भावना ! यह शब्द सुनते ही कानों में घंटियों की मधुर आवाज़ और मन में हल्की-सी खुमारी छा जाती है। अरे, इसलिए नहीं कि यह हमारी किसी पुरानी गर्लफ्रेंड का नाम है, बल्कि इसलिए कि वह भी एक जमाना था जब हम भावनाओं से खेलते नहीं थे, बस उनके अधीन रहना चाहते थे। भावनाओं के आधार पर ही ज़माने भर को "भाव" देते थे। लेकिन आजकल भावना कुछ और ही हो गई है। भावना अब वह नहीं रही जो रोम-रोम में बसने वाले भाव थे। बहुत ढूंढा, जी... मन में कई प्रश्न थे। आजकल कहाँ निवास करती है भावना? ये लेटेस्ट वर्जन जो भावना के आ रहे हैं, आखिर इनकी सप्लाई हो कहाँ से रही है? क्या भावना का भी चाइनीज वर्जन लॉन्च हो गया है? देखो तो, ज्यादा चलती ही नहीं, यार... तुरंत भड़क जाती है। आहत हो जाती है। कोई भावना से खेले या न खेले, फिर भी जब चाहे तब रिटायर्ड हर्ट। हद है, यार...!
ढूंढा तो मिली बाज़ार की चमचमाती दुकान में सजी हुई। जिसे देखो, वही भावना को बेचने में लगा है। कहीं धर्म के नाम पर, कहीं जाति के नाम पर, और कहीं विकास के नाम पर।
एक विज्ञापन देखा—गंगाजल ₹30 प्रति लीटर, इसके अतिरिक्त GST 28%! देखकर माथा ठनक गया। किस तरह भावनाओं को बोतलबंद करके बाजार में बेचा जा रहा है। बाजार और सरकार, दोनों ही भावनाओं के इस गोरखधंधे में एक-दूसरे के साथ हैं।
कभी दिल की डूबती नैया को पार करने की पतवार थी भावना। अब यह दिमाग के रिमोट बटन से संचालित होने लगी है। धर्मगुरु इसे मंदिर की चौखट पर बेचते हैं, तो नेता इसे माइक और मंच से। और बेचारे आम लोग? वे इसे खरीदने में अपनी जिंदगी खपा देते हैं।
जब चाहें, जहां चाहें, जैसा चाहें, भावना बैठी है आहत होने के लिए तैयार... बस पलक झपकने की देर है। भावना, जो बिना किसी जात-पात, धर्म, ऊंच-नीच, अमीर-गरीब का भेदभाव किए समान रूप से आहत हो सकती है। भावना, जो चर-अचर सभी ब्रह्मांड में समान रूप से व्याप्त है, अगर आहत होने पर आए, तो किसी के दो बोल, रंग, रूप, या इशारे से भी आहत हो सकती है।
मुझे लगता है कि भावना अब इंसान के आचार-व्यवहार के लिए नहीं, केवल व्यापार का माध्यम बन गई है। भावनाओं को या तो भड़काया जाता है या आहत किया जाता है। राजनीति, धर्म, समाज, बाजार, मनोरंजन—हर जगह भावनाएं शतरंज के मोहरों की तरह हैं, जो हर हारी हुई बाजी को जीत सकती हैं। भावनाओं को भुनाने का व्यापार चल पड़ा है। मनोरंजन का बाजार इसी पर टिका है। कोई फिल्म किसी धर्म, जाति, समुदाय की भावनाओं को आहत कर दे, तो बस फिर क्या! फिल्म विवाद के सहारे बॉक्स ऑफिस पर छलांग लगाती है।
भावना के तवे के नीचे मुद्दे की आग लगाकर राजनीतिक रोटियां सेंकी जाती हैं। भावना की ही खाद देकर वोट की फसल उगाई जाती है। राजनीति के खेल में भावनाओं की गूगली फेंकी जाती है, जो विरोधियों की धुआंधार बल्लेबाजी को रोकने में कारगर होती है।
