मुफ्त की रेवड़ियां बांटने के लिए पैसे हैं, लेकिन जजों की सैलरी-पेंशन देने के लिए नहीं है। राज्य सरकारों के पास उन लोगों के लिए पूरा पैसा है, जो कुछ नहीं करते; लेकिन जब जजों की सैलरी की बात आती है तो वे वित्तीय संकट का बहाना बनाते हैं।"


बता दें कि जस्टिस बी.आर. गवई और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने यह मौखिक टिप्पणी उस समय की, जब अखिल भारतीय न्यायाधीश संघ से जुड़ी एक याचिका के निपटारे के क्रम में अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणि ने दलील दी कि सरकार को न्यायिक अधिकारियों के वेतन और सेवानिवृत्ति लाभों पर निर्णय लेते समय वित्तीय बाधाओं पर विचार करना होगा। तब सुप्रीम कोर्ट ने तल्ख टिप्पणी की कि, "राज्य के पास उन लोगों के लिए पैसा है जो कोई काम नहीं करते। चुनाव आते हैं, आप लाडली बहना और अन्य नयी योजनाएं घोषित करते हैं, जिसके तहत आप निश्चित राशि का भुगतान करते हैं। दिल्ली में अब आए दिन कोई न कोई पार्टी घोषणा कर रही है कि वे सत्ता में आने पर 2,500 रुपये देंगे।" 


उल्लेखनीय है कि शीर्ष अदालत ने सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को पेंशन के संबंध में अखिल भारतीय न्यायाधीश संघ की ओर से 2015 में दायर याचिका पर सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की। जबकि, अटार्नी जरनल आर वेंकटरमणि ने कहा कि वित्तीय बोझ की वास्तविक चिंताओं को ध्यान में रखा जाना चाहिए। बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने पहले कहा था कि, "यह ‘दयनीय’ है कि उच्च न्यायालय के कुछ सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को 10,000 रुपये से 15,000 रुपये के बीच पेंशन मिल रही है।" यहां ध्यान देने वाली बात है कि सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी ऐसे वक्त में आई है, जब दिल्ली चुनाव में फ्रीबीज की बहार है। आम आदमी पार्टी ने वादा किया है कि उसकी सरकार बनी तो महिलाओं को 2100 रुपए हर महीने मिलेंगे। जबकि कांग्रेस 2500 रुपए देने की बात कह रही है। वहीं, भाजपा भी इसी तरह का ऐलान जल्द करने वाली है।


उधर, दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल ने विधानसभा चुनाव की घोषणा से पहले ही पूरे दिल्ली में 'रेवड़ी पर चर्चा' अभियान की शुरूआत कर दी थी। इस मौके पर उन्होंने दो टूक कहा था कि "जनता का पैसा, जनता की रेवड़ी, तो उस पर हक़ भी जनता का ही है।" केजरीवाल ने कहा कि, 'पीएम मोदी ने कई बार कहा है कि केजरीवाल मुफ़्त की रेवड़ी दे रहे हैं और इसे बंद किया जाना चाहिए। जबकि केजरीवाल खुलेआम कह रहा है कि हम ये रेवड़ी दे रहे हैं। अब दिल्ली के लोगों को तय करना है कि उन्हें ये रेवड़ी चाहिए या नहीं।" उन्होंने आगे चेताया कि, "अगर बीजेपी जीतती है तो वे ये योजनाएं बंद कर देगी। क्योंकि बीजेपी ने अपने और अपने गठबंधन द्वारा शासित राज्यों में ये रेवड़ियां लागू नहीं की हैं। हालांकि उसकी कथनी और करनी में अंतर है।" उन्होंने दो टूक कहा कि, "ये “मुफ़्त की रेवड़ी” नहीं हैं बल्कि ये करदाताओं के पैसे से लागू की गई योजनाएं हैं।"


वहीं, चुनाव आयोग ने भी इस मुद्दे पर कहा था कि, "जिसे आप सामान्य भाषा में 'फ्रीबीज़' यानी मुफ़्त की चीज़ें कह रहे हैं, वे महामारी जैसे दौर में लोगों की जान बचा सकती हैं। हो सकता है एक वर्ग के लिए जो अतार्किक हो वो दूसरे वर्ग के लिए ज़रूरी हो।"

 

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वहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजनीतिक पार्टियों और मुफ़्त में सुविधाएं दिए जाने का ज़िक्र करते हुए एक बार कहा था कि, "इस तरह के वादे करके वोटरों को लुभाना राष्ट्र निर्माण नहीं, बल्कि राष्ट्र को पीछे धकेलने की कोशिश है। अगर राजनीति में ही स्वार्थ होगा तो कोई भी आकर पेट्रोल-डीज़ल भी मुफ़्त देने की घोषणा कर सकता है। ऐसे क़दम हमारे बच्चों से उनका हक़ छीनेंगे। देश को आत्मनिर्भर बनने से रोकेंगे। ऐसी स्वार्थभरी नीतियों से देश के ईमानदार करदाता का बोझ भी बढ़ता ही जाएगा। ये नीति नहीं 'अनीति' है। ये राष्ट्रहित नहीं, ये राष्ट्र का अहित है।"


