एक तमाशा (व्यंग्य)

By डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ | Oct 21, 2024

देखिए, अब तक आपने बहुत जलवे देखे होंगे। नेता का जलवा, अभिनेता का जलवा, और कभी-कभी तो बिजली कटने पर मोमबत्ती का जलवा भी देख लिया होगा। लेकिन जो जलवा बाबा का है, वो नायाब है। ऐसा जलवा न तो संविधान में लिखा है, न ही धर्मशास्त्रों में। ये वो जलवा है जो सत्संग में 121 लोगों को सीधा स्वर्ग की एक्सप्रेस ट्रेन में चढ़ा देता है, और बाबा? अरे, बाबा तो अपना फरारी टिकट जेब में लिए आराम से धरती पर ही चहल-कदमी कर रहे हैं।


अब बाबा जी को जाँच कमेटी के सामने पेश होना था। भाई, ये कमेटियाँ भी अजीब होती हैं, जिनमें कुछ लोग ऐसे बैठे होते हैं जिनके चेहरे पर “हम यहाँ क्यों हैं” का भाव स्थायी निवास बना लेता है। लेकिन बाबा लखनऊ के हज़रतगंज पहुँचे। हज़रतगंज? ये वही जगह है जहाँ कभी कबूतर भी फड़फड़ाते थे तो इंस्पेक्टर पूछता था, "लाइसेंस है?" और आज? आज तो बाबा का जलवा है। दुकानें बंद, सड़कें खाली, और भक्तों का जुलूस। 

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बाबा जब अपनी सफेद चमचमाती फार्चूनर में उतरे, तो जैसे खुद मोक्ष वाहन से अवतरित हो रहे हों। सत्ताधारी पार्टी का झंडा लहरा रहा था, लेकिन बाबा के चेहरे पर वो भाव था जैसे कह रहे हों, "झंडा-वंडा, पार्टी-वार्टी, ये सब संसार के मोह-माया हैं, असली शक्ति तो भक्तों के अंधविश्वास में है।” 


अब देखिए, चार्जशीट की बात चली थी। अरे भाई, ये बाबा हैं, चार्जशीट इनकी वाणी से भी पवित्र होती है। पुलिस की चार्जशीट में बाबा का नाम? हाँ है न! क्या मजाक कर रहे हो! चार्जशीट बाबा के सामने वैसे ही बेबस है जैसे बंद कमरे में मच्छर मारने वाला बैट। बाबा का नाम तो भक्तों के दिलों में लिखा है, पुलिस की फाइलों में नहीं।


अब आते हैं हज़रतगंज के इंस्पेक्टर पर। ये वो इंसान हैं जो “अनुशासन” शब्द को लेकर वही भाव रखते हैं जो एक आलसी विद्यार्थी गणित की किताब को देखकर रखता है। पी कैप लगाने का तो सवाल ही नहीं। उनका मानना है कि सिर पर टोपी से ज्यादा सिर में ‘बुद्धि’ होनी चाहिए, जो कि यहाँ दूर-दूर तक दिख नहीं रही। एक बार किसी वरिष्ठ अधिकारी ने टोपी न पहनने पर डाँट पिलाई थी, लेकिन उस डाँट का असर उतना ही रहा जितना गर्मी में बरसात की पहली बूंद का होता है– बस एक हल्का छींटा और फिर सब सामान्य।


सरकारें आती हैं, जाती हैं। पार्टी का झंडा बदलता है, और बाबा के गाड़ी के मॉडल भी। लेकिन पुलिस का “इंस्पेक्टर” वही रहता है, बिल्कुल बाबा के भक्तों की तरह अडिग और अचंभित। ये इंस्पेक्टर तो पूरे जिले का इंस्पेक्टर है। लोग इनके बारे में कहते हैं कि “अनुशासन तो पुलिस की जान है,” लेकिन अनुशासन को भी पता है कि इसका इंस्पेक्टर से कोई लेना-देना नहीं है।


अब पुलिस विभाग में अनुशासन तो बहुत ज़रूरी चीज है, लेकिन जब बात बाबा की आती है, तो अनुशासन अपनी छुट्टी पर चला जाता है। बाबा के भक्त कह रहे हैं, "भाई, ये बाबा कोई आम आदमी थोड़ी हैं! ये तो स्वयंभू हैं, और स्वयंभू पर कोई नियम-कायदा लागू नहीं होता।" 


और हम? हम देख रहे हैं, हँस रहे हैं, और शायद कभी-कभी आँसू भी बहा रहे हैं। लेकिन ध्यान रखिए, आँसू बहाने से कोई फर्क नहीं पड़ता। बाबा का आशीर्वाद सब पर बराबर है, चाहे वो भक्त हो, पुलिसवाला हो, या जाँच कमेटी का सदस्य।


अंत में, हम सबको एक ही शिक्षा मिलती है: बाबा का जलवा कभी कम नहीं होता, बस भक्तों का दिमाग थोड़ा कम हो जाता है।


- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,

(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

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