सुनवाई के इंतजार में 4.4 करोड़ केस, यहां तक हम कैसे पहुंचे?

By अभिनय आकाश | Dec 07, 2021

1993 में राजकुमार सन्तोषी द्वारा निर्देशित फिल्म आई थी दामिनी जिसका फेमस डायलॉग ‘तारीख पे तारीख, तारीख पे तारीख अक्सर न्याय से जुड़े मुद्दों के लिए सबसे टॉप फेवरेट डायलॉग में से एक है। ब्रिटिश विचारक जॉन स्टुअर्ट मिल की लाइन Justice delayed is justice denied न्याय के क्षेत्र में प्रयोग किया जाने वाली लोकप्रिय सूक्ति है। इसका भावार्थ यह है कि यदि किसी को न्याय मिल जाता है किन्तु इसमें बहुत अधिक देरी हो गयी हो तो ऐसे 'न्याय' की कोई सार्थकता नहीं होती।  हमारे देश में न्याय मिलने की रफ्तार बहुत सुस्त है। हमारे देश की न्यायपालिका मुकदमों के बोझ तले दबी है। आम आदमी न्याय मिलने की उम्मीद में ऐसी ही मर जाता है। वर्षों तक वो अदालतों के चक्कर लगाता है। लेकिन अक्सर उसे न्याय नहीं मिल पाता। देशभर के न्यायालयों में 15 सितंबर 2021 तक लंबित मामलों की संख्या 4.4 करोड़ से ज्यादा थी। जनवरी 2021 तक 1,05,560 मामले 30 से अधिक वर्षों से अदालतों में लंबित हैं। लेकिन आज भी हिन्दुस्तान में जब कहीं दो लोगों के बीच में झगड़ा होता है, कोई विवाद होता है तो वे एक-दूसरे से कहते हुए पाए जाते हैं- ‘आई विल सी यू इन कोर्ट’। क्योंकि आज भी लोग भरोसा करते हैं न्यायपालिका पर। उनको भरोसा होता है कि अगर सरकार उनकी बात नहीं सुनेगी, प्रशासन उनकी बात नहीं सुनेगा, पुलिस उनकी बात नहीं सुनेगी तो कोर्ट सुनेगी उनकी बात और न्याय देगी। आज जजों पर मुकदमों का भारी बोझ है, न्यायपालिका के खाली पदों को नहीं भरा जा रहा है। नियुक्ति की प्रक्रिया अबूझ वजहों से अटकी हुई है। अगर इंसाफ के पहियों को सुचारू रूप से नहीं घुमाया जाएगा, तो उसकी मार सबसे ज्यादा आम आदमी को झेलनी पड़ेगी। 

पिछले 10 सालों में कहां-कहां मामलों में आई कमी?

पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के मुताबिक 2010 और 2020 के बीच सिर्फ 4 न्यायालयों (इलाहाबाद, कोलकाता, ओडिशा और जम्मू एवं कश्मीर तथा लद्दाख) में बचे हुए मामलों में कमी देखी गई। वहीं इस दौरान उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और बिहार के अधीनस्थ न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या में बढ़ोतरी देखी गई। हालांकि, पश्चिम बंगाल और गुजरात के अधीनस्थ न्यायालयों में लंबित मामलों में गिरावट दर्ज की गई।

10 वर्षों में कहां कितने मामले लंबित?

हाईकोर्ट्स में पिछले 5 वर्ष या उससे समय से लंबित मामलों का आंकड़ा 41 फीसदी है। वहीं अधीनस्थ न्यायालयों में हर 4 में से 1 मामला कम से कम पिछले 5 वर्षों से लटका हुआ है। अधीनस्थ और उच्च न्यायालयों में करीब 45 लाख मामले 10 वर्षों या उससे भी ज्यादा समय से लंबित है। इसमें उच्च न्यायालयों में 21 फीसदी और अधीनस्थ न्यायालयों में 8 फीसदी मामले 10 सालों से ज्यादा समय से लंबित हैं।

यहां तक पहुंचे कैसे?  