एक बार पीएम मोदी ने बुंदेलखंड-एक्सप्रेसवे का उद्घाटन करते हुए उत्तर प्रदेश के जालौन में तो यहां तक कह दिया था कि, "आजकल हमारे देश में मुफ़्त की रेवड़ी बांटकर वोट बटोरने का कल्चर लाने की भरसक कोशिश हो रही है। ये रेवड़ी कल्चर देश के विकास के लिए बहुत घातक है। रेवड़ी कल्चर वालों को लगता है कि जनता जनार्दन को मुफ़्त की रेवड़ी बांटकर उन्हें ख़रीद लेंगे। हमें मिलकर रेवड़ी कल्चर को देश की राजनीति से हटाना है।"


वहीं, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इस मुद्दे पर अपना पक्ष रखते हुए कहा था कि, "कहा जा रहा है कि अगर सरकारें जनता को फ्री में सुविधाएं देंगी तो सरकारें कंगाल हो जाएंगी। देश के लिए बहुत आफ़त पैदा हो जाएगी। इन सारी फ्री की सुविधाओं को बंद किया जाए। इससे मन में एक शक पैदा होता है कि कहीं केंद्र सरकार की आर्थिक हालत बहुत ज़्यादा खराब तो नहीं हो गयी है। अचानक ऐसा क्या हो गया कि इन सारी चीजों को बंद करने, वापस लेने या इनका विरोध करने की स्थिति आ गई।" इससे दो कदम आगे बढ़कर उन्होंने आरोप लगाया था कि केंद्र सरकार ने करोड़पति उद्योगपतियों के दस लाख करोड़ रुपए के कर्ज़ माफ़ किए थे। उन्होंने सवालिया लहजे में कहा था कि, " जब 2014 में केंद्र सरकार का बीस लाख करोड़ का बजट होता था। और आज केंद्र सरकार का बजट लगभग चालीस लाख करोड़ का है तो ये सारा पैसा जा कहां रहा है। इन्होंने बहुत अमीर लोग जो अरबपति हैं, उनके दस लाख करोड़ रुपये के कर्जे़ माफ कर दिए। अगर ये हज़ारों लाखों करोड़ों रुपये के कर्जे़ माफ़ नहीं किए जाते तो इन्हें खाने-पीने की चीज़ों पर टैक्स लगाने की ज़रूरत नहीं पड़ती।" यहां पर यह भी उल्लेखनीय है कि एक बार कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने राज्यसभा में पूछे गए एक सवाल का जवाब ट्वीट किया था। जिसके अनुसार 2017 से लेकर 2022 के बीच बैंकों ने क़रीब 10 लाख करोड़ रुपये के कर्ज़ माफ़ किए हैं। तब उनका कहना था कि सरकार मध्यवर्ग के करदाताओं को लूट रही है। लिहाजा इसी का ज़िक्र अरविंद केजरीवाल ने भी किया था, जो सही है।


वहीं, चुनाव अभियानों में राजनीतिक पार्टियों के मुफ़्त चीज़ें और पैसे देने के वादों से संबंधित एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इसे 'एक गंभीर मुद्दा' बताया है। वर्ष 2022 में ही एक याचिका पर सुनवाई करते हुए तत्कालीन चीफ़ जस्टिस एनवी रमन्ना और जस्टिस कृष्ण मुरारी की बेंच ने कहा था कि- "ये एक गंभीर मुद्दा है। जिन्हें ये मिल रहा है वो ज़रूरतमंद हैं और हम वेलफ़ेयर स्टेट हैं। कुछ टैक्सपेयर कह सकते हैं कि इसका इस्तेमाल विकास के लिए किया जाए। इसलिए ये गंभीर मुद्दा है। अर्थव्यवस्था को हो रहे नुकसान और वेलफ़ेयर में बैलेंस की ज़रूरत है। दोनों ही पक्षों को सुना जाना चाहिए।"


उल्लेखनीय है कि इस बाबत जनहित याचिका दायर करने वाले बीजेपी नेता अश्विनी उपाध्याय ने गुज़ारिश की है कि केंद्र सरकार और चुनाव आयोग राजनीतिक पार्टियों के चुनावी घोषणापत्र को नियंत्रित करने और उनके वादों के लिए उन्हें ज़िम्मेदार ठहराने से जुड़ा क़ानून लाए और बिना सोच समझकर अतार्किक वादे करने वाली पार्टियों को बैन करे। उनका कहना है कि मुफ़्त चीज़ों की घोषणा करते वक़्त राजनीतिक पार्टियां सरकार पर पड़ रहे कर्ज़ के बोझ का ध्यान रखें और बताएं कि इसके लिए पैसा किसकी जेब से आ रहा है।


