स्वच्छ भारत अभियान का एक दशक

By उमेश चतुर्वेदी | Sep 30, 2024

साल 1901 के कोलकाता के कांग्रेस अधिवेशन में दक्षिण अफ्रीका से हिस्सा लेने पहुंचे गांधी को अजीब अनुभव हुआ। प्रतिनिधियों को ठहरने वाले शिविर में सफाई की हालत बेहद खराब थी। कई प्रतिनिधि ऐसे थे, जिन्होंने उन कमरों के बाहर बने बरामदे का ही शौचालय के रूप में इस्तेमाल कर दिया। दुर्गंध और गंदगी के बावजूद दूसरे प्रतिनिधियों को इस पर कोई ऐतराज नहीं था। लेकिन गांधी जी से बर्दाश्त नहीं हुआ। तब तक वे पश्चिमी वेशभूषा में रहते थे। अधिवेशन में सहयोग के लिए तैनात स्वयंसेवकों से गांधी जी ने स्वच्छता की बाबत बात की, तो उन्होंने टका-सा जवाब दे दिया था, "यह हमारा काम नहीं है, यह सफाईकर्मी का काम है।" गांधी जी से बर्दाश्त नहीं हुआ। उन्होंने अपने कपड़े उतारे, झाड़ू मंगवाई और वहां मौजूद गंदगी साफ को साफ करने में जुट गए। सफाई के बाद वे फिर से कोट-पैंट में आ गए। 


भारतीय राजनीति में तब तक गांधी का सितारा बहुत नहीं चमक पाया था। लेकिन उन्होंने राजनीति की दुनिया में सफाई के विचार का बीज रोप दिया। कोलकाता अधिवेशन में दिखी गंदगी का ही असर कह सकते हैं कि बाद के दिनों में उन्होंने विचार दिया, स्वतंत्रता से ज्यादा जरूरी स्वच्छता है। गांधी के रचनात्मक शिष्यों यथा बिनोबा, ठक्कर बापा आदि ने स्वच्छता और सफाई के इस गुर को बहुत आगे बढ़ाया। लेकिन जिसे मुख्यधारा की राजनीति कहते हैं, उसने स्वच्छता के गांधीवादी दर्शन को उसी रूप में बाद में शायद ही स्वीकार किया। इन संदर्भों में देखें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले राजनेता हैं, जिन्होंने अहम जिम्मेदारी संभालते हुए स्वच्छता और शौचालय क्रांति की बात की। शायद ही किसी ने सोचा होगा कि कोई प्रधानमंत्री लालकिले की प्राचीर से शौचालय क्रांति की बात करेगा। लेकिन मोदी ने ना सिर्फ शौचालय क्रांति की, बल्कि इसके डेढ़ महीने बाद गांधी जी की जयंती पर 2 अक्टूबर 2014 को खुद ही फावड़ा और झाड़ू उठा लिया। इसके साथ ही देश के सामने एक नया अभियान आया, ‘स्वच्छ भारत अभियान’।

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स्वच्छ भारत अभियान के एक दशक पूरे हो गए हैं। इस दौरान स्वच्छता के मोर्चे पर देश ने बहुत कुछ हासिल किया है। ऐसा नहीं कि भारत में स्वच्छता की अवधारणा नहीं रही है। भारत के प्राचीन ग्रंथ,सामाजिक व्यवस्था और मंदिर संस्कृति की परंपराएं स्वच्छता की भारतीय धारा की गवाह हैं। यह कह सकते हैं कि बाद के दिनों में भारतीय स्वच्छता सिर्फ व्यक्तिगत स्वच्छता तक सीमित होकर रह गई थी। भारतीयों के एक बड़े वर्ग की सोच सफाई को लेकर ज्यादा निजी थी। शायद ही कोई भारतीय घर होगा, जहां रोजाना झाड़ू ना लगती हो। स्वच्छ भारत अभियान के पहले होता यह था कि झाड़ू लगती तो थी,लेकिन कूड़ा गली में या सड़क पर या सार्वजनिक जगहों पर फेंक दिया जाता था। प्रधानमंत्री मोदी के स्वच्छ भारत अभियान के शुरू करने के बाद इस सोच में बदलाव आया है। वैसे मानव स्वभाव कोई बिजली का बल्ब नहीं है कि बटन दबाया और जल या बुझ जाएगा। उसमें बदलाव आने में देर होती है। बदलाव को वह जल्दी से स्वीकार नहीं कर पाता। इसीलिए स्वच्छता के  मोर्चे पर हम देखते हैं कि सौ प्रतिशत सफलता हासिल नहीं की जा सकी है। रेलवे लाइनों के किनारे पड़े कूड़े के अंबार अब भी बने हुए हैं। लेकिन स्वच्छ भारत अभियान के दस वर्षों में यह सोच जरूर विकसित हुई है कि निजी ही नहीं, सार्वजनिक स्वच्छता जरूरी है। नई पीढ़ी के बच्चे तो अब बड़े-बड़ों को सार्वजनिक गंदगी के लिए टोक देते हैं। 


स्वच्छता को लेकर महात्मा गांधी ने कहा था, "मैं किसी को भी अपने दिमाग़ से गंदे पैर लेकर नहीं गुज़रने दूँगा।" गांधी के इस दर्शन पर भी चलते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वच्छ भारत अभियान शुरू करते हुए कहा था, 'न मैं गंदगी करूंगा, न मैं गंदगी करने दूंगा।' सार्वजनिक समारोहों में उनकी यह सोच अक्सर परिलक्षित होती है। किताब आदि के विमोचन के दौरान रैपर आदि को वे मोड़कर अपनी जेब में रख लेते हैं। इससे देश के अधिसंख्य लोगों ने प्रेरणा ली है और उस पर अमल भी कर रहे हैं।

 

स्वच्छता अभियान की सफलता ही कहेंगे कि देश के बारह करोड़ घरों में शौचालय बन चुके हैं। स्वच्छ भारत अभियान की एक दशक की यात्रा में न केवल शौचालय कवरेज में भारी वृद्धि हुई है, बल्कि खुले में शौच की कुप्रथा तकरीबन खत्म हो गयी है। स्वच्छता का मतलब सिर्फ सफाई ही नहीं, खाने-पीने की चीजें भी स्वच्छ होनी चाहिए। इस लिहाज से हर घर नल जल योजना को भी स्वच्छ भारत अभियान से जोड़ सकते हैं। जिसके तहत पाइप से स्वच्छ पानी की आपूर्ति की कवरेज दस सालों में 16 प्रतिशत से बढ़कर 78 प्रतिशत हो गई है। देश में धुएं के प्रदूषण से महिलाओं को रोजाना दो-चार होना पड़ता था। उज्ज्वला योजना के जरिए इस दिशा में स्वच्छ भारत अभियान को सफल कहा जा सकता है। इस योजना के तहत 11 करोड़ घरों में रसोई गैस का कनेक्शन पहुंच चुका है। 


स्वच्छ भारत अभियान से स्वास्थ्य के मोर्चे पर बड़ा बदलाव आया है। हालही में विश्व प्रसिद्ध पत्रिका नेचर में स्वच्छ भारत अभियान के बाद आए भारत में बदलावों के शोध पर आधारित एक लेख छपा था। इससे पता चलता है कि स्वच्छ भारत अभियान गेम चेंजर बन गया है। नेचर पत्रिका में प्रकाशित आलेख कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान और ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी के एक शोध पर आधारित है। जिससे पता चलता है कि खुले में शौच की कुरीति खत्म होने के बाद और शौचालय क्रांति से देश में शिशु मृत्यु दर में कमी आई है। शोध पत्र में कहा गया है कि खुले में शौच की कुरीति के खत्म होने से हर वर्ष करीब 60 हजार से 70 हजार शिशुओं की मृत्यु को रोकने में सफलता मिली है। शोध पत्र के अनुसार, वर्ष 2000 से 2015 की तुलना में वर्ष 2015 और 2020 के बीच शिशु मृत्यु दर एक तिहाई रह गई...इसके आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2000 और 2015 के बीच शिशु मृत्यु दर में जहां तीन प्रतिशत वार्षिक की गिरावट रही, वहीं बाद में यह गिरावट आठ से नौ प्रतिशत ज्यादा हुई। इसी तरह 2000 और 2015 के बीच की तुलना में बाद के वर्षों में शिशु मृत्यु दर में 10 प्रतिशत तक की गिरावट आई है। इस लेख मुताबिक, साल 2014 में शिशु मृत्यु दर जहां 39 अंक थी, वह साल 2020 में घटकर 28 रह गई। 

स्वच्छता अभियान की सफलता की कहानी विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट भी करती है। इस रिपोर्टे के अनुसार, स्वच्छता अभियान के चलते 2014 से 2019 के बीच डायरिया से होने वाली मौत के करीब तीन लाख मामले कम हुए, जो इसके पहले की अवधि में ज्यादा थे। इसी रिपोर्ट के मुताबिक, खुले में शौच की कुरीति खत्म होने से हर परिवार के स्वास्थ्य पर होने वाले करीब 50 हजार रूपए सालाना के खर्च की बचत हुई है। इसके साथ ही भूजल की गुणवत्ता भी पहले की तुलना में बेहतर हुई है। शौचालय क्रांति के चलते अब करीब 93 प्रतिशत महिलाएं अपने घरों में ज्यादा सुरक्षित महसूस करती हैं। क्योंकि अब उन्होंने शौच के लिए बाहर नहीं जाना पड़ा।


स्वच्छ भारत अभियान साल 2020 से संपूर्ण स्वच्छता अभियान में तब्दील किया जा चुका है। जिसके लिए एक लाख चालीस हजार करोड़ की रकम आवंटित की गई है। जाहिर है कि स्वच्छता के मोर्चे पर देश ने बहुत कुछ हासिल किया है। लेकिन यह कहना अभी जल्दीबाजी होगी कि देश ने इस दिशा में सबकुछ हासिल कर ही लिया है। लेकिन अब भी देश के कुछ इलाके ऐसे हैं, जहां का मानस सार्वजनिक स्वच्छता को लेकर पूरी तरह प्रतिबद्ध और सचेत  नहीं हो पाया है। जरूरी इस वर्ग को पूरी तरह प्रतिबद्ध और सचेत करना है। स्वच्छता में ढिलाई बरतने वाले तंत्र के दंडात्मक विधान की व्यवस्था करनी होगी, तभी आज का भारत प्राचीन भारत की तरह पूरी तरह स्वच्छ हो पाएगा। 


- उमेश चतुर्वेदी

वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक समीक्षक

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