इसलिए शंकरजी ने हनुमानजी का अवतार लेकर कर श्रीराम की मदद की
साक्षात् नारायण ने जब नर रूप धारण कर श्रीराम के नाम से अवतार ग्रहण किया तो शंकर जी शिव रूप में नर रूप की कैसे आराधना कर सकते थे? अतः उन्होंने नरावतार भगवान श्रीराम की उपासना की तीव्र लालसा को फलीभूत करने के लिए हनुमानजी का रूप लिया।
श्रीहनुमानजी रुद्र−शंकर के अवतार हैं। शंकर जी ने वानर रूप क्यों धारण किया इसके अनेक मनोरम वृत्तान्त वेद आदि शास्त्रों तथा रामायण आदि में प्राप्त होते हैं। एक वृत्तान्त में यह कहा गया है कि भगवान श्रीराम बाल्य काल से ही सदाशिव की आराधना करते हैं और भगवान शिव भी श्रीराम को अपना परम उपास्य तथा इष्ट देवता मानते हैं। किंतु साक्षात् नारायण ने जब नर रूप धारण कर श्रीराम के नाम से अवतार ग्रहण किया तो शंकर जी शिव रूप में नर रूप की कैसे आराधना कर सकते थे? अतः उन्होंने नरावतार भगवान श्रीराम की उपासना की तीव्र लालसा को फलीभूत करने के लिए वानरावतार धारण कर उनकी नित्य परिचर्या का निष्कंटक मांग ढूंढ़ निकाला और वे एक दूसरा प्रेम मय विशुद्ध सेवक का रूप धारण कर उनकी सेवा करने के लिए अंजना के गर्भ से प्रकट हो गये।
दोहावली में मिलता है उल्लेख
श्रीगोस्वामी तुलसीदासजी ने इस रहस्य को दोहावली तथा विनयपत्रिका में प्रकट किया है। वे कहते हैं कि श्रीराम की उपासना से बढ़कर सरस प्रेम का और कोई भी कार्य नहीं हो सकता। उनकी उपासना का प्रतिफल देना परम आवश्यक है, मानो यही सब विचारकर भगवान शंकर ने अपना रुद्रविग्रह परित्याग कर सामान्य वानर का रूप धारण कर लिया और उनके सारे असंभव कार्यों जैसे− समुद्र पार कर सीता का पता लगाना, लंकापुरी का दाह करना, संजीवनी बूटी लाकर लक्ष्मण को प्राणदान करना और महाबली अजेय दुष्ट राक्षसों का वध करना आदि कार्य इन्हीं के शौर्य या पराक्रम की बात थी, इसे कोई दूसरे देवता या दानव आदि नहीं कर सकते थे।
शंकर और हनुमानजी के हर जगह मिलते हैं मंदिर
इसीलिए गांव−गांव, नगर−नगर तथा प्रायः सभी तीर्थों में जैसे भगवान शिव के मंदिर, शिवलिंग और प्रतिमाएं प्राप्त होती हैं और उनकी व्यापक उपासना देखी जाती है, उसी प्रकार सर्वत्र हनुमानजी के मंदिर देखे जाते हैं। राम मंदिरों में तो वह प्रायः सर्वत्र मिलते ही हैं। स्वतंत्र रूप से भी उनके अलग−अलग जहां−तहां मंदिर मिलते हैं और घर−घर में हनुमान चालीसा का पाठ होता है तथा इनकी उपासना होती है। इसके अतिरिक्त प्राचीन काल से ही हनुमानजी की उपासना के अनेक स्तोत्र, पटल, पद्धतियां, शतनाम तथा सहस्त्रनाम प्रचलित हैं।
हनुमानजी की सबसे बड़ी विशेषता है कि वे अपने भक्त की रक्षा तथा उसके सर्वाभ्युदय के लिए सदा जागरूक रहते हैं। इसीलिये वे जाग्रत देवता के रूप में प्रसिद्ध हैं। वे सभी के उपास्य हैं। वे ब्रह्मचर्य की साक्षात् प्रतिमूर्ति हैं। उनके ध्यान करने एवं ब्रह्मचर्यानुष्ठान से निर्मल अंतःकरण में भक्ति का समुदय भलीभांति हो जाता है। वे राम भक्तों के परमाधार, रक्षक और श्रीराममिलन के अग्रदूत हैं।
स्मरण मात्र से ही होता है लाभ
श्रीहनुमानजी के स्मरण से मनुष्य में बुद्धि, बल, यश, धैर्य, निर्भयता, नीरोगता, विवेक और वाक्पटुता आदि गुण स्वभाव से ही आ जाते हैं और प्रभु चरणों में उसकी अखण्ड अविचल भक्ति स्थिर हो जाती है, इससे उसका सर्वथा कल्याण हो जाता है। श्रीरामभक्त हनुमान जी का सदा स्मरण करना चाहिए। श्रीहनुमानजी भगवान श्रीसीतारामजी के परम भक्त हैं। भक्त को हृदय में बसा लिया जाए तो भगवान स्वतः हृदय में विराजते हैं। कारण, भक्त के हृदय में भगवान स्वाभाविक ही रहते हैं। इसलिए गोस्वामीजी ने भी भक्तराज हनुमानजी से यही प्रार्थना की−
पवनतनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप।।
-शुभा दुबे
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