पेंडिंग केसों की संख्या और अदालती अवकाश: कोई सा भी रविवार या सोमवार का दिन हो यदि आप अखबार खोलते हैं या अपने सेलफोन पर न्यूजफीड को चेक करते हैं तो पाएंगे कि हमारे सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट के जज किसी सम्मान समारोह या वर्षगांठ समारोह में मुख्य वक्ता के रूप में मौजूद रहते हैं और उन्होंने गंभीर राष्ट्रीय महत्व के कुछ मामलों पर कुछ शब्द कहे हैं। यह अब हमारे माननीय न्यायाधीशों के लिए सप्ताहांत की रस्म बन गई है। हमारे माननीय न्यायाधीश स्पष्ट रूप से अपने खाली समय का सदुपयोग देश की समस्याओं पर विचार करने के लिए कर रहे हैं और देश उन्हें पर्याप्त खाली समय देता है। वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय में एक वर्ष में 193 कार्य दिवस, उच्च न्यायालय में 210 दिन और निचली अदालतों में 245 दिन होते हैं। सुप्रीम कोर्ट के वार्षिक कैलेंडर में पांच छुट्टियां हैं- 45 दिनों का ग्रीष्म अवकाश, 15 दिनों का शीतकालीन अवकाश और एक सप्ताह का होली अवकाश। यह दशहरा और दीवाली के लिए पांच-पांच दिनों के लिए बंद रहता है। सुप्रीम कोर्ट में लगभग 73,000 मामले लंबित हैं और भारत की सभी अदालतों में लगभग 44 मिलियन यानी साढ़े चार करोड़ के करीब मामले लंबित हैं, जो पिछले वर्ष से 19% अधिक है। 2018 के नीति आयोग के रणनीति पत्र के अनुसार, हमारी अदालतों में मामलों के निपटान की तत्कालीन प्रचलित दर पर, बैकलॉग को साफ करने में 324 साल से अधिक समय लग जाएंगे। इसमें गौर करने वाली बात ये है कि 2018 के वक्त पेंडिंग केसों की संख्या 3 करोड़ के करीब थी। दिसंबर 2018 में 30 से अधिक वर्षों से अदालतों में चल रहे मामलों की संख्या 65,695 थी। इस साल जनवरी तक, यह 60% से अधिक बढ़कर 1,05,560 हो गया था।

 न्यायाधीशों की रिक्तियां: कोर्ट्स में जजों की कमी के कारण लंबित मामलों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है। 1 सितंबर 2021 तक सुप्रीम कोर्ट में 34 जजों की संख्या में 1 पद खाली था। वहीं, हाईकोर्ट्स में जजों के कुल स्वीकृत पदों में से 42 फीसदी पद खाली थे, यानी 1098 में से 465 पद रिक्त थे। इसमें तेलंगाना, पटना, राजस्थान, ओडिशा और दिल्ली में 50 फीसदी से ज्यादा पद खाली थे. वहीं, मेघालय और मणिपुर हाई कोर्ट में कोई पद खाली नहीं था। अधीनस्थ न्यायालयों की बात करें तो 20 फरवरी 2020 तक 21 फीसदी पद खाली थे। यानी 24018 में से 5146 पद रिक्त थे. जजों की कमी की वजह से फास्ट ट्रैक कोर्ट और फैमिली कोर्ट्स (ट्रिब्यूनल्स और स्पेशल कोर्ट) को गठित किया गया लेकिन यहां भी लंबित मामलों की संख्या काफी अधिक है। यही नहीं यहां खाली पदों की संख्या भी काफी ज्यादा है. 2020 के अंत तक इन न्यायालयों में 21 हजार से ज्यादा मामले लंबित थे। वहीं ट्रिब्यूनल्स में 63 में से 39 सदस्य थे और बाकी पद खाली थे।

48 मिलियन शीट का उपयोग: द क्विंट की रिपोर्ट के अनुसार सुप्रीम कोर्ट जिसके न्यायाधीश प्रदूषण और वनों की कटाई के बारे में गहराई से चिंतित दिखाई देते हैं वहीं भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष 60,000 से अधिक मामले प्रस्तुत किए जाते हैं। प्रत्येक मामले में प्रत्येक दस्तावेज़ को एक विशिष्ट प्रारूप में दायर किया जाना है। उदाहरण के लिए, प्रत्येक दस्तावेज़ को केवल 13-14 फ़ॉन्ट आकार में टाइप किया जा सकता है। उनके पास 3cm मार्जिन भी होना चाहिए और डबल-स्पेस होना चाहिए। हर साल A4 आकार के कागज की कम से कम 48 मिलियन शीट का उपयोग किया जाता है। 2020 में इसमें थोड़ा बदलाव करते हुए सुप्रीम कोर्ट में स्टैंडर्ड ए4 साइज पेपर के दोनों साइड प्रिंट लेने का सर्कुलर जारी किया गया। हमारे न्यायाधीश स्वयं का चयन करते हैं और उनकी पसंद बाध्यकारी होती है - न तो विधायिका और न ही कार्यपालिका इसके बारे में कुछ कर सकती है। 

अंकल जजों से कैसे मिले छुटकारा: पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के 47 न्यायाधीशों में से कम से कम 16 (34%) के रिश्तेदार एक ही स्थान पर प्रैक्टिस कर रहे हैं। या तो इन रिश्तेदारों के पास निजी प्रैक्टिस है या पंजाब और हरियाणा सरकारों ने उन्हें संबंधित महाधिवक्ता कार्यालयों में समायोजित किया है। अंकल जजों के बारे में बीबीसी से बात करते हुए वरिष्ठ वकील शांति भूषण ने कहा था कि जब जजों के बहुत से बेटे या फिर रिश्तेदार उसकी अदालत में प्रैक्टिस कर रहे होते हैं तो जज एक दूसरे के रिश्तेदारों के पक्ष में फ़ैसले देकर एक दूसरे की मदद करते हैं।