एक तरफ तो इंसान इतना भावना-विहीन हो गया है कि उसने भावनाओं को सात तालों में कैद कर रखा है। आप आत्मा तक निचोड़ लीजिए, भावना फिर भी बाहर नहीं आएगी।
फिर ये कौन-सी भावना है जो जब चाहे आहत हो जाती है? ये कौन-सी भावना है जो इतनी नाजुक, नकचढ़ी और "ड्रामा क्वीन" है? यूं समझिए, इसने शायद रूठे फूफा से खास ट्रेनिंग ली हो। इसे आहत होने के लिए बस एक इशारे की जरूरत होती है।
रोज भावनाओं का सूखा पड़ता है, जैसे पूरा शहर बंजर जमीन हो गया हो। देखिए न, चौराहे पर... एक निराश्रित बुजुर्ग महिला पड़ी है। एक मनचला, बाइक की तेज रफ्तार में उसे गिरा गया है। लोग जल्दी में हैं। न जाने कितने वाहन सरपट निकल गए, जैसे वह महिला दिखी ही न हो। ट्रैफिक पुलिस अब सीटी बजाकर वाहनों को हटाने की कोशिश कर रही है। बाकी कुछ लोग इस घटना को "ब्रेकिंग न्यूज" के रूप में सोशल मीडिया पर परोसकर जागरूक नागरिक होने का फर्ज निभा रहे हैं।
बुजुर्ग महिला की चीखें शायद यह टटोल रही हैं कि क्या किसी के दिल के किसी कोने में छुपी कोई भावना उसकी पुकार सुन लेगी।
हमारे देश में भावना का बिछौना हर चौराहे पर बिछा है। कहीं भगवा, कहीं हरा, तो कहीं नीला। जनता अपनी-अपनी भावना की चादर में पैर समेटने की कोशिश कर रही है, लेकिन पैर चादर में समा नहीं रहे। बस, एक-दूसरे की चादरें खींच रहे हैं। चादर में से टांग बहर निकल रही है तो लगे हैं टांग अडाने में । हर कोई चाहता है कि सारी चादरें उसी के रंग की हों। देने वाले ने तो सफेद चादर दी थी तुम्हे, एक दम कोरी चदरिया ...चाह भी था की साबुत वापस दे देना मुझे...लेकिन तुमने इसे रंगने के चक्कर में फाड़ दिया।
विज्ञापन भावना को "कास्ट" कर रहे हैं। लीड रोल में है भावना—"खरीदिए यह पैकेज, मिलेगा भावना का मुफ्त उपहार, खास आपके धर्म और जाति के लिए बेस्ट डील!" भावना की रेसिपी परोसी जा रही है... थोड़ा-सा आहत होने का मसाला और ढेर सारा गुस्से का तेल डालकर।
बड़े-बड़े ठेकेदार बैठे हैं भावनाओं को खरीदने और बेचने के लिए। मंचों, रैलियों, टीवी डिबेट में भावनाओं की बोली लग रही है। जो जितना ज्यादा भावनाओं को आहत कर सकता है, वह उतना ही सटीक प्रवक्ता, वक्ता, नेता, आलोचक या प्रचारक बन जाता है।
जनता से ये भावनाएं नहीं संभलतीं। अरे गृहस्थी तो संभल नहीं रही.. क्या खाक संभालेगा भावनाओं को.. । जनता ने चुन लिए हैं न कुछ ठेकेदार अपने ही बीच से ,जिन्होंने ले लिया है ठेका इन्हें संभालने का । वे ही तय करते हैं कि भावनाओं के साथ क्या करना है। कब इन्हें सुलाना है, कब जगाना है, कब भड़काना है और कब इनके आहत होने पर विलाप करवाना है।
भावना के तवे पर मुद्दों की रोटी सेंकने वाले यही करते आए हैं। भावना अब घिसी-पिटी घड़ी बन चुकी है, जो न समय बताती है, न चलती है। बस आपके ईगो के ड्राइंग रूम में सजी रहती है। किसी ने छेड़ दी तो आरोप लग जाता है—"घड़ी चल रही थी, तुमने छेड़कर बंद कर दी।"
- डॉ. मुकेश असीमित