By डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा | Feb 03, 2020
सवाल सीधा-सा है कि वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा बजट में खेती किसानी के लिए घोषित 16 सूत्री कार्ययोजना 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करने में कहां तक सफल हो पाएगी? हालांकि इसमें कोई दो राय नहीं कि सरकार ने कृषि के साथ ही किसानों की अतिरिक्त आय के लिए सह गतिविधियों पर भी खास ध्यान दिया है। इसमें पशुपालन है तो मछली पालन भी है। मधु मक्खी पालन की भी नई तकनीक की बात की गई है। बागवानी को लेकर भी योजना है तो बंजर भूमि पर सोलर प्लांटेशन के माध्यम से अतिरिक्त आय का रास्ता खुला है। शीघ्र खराब होने वाली कृषि उत्पादों के परिवहन के लिए वातानुकूलित रेल चलाने व वायु सेवा का भी प्रस्ताव है। भण्डारण सुविधा विस्तार की बात भी है तो 100 जिलों में पानी के लिए भी प्रस्ताव है। दूध उत्पादन दो गुना करने की घोषणा है तो उसके प्रसंस्करण की भी कार्ययोजना है। कुसुम योजना से और अधिक किसानों को जोड़ने के साथ ही ग्रिड से सोलर पंप सुविधा की भी बात है। वन प्रोडक्ट−वन डिस्ट्रि्क्ट का प्रस्ताव भी है तो ऋण सुविधा में भी 3 लाख करोड़ का अधिक प्रावधान कर 15 लाख करोड़ के कृषि ऋण उपलब्ध कराने का उल्लेख है। मत्स्य पालन को बढ़ावा देने के लिए सागर मित्र योजना भी नए बजट में लाई गई है। उर्वरकों के संतुलित उपयोग की बात है तो जीरो बजट क्रापिंग का संदेश भी है।
केन्द्रीय वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने नए वित्तीय वर्ष का बजट पेश करते हुए कृषि और ग्रामीण क्षेत्र के लिए 16 सूत्री कार्य योजना की घोषणा की है। अब तक का सबसे लंबा बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री ने 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करने की प्रतिबद्धता को दोहराया है तो 16 सूत्री कार्य योजना में खेती−किसानी और ग्रामीण विकास से जुड़े सभी बिन्दुओं का समावेश किया है। इस बजट में एक बात और साफ हो गई है कि गांवों में मांग बढ़ाना जरूरी है और इसी को ध्यान में रखते हुए ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बूस्ट करने के संकेत दिखाई दे रहे हैं। इस बजट में कृषि और ग्रामीण विकास के लिए 2.83 लाख करोड़ का प्रावधान किया गया है जिसमें से 1.60 लाख करोड़ कृषि और इससे जुड़े क्षेत्रों पर और 1.23 लाख करोड़ ग्रामीण विकास व पंचायती राज पर व्यय होगा। कृषि और ग्रामीण विकास प्राथमिकता होने के बावजूद कुल बजट की तुलना में देखा जाए तो इस क्षेत्र को दस फीसदी से भी कुछ कम ही आवंटन हुआ है। मोटे रूप से देखा जाए तो इस बजट में खाका तो पूरा खींचा गया है पर कुछ प्रश्न ऐसे हैं जो जवाब मांगते लगते हैं।
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दरअसल पिछले कुछ सालों से सत्ता की होड़ में ऋण माफी का जो सिलसिला चला है उससे कृषि साख व्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई है। दरअसल किसानों की समस्या के मूल में जाने की आवश्यकता लंबे समय से महसूस की जा रही है। चालू वित्तीय वर्ष के पीएम किसान सम्मान निधि के परिणाम सामने हैं। एक चौथाई किसान भी इस योजना में तीसरी किस्त नहीं ले पाए हैं तो फसल बीमा योजना को लेकर भी ज्यादा आशा नहीं की जा सकती। ऐसे में किसानों की समस्या जस की तस ही नजर आ रही है। राजस्थान में टिडि्डयों ने जिस तरह से फसल को तबाह करके रख दिया उसके समुचित मुआवजे के लिए किसान सरकार की ओर देख रहे हैं। इसी तरह से अन्य प्रदेशों में फसल खराब को लेकर बात हो सकती है। किसानों के आर्थिक हालात को सुधारने के लिए केवल दो बिन्दुओं को केन्द्र में रखकर ही आगे बढ़ा जाए तो परिस्थितियों में काफी बदलाव देखा जा सकता है। पहली और सबसे महत्वपूण आवश्यकता है कृषि लागत को कम करना। इसके लिए ठोस प्रयास किए जाने जरूरी है। हालांकि खेती के लिए कुसुम योजना और सोलर पंपों की बात की गई है पर उर्वरक सब्सिडी में कटौती दूसरी बात हो गई। इससे उर्वरकों के दामों में बढ़ोतरी की संभावना रहेगी और इससे लागत बढ़ेगी ही। हालांकि सरकार जीरो बजट खेती की बात कर रही है पर अभी तक इसकी ठोस कार्ययोजना सामने नहीं आ पा रही है। इसी तरह से किसानों को खेती के लिए बिजली, डीजल आदि की लागत को कम करने की आवश्यकता है तो बीज और कीटनाशकों पर भी ध्यान देना जरूरी हो जाता है। यह सभी कृषि लागत को प्रभावित करते हैं। इस ओर ध्यान दिया जाना सबसे आवश्यक है। इसका सबसे आसान उपाय यह हो सकता है कि सरकार जो किसानों को अनुदानित ब्याज दर पर ऋण देती है या ऋण माफी की बात करती है उसको एक हद तक सीमित करते हुए किसानों को इनपुट अनुदान के रूप में वितरित किए जाने चाहिए ताकि इस अनुदान राशि का उपयोग खेती के लिए ही होगा और सीधे-सीधे यह उत्पादक कार्य होगा।
दूसरा और एक और महत्वपूर्ण मुद्दा फसल तैयार होने के बाद उसका लाभकारी मूल्य मिलना तय किया जाना जरूरी है। हालांकि कृषि उपज की खरीद व्यवस्था में सुधार हुआ है। राजस्थान में ऑनलाईन रजिस्ट्रेशन के आधार पर एमएसपी पर खरीद होने लगी है। पर सही मायने में इस दिशा में अभी और काम किए जाने की आवश्यकता है। एक समय यह माना जाता था कि अनुमानित उत्पादन लक्ष्य की दस प्रतिशत सरकारी खरीद के आसपास होते ही बाजार में किसानों को लाभकारी मूल्य मिलने लगता था पर आज स्थितियां बदल गई हैं और खरीद व्यवस्था का बाजारी शक्तियों पर कोई असर नहीं पड़ रहा है। लगता है जैसे पारदर्शी व्यवस्था होते हुए भी इसमें बाजारू ताकतों ने सेंध लगाकर किसानों के हितों को भांजी मार दी है। सौ टके की बात यही हो सकती है कि कृषि लागत को युक्तिसंगत कर और कृषि उपज की लागत से डेढ़ गुणा तक मूल्य काश्तकार को मिल जाए तो समस्या कुछ हद तक हल हो सकती है। आशा की जानी चाहिए कि इस दिशा में ठोस प्रयास होंगे और कर्ज माफी और इसी तरह की अन्य समस्याओं से सरकार को दो चार नहीं होना पड़ेगा।
-डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा