पाक जेल में गुजारे 4 साल, फांसी से बचे तो झेलना पड़ा निर्वासन, कुछ ऐसी थी फैज की कहानी

By अभिनय आकाश | Jan 04, 2020

मोहब्बत, अदावत और बगावत... कहने को तो ये तीन अलग शब्द हैं, जिसके मायने भी अलग हैं। लेकिन एक शायर जब अपने नज्म लिखता था तो वो नज्म महबूबा के लिए लिखा गया, मुल्क के लिए लिखा गया इसका फर्क महसूस ही नहीं होता था। नज़्म आप आशिकी के मूड में पढ़ रहे हों, तो लगेगा कि आप आशिक हो और ये आपके लिए ही लिखा गया है। अगर इंकलाबी नज़र से देखेंगे, तो महसूस होगा कि मैं हूं, मेरा वतन है, मेरी ज़मीन है, जिसके बारे में लिखा गया है। बात इश्क-मोहब्बत की हो या अदावत-बगावत की, जेहन में एक ही शायर का नाम आता है फैज अहमद फैज। बतौर शायर, पत्रकार, सैनिक, सैन्य अफसर, लेखक और न जाने क्या-क्या... 

 

फैज़ की गिनती उन शायरों में होती है, जिन्होंने पाकिस्तान की हुकूमत के खिलाफ हल्ला बोला था, आज की पीढ़ी भले ही उनसे इतना वाकिफ ना हो लेकिन कविता-शायरी के जानने वालों से लेकर सोशल मीडिया की गलियों तक में उनके शेर हमेशा जिंदा रहते हैं। इसी बीच जानिए कि आखिर क्यों मोहब्बत, अदावत और बगावत के इस मशहूर शायर को पाकिस्तान की जेल में 4 साल गुजारने पड़े और फांसी से बचे तो देश से निकाला दे दिया गया। आखिर कौन थे फैज़ अहमद फैज़ और क्यों फैज अहमद फैज की दो पंक्तियां हिन्दू आस्था पर चोट करने वाली नज्म बन गयी। 

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फैज़ अहमद फैज़ का जन्म 13 फरवरी, 1911 में पंजाब के सियालकोट जिले (अब पाकिस्तान में) में हुआ था।  

फैज़ अहमद फैज़ की आरंभिक शिक्षा उर्दू, अरबी तथा फ़ारसी में हुई जिसमें क़ुरआन को कंठस्थ करना भी शामिल था।

1951 में लियाकत अली खान की सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलने और तख्तापलट की साजिश के आरोप में 4 साल जेल में रहना पड़ा।

जेल से वापस आने के बाद फैज़ ने अपना लेखन जारी रखा और इसी बीच उन्हें देश से निकाल दिया गया।

1977 में तत्कालीन आर्मी चीफ जिया उल हक ने पाकिस्तान में तख्ता पलट किया और फैज ने ‘हम देखेंगे' नज़्म लिखी थी।

 

लेकिन आज उसी जाने माने शायर फैज की एक कविता को लेकर आईआईटी कानपुर भारी असमंजस में है। कैंपस में कुछ छात्रों ने नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ फैज की कविता के नारे क्या लगाए उनके खिलाफ जांच शुरू हो गई है। पाकिस्तान की जियाउल हक फौजी हुकूमत के खिलाफ लिखी गई कविता की जांच की जा रही है कि कहीं ये हिंदू विरोधी तो नहीं है। 

 

''लाज़िम है कि हम भी देखेंगे, वो दिन कि जिस का वादा है...जो लौह-ए-अज़ल में लिखा है...रूई की तरह उड़ जाएँगे, हम महकूमों के पाँव-तले...जब धरती धड़-धड़ धड़केगी और अहल-ए-हकम के सर-ऊपर...जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी...जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गिराँ...सब तख़्त गिराए जाएँगे, बस नाम रहेगा अल्लाह का....जो ग़ाएब भी है हाज़िर भी...''

