भाषा मर्मज्ञ और भावुक रस सिद्ध कवि थे रहीमः पुस्तक

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By डॉ0 दीपा गुप्ता | Dec 17, 2019

भाषा मर्मज्ञ और भावुक रस सिद्ध कवि थे रहीमः पुस्तक

उत्तराखंड के साँस्कृतिक नगर अल्मोड़ा में चुपचाप अपने शोध कार्य में सतत सक्रिय और पेशे से व्याख्याता {हिंदी} डॉ0 दीपा गुप्ता इस बात को प्रमाणित करने की जिद में लगी हैं कि अब्दुर्रहीम खानखाना मात्र एक नीतिकार नहीं हैं। अकबरी दरबार के नवरत्न एवं शूरवीर बैरम खाँ के पुत्र अब्दुर्रहीम खानखाना का लगभग 462 वर्ष पूर्व आज ही के दिन 17 दिसंबर को 1556 में जन्म हुआ था। रहीम का दुर्भाग्य यह रहा है कि उन्हें मात्र एक नीतिकार के रूप में जाना जाता है जबकि वह कुशल राजनयिक, विविध भाषा मर्मज्ञ, कला पारखी, औघड़दानी, उदार आश्रयदाता और भावुक रस सिद्ध कवि थे।

डॉ0 दीपा गुप्ता ने 1995 में रुहेलखंड विश्वविद्यालय बरेली से अब्दुर्रहीम खानखाना व्यक्तित्व, कवित्व और आचार्यत्व पर डॉक्टरेट की उपाधि पाई। यह पहला शोध था जिसमें रहीम के आचार्यत्व पर विचार हुआ, जो बाद में हिंदुस्तानी भाषा अकादमी नई दिल्ली से "खानखाना रहीम" नामक शोध ग्रंथ के रूप में प्रकाशित हुआ। रहीम को और अधिक जानने की उत्कंठा ने दीपा गुप्ता को बैठने ना दिया वह निरंतर रहीम के अनुपलब्ध साहित्य को खोजने का कार्य करती रहीं, इसी कड़ी में उन्हें रहीम की एक अप्रकाशित कृति "गंगाष्टकम्" की पांडुलिपि हाथ लगी, जिस पर उन्होंने गहन शोध कार्य किया जो "A Rare Creation oh Rahim" पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुई। 2015 में यह आगा खां ट्रस्ट नई दिल्ली की शोध टीम से जुड़ गईं, वहाँ काम करते हुए इनकी शोध की गति ने रफ्तार पकड़ी। निजामुद्दीन स्थित रहीम के मकबरे के संरक्षण में लगे भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधिकारियों के साथ मिलकर इन्होंने रहीम के मकबरे का गहन अध्ययन किया और अनेक यात्राएं कीं। इसी संदर्भ में इन्होंने प्रो0 नामवार सिंह, प्रो0 मैनेजर पांडे, बनारस यात्रा के दौरान डॉ. सदानंद शाही (बीएचयू), डॉ. प्रताप नारायण आदि के साक्षात्कार लिए और रहीम के उपलब्ध संपूर्ण साहित्य (ब्रज और अवधि) का प्रथम बार संपूर्णता के साथ इन्होंने अनुवाद किया। यह साक्षात्कार और अनुवाद अंग्रेजी के विद्वान प्रो0 हरीश त्रिवेदी के संपादन में वाणी प्रकाशन से आ रहे हैं। जिसकी भूमिका प्रख्यात गीतकार गुलजार साहब ने लिखी है।

दास्तानगोई करके कम उम्र में ही सफलता की ऊंचाई छूने वाले स्वर्गीय अंकित चढ्ढा की रहीम की दास्तान इन्होंने ही लिखी थी..जिसने हैवीवेट सेंटर में 2016 में सफलता की नयी ऊंचाइयाँ छुयीं थीं....। रहीम ने कहा था...."कवित्त कहो, दोहा कहो, तुलै ना छप्पय छंद"...इस एक पंक्ति के परिप्रेक्ष्य में दीपा गुप्ता को यह यकीन है कि अभी रहीम का बहुत सारा साहित्य अनुपलब्ध है, क्योंकि रहीम के उपलब्ध समस्त साहित्य का अवलोकन करने के बाद भी कहीँ कोई छप्पय इन्हें नहीं मिला है...दीपा गुप्ता को विश्वास है कि बहुमुखी प्रतिभा के धनी रहीम ने छप्पय छंद का प्रयोग अवश्य किया होगा जो कहीं ना कहीं पाण्डुलिपि के रूप में होगा जरूर..जिसे निरन्तर खोजने में यह लगी हैं। "मआसिरे -रहीमी" जो फारसी भाषा में है उसका भी अभी तक अंग्रेजी या हिंदी अनुवाद नहीं हुआ है। मध्य काल के विद्वानों और हस्तलिखित पाण्डुलिपिविद् आचार्यों से इनका निवेदन है कि अगर रहीम नाम से कोई भी पाण्डुलिपि उपलब्ध हो तो इसकी सूचना इन्हें अवश्य दें..ताकि उस पर कार्य हो सके। फिलहाल यह "रहीम फाउंडेशन" के माध्यम से राष्ट्रीय एकता का समन्वय स्थापित करने की दिशा में गंभीरता से लगी हुईं हैं।

 

-डॉ. दीपा गुप्ता

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