हाय! क्यूं हम गए विदेश (व्यंग्य)
गर्मी का मौसम ऊपर से पानी की कमी, क्या क्या करें, अब तो अनचाही बरसात भी। सामने बैठे साहब कहेंगे, विदेश दूसरे जाते हैं और परेशानी हमारे लिए हो जाती है। वहां खड़े खड़े लगेगा, आखिरी बार विदेश हो आए।
आजकल जो अपने देसी बंदे विदेश में हैं, देश लौटने की बात सोचकर मोटे हुए जा रहे हैं। देशसेवा के माध्यम से टिकट मिलने की स्कीम में नाम भी नहीं आ रहा। टिकट इतना महंगा है कि वापिस पहुंचने पर अपने देश में होने वाले संभावित व्यवहार से दिल, दिमाग और कपड़े क्या दोनों मोबाइल भी घबरा रहे हैं। डर लग रहा है कहीं चीन के सामान का बायकाट करने के उपलक्ष्य में उनके दोनों महंगे, ‘मेड इन चाइना’ मोबाइल कबाड़ में न फेंक दें। वहां पहुंचकर जब प्रक्रियात्मक देर लग रही होगी उधर पेट में भूख कूद रही होगी तो गुज़ारिश करनी होगी कि हजारों किलोमीटर दूर से वापिस देश लौटे हैं कृपया ज़ल्दी फारिग करने का सहयोग करें तो जवाब मिलेगा, शांत रहें आजकल हम पूरा प्रोटोकोल फॉलो कर रहे हैं। इशारों में समझा दिया जाएगा कि हमने तो नहीं कहा था कि विदेश जाओ, अपने देश में कम जगहें हैं क्या घूमने के लिए। वो अलग बात है कि उनका रखरखाव नहीं हो पाता है। लाइन में खड़े खड़े मुंह स्वयं बडबडाने लगेगा, बुक की हुई फ्लाइट कैंसल हुई, कितनी मुश्किल से पैसे वापिस मिले फिर कितनी महंगी टिकट खरीद कर वापिस आए अब यहां घंटों खड़े रहो।
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नियम और शर्तें ज़रूरी होते हैं लेकिन नियंत्रण अगर कुछ सरल और शीघ्र कर दो तो कुछ गलत तो नहीं होगा। कहीं न कहीं लगने लगेगा कि हम भी कोई छोटे मोटे आदमी नहीं है माना कि पी डब्ल्यू डी में काम नहीं करते। नम्बर आएगा तो गुज़ारिश होगी, बेहतर सुविधाओं वाले क्वार्नटीन सेंटर में भेजें तो अनुशासन कहेगा कोरोना ने हमें बराबरी का सन्देश दिया है इसलिए कोई ऊँचनीच नहीं कर रहे। जहां भी जगह मिले संयम से रहिएगा, तब हमें एहसास हो जाएगा कि अब अपने देश लौट आए हैं।
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उन्हें प्लीज़ कहा जाएगा तो वे समझाएंगे कि उनके बारे में सोचो जो भूखे प्यासे सड़कों पर बिलखते लाशों में बदल गए। हमेशा नीचे देखकर चलना चाहिए, आप लोग विदेश जाकर बिगड़ जाते हो और यहां आकर वहां जैसा चाहते हो। डर लग रहा होगा, क्यूंकि कोई कह रहा होगा कि उसके बैग से सामान निकाल लिया, पासपोर्ट रखकर कहा चौदह दिन आराम से काट लो फिर वापिस देंगे, एक ही एम्बुलेंस में कोरोना ग्रस्त और दूसरे मरीज़ ले जाए जा सकते हैं। एम्बुलेंस कम हैं शायद इसलिए सभी को बराबर मानने की स्कीम के अंतर्गत यह किया जा रहा होगा । इतने बंदों के लिए धुले हुए तकिए, चादरें लाना मुश्किल काम है। गर्मी का मौसम ऊपर से पानी की कमी, क्या क्या करें, अब तो अनचाही बरसात भी। सामने बैठे साहब कहेंगे, विदेश दूसरे जाते हैं और परेशानी हमारे लिए हो जाती है। वहां खड़े खड़े लगेगा, आखिरी बार विदेश हो आए। अब परिस्थितियां ऐसी हो गई हैं कि एक बार मकान में पहुंच गए तो बाहर निकलना भी दूभर न हो जाए, विदेश जाना तो दूर की बात।
- संतोष उत्सुक
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