सरकार हमारी बनेगी (व्यंग्य)
कई दिमागों में सरकार पूरी तरह से साकार हो चुकी है। संभावित मंत्रालयों से किस किस की गोद भराई होगी यह तय हो चुका है। जिन बड़े अफसरान का तबादला आशंकित व संभावित है, वे मानसिक रूप से तैयार होने लगे हैं।
विधानसभा क्षेत्रों में इंतज़ार की अंगीठियां सेंकी जा रही हैं। कयासों की बारिश जारी है जो तब तक होगी जब तक सरकार बन न बैठे और वोटरों को बनाना शुरू न कर दे। वादे इरादे बांटे जा चुके हैं। आम आदमी का ज़िक्र तो हर चुनाव में बहुत होता है। सरकार किसकी होगी यह अंदाजा लगाने का काम मेहनत से किया जा रहा है, धुरंधर ब्यानबाजों ने रंग जमा रखा है। दिग्गज नेताओं के दावे पतंग की तरह लूटे जा रहे हैं।
कई दिमागों में सरकार पूरी तरह से साकार हो चुकी है। संभावित मंत्रालयों से किस किस की गोद भराई होगी यह तय हो चुका है। जिन बड़े अफसरान का तबादला आशंकित व संभावित है, वे मानसिक रूप से तैयार होने लगे हैं। कौन कौन से अफसर पसंद आएंगे यह मसाला बनना शुरू हो गया है। राजनीतिजी की चारित्रिक विशेषता एंव घोर आवश्यकता कभी नहीं बदलती कि सरकारजी अपनी पार्टी व अपनों का विकास करे, आम वोटरों के किए स्वादिष्ट योजनाएं पकाए और सबको खाने का अवसर दे।
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‘जा रही सरकार’ ने पारम्परिक सलीके से समझाया कि कितना ज़्यादा विकास किया और ‘आ रही सरकार’ ने आशा जगाऊ, ख़्वाब दिखाऊ शैली में संभावित अति विकास के सपने दिखाए। असली चुनावी दंगल अक्सर कम राजनीतिक पार्टियों में होता है। कुछ व्यक्ति अपने दम पर जीतते हैं, बाकी दर्जनों नहीं सैंकड़ों, पता होते हुए भी, अपनी ज़मानत ज़ब्त करवाकर सरकारी खजाने की आय बढ़ाते हैं। सरकार तो बन ही जाएगी, हो सकता है स्वतंत्र विजेताओं का सोनाचांदी हो जाए या उन्हें मलाल रहे कि वे सरकार बनाने जा रहे, बहुमत प्राप्त दल में अच्छी आफर के बावजूद शामिल क्यूं नहीं हुए।
प्रसिद्ध, समझदार व्यक्तियों व संस्थाओं के आग्रह करने के बावजूद, नासमझ नागरिक वोट नहीं देते। क्या वे उदास वोटर हैं जिन्हें अभी तक दास वोटर नहीं बनाया जा सका। शायद उन्हें नहीं पता कि वोट की कीमत कितने सामान जितनी है। कई घिसेपिटे, पुराने, धोखा खाए, पैसा लुटाए और शरीर तुड़वाए पूर्व राजनीतिज्ञ अब मानने लगे हैं कि जिन नक्षत्रों में आम वोटर पैदा हुए व जिन निम्न स्तरीय, नारकीय जीवन परिस्थितियों में जी रहे हैं, में से उन्हें भगवानजी के सामने की गई प्रार्थनाएं नहीं निकाल सकीं, हाथ पसार कर वोट मांगने वाला, दिल का मैला व्यक्ति कैसे निकाल सकता है। वे कहते हैं कि हम हर बार कहते हैं कि लोकतंत्र की जीत हुई, ऐसा नहीं है हम सब मिल कर लोकतंत्र को हराते हैं।
हमारे देश के हर चुनाव में आशा, विश्वास, मानवता, धर्म की भी हार होती है। वे इस बारे स्वतंत्र भारत के सात दशक से ज़्यादा इतिहास पर भी विश्वास करते हैं। हर बार की तरह इस बार भी पता नहीं कितने कम प्रतिशत से विधायक बन जाएंगे। क्या यह झूठ है कि अधिकतर नेताओं द्वारा भाग्य तो अपना, अपना, अपना, अपने खासमखासों का या उनका ही बदला जा सकता है। क्या असली भाग्य विधाता ताक़त और पैसा नहीं है। आने वाली सरकारजी का निर्माण करने वाले सब जानते हैं।
- संतोष उत्सुक
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