 SC के 33 में से 1 ओबीसी और एक SC जज

सुप्रीम कोर्ट ने नवंबर 2019 में कर्नाटक सरकार के 2018 के उस कानून को बरकरार रखा जिसमें अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के कर्मचारियों को पदोन्नति एवं वरिष्ठता क्रम में आरक्षण की व्यवस्था की गई है। जस्टिस यूयू ललित और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की पीठ ने कहा कि यह नहीं कहा जा सकता कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्गों से पदोन्नति पाने वाले सक्षम नहीं हैं या उनकी नियुक्ति से दक्षता कम हो जाएगी क्योंकि यह रुढ़िवादी संकल्पना है। माननीय न्यायाधीशों ने समझाया: "एक 'मेधावी' उम्मीदवार न केवल 'प्रतिभाशाली' या 'सफल' है, बल्कि वह भी है जिसकी नियुक्ति अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के उत्थान के संवैधानिक लक्ष्यों को पूरा करती है। लेकिन भारत में सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के पदों के लिए अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए कोई आरक्षण नहीं है। वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय के 33 न्यायाधीशों में से केवल एक एससी और एक ओबीसी न्यायाधीश हैं। 

न्याय तक पहुंच कैसे संभव है: वरिष्ठ वकील हरीश साल्वे ने एक टीवी साक्षात्कार में न्याय तक आम आदमी की पहुंच के बारे में बात करते हुए कई गंभीर मसले चिन्हित किए। उन्होंने कहा कि एक्सेस टू जस्टिस भारत में ये गलती नहीं है कि बड़े आदमी को बेल मिलती है, गलती ये है कि छोटे आदमी को  बेल नहीं मिलती है। इसका समाधान ये है कि एक्सेस टू जस्टिस के बजट को बढ़ाया जाए। यूके का एक्सेस टू जस्टिस का बजट मिलियन ऑफ पाउंड वकीलों को फ्री में अपीयर होने के लिए दिए जाते हैं। एक आदमी जिसने चोरी की उसे तीन साल जेल में किसने छोड़ दिया। क्यों उसे लीगल सर्विस नहीं मिली। उसे कैसे ठीक किया जा सकता है। अगर आर्यन खान या किसी अन्य पैसे वालों को बेल जल्दी मिल जाने से उस गरीब को शांति नहीं मिलेगी जो चोरी की वजह से सालों जेल में है। उसे शांति तब मिलेगी जब सरकार ने उसके लिए अच्छा वकील किया हो, जो केस पढ़कर कसकर आकर बहस करे। रूल ऑफ लॉ की अगर बात करें अगर आपका जस्टिस सिस्टम गड़बड़ है तो पहले उसे ठीक किए जाने की जरूरत है। लीगल एड के लिए 100-200 करोड़ का  बजट चाहिए। हम कहते हैं ट्रिलियन डॉलर इकोनॉम हो गया तो 20-30 मिलियन डॉलर नहीं है हमारे पास। अगर नहीं है तो सिगरेट और बीड़ी पर .1 प्रतिशत जस्टिस सेस लगा दो। हजार करोड़ साल का आ जाएगा। विज्ञापन निकलती है उस पर आधे से ज्यादा लोग प्रतिक्रिया नहीं देते क्योंकि सैलरी इतनी कम हो गई है। बहुत कम जज हैं जो ये सोचते हैं कि चलो हमें देश के लिए कुछ करना है। सभी महात्मा गांधी की माइंड सेट वाले नहीं होते हैं। एक जज कम से कम एक अच्छे घर में रह सके। अच्छी मीडिल क्लास लाइफ जी सके उतना तो मिलना चाहिए। जब तक एडमिनिस्ट्रेशन ऑफ जस्टिस इलेक्ट्रोरल प्रायोरिटी नहीं बन जाता तब तक सरकार में इलेक्शन लड़ता है उन्हें ये नहीं लगेगा कि हमें जजों की जस्टिस डिलीवरी की इमप्रूवमेंट नहीं की तो हम चुनाव हारेंगे। 

बहरहाल, न्यायिक सुधारों की कुंजी आगे बढ़कर पहल करने में है। आधुनिक तरीकों और टेक्नोलॉजी को लाकर देरी की समस्या से बड़ी हद तक निजात पाई जा सकती है। सेवा से लेकर सम्मन तक और जमानत तक, न्याय प्रणाली में हर काम हाथ से किया जाता है। क्यों और कैसे पर बरसों बहसें चलती रहेंगी।

-अभिनय आकाश

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