 

इन दो पंक्तियों को लेकर आजकल देश में एक बहस छिड़ गई है। पिछले दिनों ये नारे आईआईटी कानपुर में लगे थे। नारे जामिया के प्रदर्शनकारी छात्रों के समर्थन में लगाए गए थे। ये नारा नागरिकता कानून के विरोध में लगा। अब इसी नारे ने विवाद खड़ा कर दिया है। आईआईटी कानपुर ने एक समिति बना दी है। समिति तय करेगी कि उर्दू के शायर फैज अहमद फैज की कविता लाजिम है कि हम भी देखेंगे हिन्दू विरोधी तो नहीं है। 

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इस मामले पर जावेद अख्तर ने चुप्पी तोड़ी है और मीडिया से बातचीत करते हुए उन्होंने कहा कि फैज अहमद फैज को हिंदू विरोधी कहना बहुत ही बेतुका और अजीब है।

 

फैज अहमद फैज की नज्म, शायरी और गजरों में बगावती सुर दिखते हैं। बंटवारे के बाद जब पाकिस्तान में सियासत उभरने लगी तो शुरुआत से ही आम लोगों पर जुल्म होने लगा, तभी से फैज पाकिस्तान की सत्ता के खिलाफ लिखते रहे। 1951 में पाकिस्तान के रावलपिंडी में पीएम लियाकत अली खां का तख्ता पलटने की साजिश हुई। इस साजिश का भंडाफोड़ हुआ, लोगों की गिरफ्तारियां हुईं, गिरफ्तार लोगों में फैज अहमद फैज़ भी शामिल थे। फैज पर मुकदमा चला उस वक्त पाकिस्तानी मीडिया में चर्चा थी कि फैज को फांसी होगी। फैज के खिलाफ इल्जाम साबित ना हो सके और वो 1955 में रिहा हो गए। जेल में उन्होंने शायरी की और वो शायरी ‘जिंदान नामा’ (कारावास का ब्योरा) के नाम से छपी। फैज अहमद फैज से लियाकत अली खां की सरकार इस कदर नाराज थी कि बरी होने के बावजूद सरकार ने तख्तापलट के लिए कई सालों तक देश निकाला दे दिया। जुल्फिकार अली भुट्टो जब पाकिस्तान के विदेश मंत्री बने तो फैज़ को वापस लाया गया। जुल्फिकार अली भुट्टो की सरकार में उन्हें कई जिम्मेदारियां दी गईं। उन्हें कल्चरल एडवाइज़र बनाया गया। 1977 में तत्कालीन आर्मी चीफ जिया उल हक ने पाकिस्तान में तख्ता पलट किया। जब पाकिस्तान में तख्तापलट हुआ और सेना प्रमुख जियाउल हक ने सत्ता को अपने कब्जे में ले लिया तब फैज़ की कलम से ‘हम देखेंगे’ निकली। फैज अपने जाने के बाद और भी ज्यादा पढ़े गए। 1985 में जब पाकिस्तान के तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल जियाउल हक ने देश में मार्शल लॉ लगा दिया था और इस्लामीकरण के चलते देश में महिलाओं के साड़ी पहनने पर भी पाबंदी थी तब लाहौर के स्टेडियम में एक शाम पाकिस्तान की मशहूर गजल गायिका इकबाल बानो ने 50 हजार लोगों की मौजूदगी में 'हम देखेंगे' नज्म को गाकर इसे अमर कर दिया था।

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समझने वाली बात ये है कि फैज ने ये कविता फौजी हुकूमत के खिलाफ पाकिस्तान के संदर्भ में लिखी थी। जिसमें खुदा और अल्लाह का जिक्र आना भी स्वाभाविक है। जहां तक किसी धर्म के विरोध की बात है। तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। क्योंकि ये कविता पाकिस्तान की सत्ता के खिलाफ लिखी गई है, न कि किसी धर्म के खिलाफ। बहरहाल आईआईटी कानपुर फैज की कविता के पंक्तियां के पेज से मतलब निकालने पर आमादा है। फैकल्टी सदस्यों और कुछ छात्रों की शिकायत पर ऐसा किया जा रहा है। नाराजगी इस बात से है कि जामिया कैंपस में पुलिस कार्रवाई के बाद छात्रों के साथ एकजुटता जाहिर करने के लिए कानपुर के छात्रों ने जुलूस निकाला था। उसी जुलूस में फैज अहमद फैज की कविता गाई गई थी।

 

आईआईटी के कुछ शिक्षक और छात्रों ने इस पर आपत्ति जाहिर की और डायरेक्टर से शिकायत कर दी। आरोपी कि कविता हिन्दू विरोधी है। विवाद बढ़ गया है। लेकिन प्रतिरोध की आवाज़ बन चुके फ़ैज़ जैसे महान शायर से धार्मिक प्रतीकों के संकुचित अर्थों में इस्तेमाल की उम्मीद करना उनके साथ अन्याय होगा।

 

- अभिनय आकाश

 

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