राहुल गांधी को राजनीति के कुछ सबक सीखने होंगे
हर जगह कांग्रेस अपने मजबूत सहयोगियों के बूते सीटें जीतने में कामयाब रही है। ओडिशा में कांग्रेस का वजूद खत्म हो चुका है। एक वक्त में पूर्वोत्तर के राज्यों में कांग्रेस का दबदबा था, लेकिन अब वहां भाजपा छाई हुई है।
कांग्रेस की उलटी गिनती का क्रम रूकने का नाम नहीं ले रहे हैं। महाराष्ट्र के नतीजे इसी बात को रेखांकित कर रहे हैं। राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस न तो भारतीय जनता पार्टी को टक्कर दे पा रही है और न ही देशहित के प्रभावी मुद्दे उठा पा रही है। देश में कॉर्पोरेट विरोधी जो एकसूत्री एजेंडा राहुल ने अपनाया है, या संविधान-रक्षा एवं धर्म-निरपेक्षता के नाम पर एक सम्प्रदाय-विशेष की जो राजनीति वह कर रहे हैं, उसके सकारात्मक परिणाम नहीं आ रहे हैं, उनके इन मुद्दों के पक्ष में वोट नहीं मिले हैं। निश्चित ही राष्ट्रीय राजनीति में अगर कोई एक चीज है, जो नहीं बदली है, तो वह है भाजपा को मात देने में कांग्रेस की अक्षमता। भाजपा से सीधी टक्कर में कांग्रेस की हार का औसत प्रतिशत बढ़ता ही जा रहे हैं। अब तो कांग्रेस के मुद्दों से इंडिया गठबंधन के सहयोग दल ही कांग्रेस से दूरी बना रहे हैं। भाजपा जब कांग्रेस से मुकाबले में होती है तब उसका प्रदर्शन सबसे अच्छा रहता है। जबकि क्षेत्रीय नेताओं के मुकाबले राहुल का जादू फीका पड़ता है। इसके उदाहरण हैं झारखंड के हेमंत सोरेन और बंगाल की ममता बनर्जी जिन्होंने उपचुनाव में सारी सीटें जीत ली। कांग्रेस के लिये जटिल से जटिलतर होते हालातों में केरल के वायनाड में प्रियंका गांधी वाड्रा की 4.1 लाख से अधिक वोटों के अंतर से हुई भारी जीत कांग्रेस पार्टी के लिये एक उत्साहजनक संदेश हो सकता है। निश्चित रूप से प्रियंका के राजनीतिक जीवन और कांग्रेस पार्टी के लिये यह एक महत्वपूर्ण क्षण है, लेकिन राहुल गांधी के नेतृत्व पर लगा अक्षमता एवं अपरिपक्व राजनीति का दाग इससे कैसे कम हो सकता है?
राहुल गांधी संसद के बाहर और भीतर दोनों जगह, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा पर पूरी तरह हमलावर रहते हैं, वे गैर-जरूरी मुद्दों को लेकर अक्सर संसद की कार्रवाई को बाधित करते हैं। अडाणी एवं कॉर्पोरेट विरोधी उनका एजेंडा देश की अर्थ-व्यवस्था के लिये कितना नुकसानदायी साबित होता रहा है, देश की जनता ने इसे महसूस किया है। राहुल दस साल से यह गलती कर रहे हैं और उनकी पार्टी इसकी कीमत चुका रही है। कांग्रेस और विशेष रूप से उसके नेता राहुल गांधी न जाने कब से अदाणी समूह को कोस रहे हैं। एक अमेरिकी अदालत के फैसले के बाद वह हाथ धोकर इस समूह के पीछे पड़ गए हैं, लेकिन शायद वह यह देखने से इन्कार कर रहे हैं कि इंडिया गठबंधन के सभी घटक दल कांग्रेस के इस रवैये से सहमत नहीं है। विभिन्न राज्यों में जहां-जहां इंडिया गठबंधन दलों की सरकारें हैं, वे ऐसे मुद्दों से दूरी बनाना चाहते हैं।
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ममता बनर्जी ने जिस तरह यह कहा कि उनका दल कांग्रेस की ओर से उठाए गए किसी एक मुद्दे को प्राथमिकता नहीं देगा, उससे यही संकेत मिला कि वह नहीं चाहतीं कि अदाणी मामले को तूल दिया जाए। कांग्रेस को इसकी भी अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि गत दिवस ही माकपा के नेतृत्व वाली केरल सरकार ने बंदरगाह के विकास के लिए अदाणी समूह के साथ एक पूरक समझौते को अंतिम रूप दिया। साफ है कि माकपा भी अदाणी मामले में कांग्रेस के रुख से सहमत नहीं। तेलंगाना सरकार ने अदाणी समूह के साथ एक समझौता कर रखा है और अतीत में राजस्थान की कांग्रेस सरकार ने भी राज्य में इस समूह के निवेश को हरी झंडी दी थी। आखिर राहुल गांधी इन स्थितियों को क्यों नहीं समझ एवं देख रहे हैं? यदि राहुल गांधी को यह लगता है कि अदाणी समूह दागदार है तो वह अपनी सरकारों को उससे कोई नाता न रखने के लिए क्यों नहीं कह पा रहे हैं? यह समझना भी कठिन है कि कांग्रेस अमेरिकी अदालत के आकलन को अंतिम सत्य की तरह क्यों ले रही है और वह भी तब, जब उसने रिश्वत के कथित लेन-देन के कोई प्रमाण नहीं पेश किए हैं?