इस बारे में अश्विनी उपाध्याय ने बताया था कि, "हमने कोर्ट से यही कहा है कि इस समय केंद्र और राज्य सरकारों पर 150 लाख करोड़ रुपये का कर्ज़ हो चुका है। अगर इसे नहीं रोका गया तो आने वाले समय में स्थिति बहुत ख़राब हो जाएगी। हमें न विश्व बैंक, न अमेरिका, न जापान कर्ज़ देगा। स्थिति नियंत्रण के बाहर हो जाएगी। केंद्र सरकार ने भी हमारी जनहित याचिका का समर्थन किया है और कहा है कि जन कल्याणकारी योजनाएं तो चलनी चाहिए लेकिन मुफ़्तखोरी की योजनाएं बंद होनी चाहिए। हमने अपनी ओर से सात सदस्यों की एक समिति का प्रस्ताव दिया है। यह समिति बताए कि मुफ़्तखोरी को कैसे रोका जाए और राज्यों पर जो कर्ज़ बढ़ रहा है, उसे कैसे कम किया जाए।"


यूँ तो भारत में इससे पहले भी सब्सिडी के मुद्दे पर विचार-विमर्श होता रहा है। सब्सिडी के औचित्य आदि पर गंभीर चर्चाएं हुई हैं। लेकिन इस मुद्दे पर इस तरह राजनीतिक दलों के बीच आरोप-प्रत्यारोप ने नए सुलगते हुए सवाल खड़े किए हैं। वह यह कि क्या मुफ़्त में चीजें या सेवाएं देना उचित है? क्योंकि राजनीतिक पार्टियां चुनाव जीतने के लिए मुफ़्त में चीज़ें या सुविधाएं देने का वादा हमेशा से करती रही हैं, लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या ये किया जाना उचित है?


इस विषय पर राजनीतिक मामलों के जानकार बताते हैं कि जब आप वोट मांगने जाते हैं तो इस तरह की बातें कहनी होती हैं। लेकिन इसमें एक फ़र्क है कि सामान्य रूप से ये कहना कि हम सबका ध्यान रखेंगे और स्पेसिफिक रूप से कहना जैसे '15 लाख आएंगे और हम सबको दे देंगे।' उन्हें लगता है कि इस तरह स्पेसिफिक वादे करना ग़लत होता है। ये कहना भी ग़लत है कि हम जब आएंगे तो बिजली के बिल में दो या तीन रुपये माफ़ कर देंगे या बिलकुल ही ख़त्म कर देंगे। दरअसल, ये प्रवृत्ति किसी एक दल की नहीं है, बल्कि सभी दलों की होती है लेकिन ये प्रवृत्ति रुकनी चाहिए। अगर आप कुछ करना चाह रहे हैं तो उसके लिए भी नियम कानून होने चाहिए कि उसे किस तरह होना चाहिए। इसकी जवाबदेही भी होनी चाहिए।


लेकिन क्या जन कल्याणकारी योजनाओं और हाल ही में सामने आए टर्म 'मुफ़्त की रेवड़ी' को एक तरह देखा जा सकता है? इस सवाल पर जानकार बताते हैं कि एक ऐसा समाज जहां आर्थिक और सामाजिक समेत तमाम तरह की विषमताएं हैं। वहां सभी के लिए एक जैसा कदम नहीं उठाया जा सकता। ऐसे में वंचितों और शोषितों का कल्याण करना हर सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए। लेकिन लोकतंत्र में अगर आपका काम बहुसंख्यक समाज को लाभांवित नहीं करेगा तो आप चुनकर नहीं आ सकते। ऐसे में ये कहा जाए है कि हमारी सरकार ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को ज़्यादा से ज़्यादा फ़ायदा पहुंचाएगी। यहां तक तो ठीक है। लेकिन धीरे-धीरे ये होने लगा है कि जनता से वादे करो और फिर भूल जाओ। ऐसे में पहले जो एक फुंसी थी, उसने अब कैंसर का रूप ले लिया है। इस प्रवृत्ति का नतीजा ये हुआ कि कहा जाने लगा कि हम फ्री बिजली देंगे। पानी देंगे। गैस देंगे, आदि आदि। बताइए कि कोई भी सरकार फ्री बिजली कैसे दे सकती है। आख़िरकार पैसा टैक्सपेयर का है। और फ्री बिजली सबको क्यों मिलनी चाहिए...जो लोग बिजली ख़रीद सकते हैं, उन्हें फ्री में क्यों मिलनी चाहिए।

 

- कमलेश पांडेय 

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