नेशनल हेराल्ड मामले में जमानत पर चल रहे राहुल गांधी अपनी इस आक्रामकता से हासिल क्या करना चाहते हैं। विडम्बना देखिये कि संयुक्त अरब अमीरात, तंजानिया और श्रीलंका जैसे देश अदाणी समूह पर अमेरिकी अदालत की टिप्पणी को महत्व नहीं दे रहे हैं, लेकिन भारत में कांग्रेस के नेता और कुछ अन्य लोग उसे बिनी किसी जांच-पड़ताल दंडित करने को उतावले हैं। यह उतावलापन इसलिए भी ठीक नहीं, क्योंकि निवेशक अदाणी समूह पर भरोसा जता रहे हैं और इसी कारण उसके शेयरों में तथाकथित अमेरीकी कार्रवाई से भारी गिरावट के बाद पुनः तेजी देखने को मिल रही है। लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष की भूमिका में राहुल गांधी जिस तरह की बातें कह एवं कर रहे हैं, निश्चित ही यह उनकी राजनीतिक अपरिपक्वता को ही दर्शा रहा है, वे लगातार विभाजनकारी राजनीति को प्रोत्साहन देते हुए भूल जाते हैं कि उनके ऊपर देश को तोड़ने नहीं, जोड़ने की जिम्मेदारी है। प्रश्न है कि कब राहुल गांधी इस महत्वपूर्ण एवं जिम्मेदारी वाले पद पर रहते हुए उसके साथ न्याय करेंगे? वे जानते नहीं कि वे क्या कह रहे हैं। उससे क्या नफा-नुकसान हो रहा है या हो सकता है।
हर जगह कांग्रेस अपने मजबूत सहयोगियों के बूते सीटें जीतने में कामयाब रही है। ओडिशा में कांग्रेस का वजूद खत्म हो चुका है। एक वक्त में पूर्वोत्तर के राज्यों में कांग्रेस का दबदबा था, लेकिन अब वहां भाजपा छाई हुई है। जबकि इन राज्यों की डेमोग्राफी कांग्रेस के पक्ष में हैं, लेकिन सरकारें भाजपा की है। कांग्रेस मुद्दे नहीं तय कर पा रही है। बीजेपी हर राज्य के हिसाब से मुद्दे तय करती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हर सीट के हिसाब के मुद्दों के हिसाब से बोलते हैं। वहां के इतिहास, भूगोल, राजनीतिक परिस्थितियां सबको ध्यान में रख कर बोलते हैं। लेकिन कांग्रेस इसके हिसाब से मुद्दे और रणनीति तय नहीं कर पाती। बड़ा सवाल ये है कि लोकसभा चुनाव के नतीजों से उत्साहित दिख रही कांग्रेस इसके बाद एक भी राज्य का चुनाव क्यों नहीं जीत पाई। आखिर उसकी रणनीति में कहां खामी है और वो बार-बार कहां चूक रही है?
लगभग जीत के मुहाने पर खड़ी कांग्रेस को हरियाणा में हार का सामना करना पड़ा। कांग्रेस के साथ यही किस्सा अब राजनीतिक तौर पर देश के दूसरे बड़े अहम राज्य महाराष्ट्र में भी दोहराया गया। झारखंड में पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा की अगुआई वाले गठबंधन में शामिल थी और वो 2019 में जीती 16 सीटों में एक भी सीट का इजाफा नहीं कर पाई। इससे पहले, जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस बुरी तरह नाकाम रही। कांग्रेस 90 में से छह सीटें ही जीत पाईं और नेशनल कॉन्फ्रेंस की जूनियर पार्टनर बन कर किसी तरह अपनी नाक बचा पाई। भाजपा ने महाराष्ट्र में हिंदू मतदाताओं के रुझान का ख्याल रखा। इसी के हिसाब से नारे गढ़े। लाडकी बहिन जैसी लाभार्थी योजना, आरक्षण के सवालों और महाराष्ट्र के किसानों के मुद्दों के इर्द-गिर्द अपनी रणनीति बनाई। लेकिन राहुल गांधी ऐसे चुनावी मुद्दों को गढ़ने में क्यों असफल रहे? आखिर कांग्रेस एवं उसके नेता राहुल गांधी इन स्थितियों पर गंभीर मंथन क्यों नहीं करते?
नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने मुस्लिम तुष्टीकरण का राग अलापते हुए देश में मुस्लिमों का तो पक्ष लेते हैं लेकिन बांग्लादेश एवं पाकिस्तान में हिन्दुओं पर हो अत्याचारों पर मौन साध लेते हैं। उससे यदि कुछ स्पष्ट है तो यही कि वह समाज को बांटने वाली विभाजनकारी राजनीति पर अड़े हैं। राहुल गांधी बेतुकी आक्रामकता से उपरत क्यों नहीं हो रहे हैं? वे सदन के भीतर एवं सदन के बाहर ऐसी ही तर्कहीन बातों एवं बयानों से अराजक माहौल बना रहे हैं। आखिर वह जो कुछ मोदी सरकार से चाह रहे हैं, उसे कांग्रेस संगठन और साथ ही अपने दल द्वारा शासित राज्य सरकारों में क्यों लागू नहीं कर रहे हैं? क्या मोदी सरकार ने उन्हें ऐसा करने से रोक रखा है? लोकसभा की कार्रवाई कांग्रेसी एवं विपक्षी सांसदों के वाक आउट, हंगामे, अनर्गल बहस की भेंट चढ़ रही है। विपक्षी दल अपनी सार्थक भूमिका का निवर्हन करने की बजाय लगातार सत्तापक्ष को घेरने एवं आरोप-प्रत्यारोप की घटिया राजनीति में लगा है। देश भी इन त्रासद घटनाओं से कुछ हासिल नहीं कर पा रहा है।
- ललित गर्ग
लेखक, पत्रकार, स्तंभकार
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