असली-नकली मिठाई (व्यंग्य)
अब मिलावट तो हर जगह है। सच पूछें तो मिलावट को पंचतत्वों में मिलाकर उसे षष्ठतत्व बना देना चाहिए। पिछले कुछ समय से दीपावली पर नकली मिठाइयों को लेकर जागरूकता और आक्रोश वायरल न्यूज की तरह फैला है।
कुछ लोग बड़े सीजनल होते हैं। उनका काम ही त्यौहारों में खुशियाँ ढूँढ़ने की बजाय चिंताएँ ढूँढ़ते रहते हैं। कभी पर्यावरण को लेकर तो कभी कुछ। दीपावली और उससे निकलने वाले ध्वनि-वायु प्रदूषण को लेकर चिंता करने वाले सो कॉल्ड दिखावटी चिंताकर्ताओं को ट्रोल करने वाले दृष्टिहीन केंचुओं की तरह लगने लगते हैं। ये केंचुएँ कीचड़ में अपने शरीर को कुछ इस तरह हिलाते हैं, जिससे सारा ध्यान उन्हीं पर आकर रुक जाए। ट्रोल करने वालों की फेहरिस्त बड़ी लंबी होती है। ऐसे ट्रोलकर्ता पटाखों पर प्रतिबंध का समर्थन क्या करते हैं बड़े पर्यावरणविद् सा प्रतीत होने लगते हैं। बदले में उन्हें उनके जैसे ही लोग समर्थन करने वाले मिल जाते हैं। खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलने लगता है। साल भर का ध्वनि और वायु प्रदूषण उन्हें दीपावली के दिन ही दिखाई देता है।
मेरी और भारत में पले-बढ़े लाखों अन्य बच्चों की तरह, ट्रोलकर्ताओं ने भी नए कपड़ों, मिठाइयों और सर्वोत्कृष्ट रॉकेट, अनार और फुलझड़ियों के साथ दिवाली मनाई होगी। लेकिन जब वह प्रदूषण के कारण पटाखों पर प्रतिबंध का समर्थन करते हैं, ठीक वैसा ही लगता है जैसे दूसरों को अंगुली दिखाना। इतना ही नहीं इस पर्व को मधुमेह का बहाना बताकर मिठाइयों को लेकर भी टीका-टिप्पणी करते हैं। पर्वों पर विशेषकर दीपावली पर हर कोई चाहता है कि थोड़ा-बहुत मीठा हो जाए। मिष्ठान्न के लिए इंसान अक्सर एकांत में मिठाइयों पर टूट पड़ता है। मिठाइयों में सोहन हलवा की हैसियत उस शरणार्थी की तरह होती है जिसे कोई स्थाई रूप से बसाना नहीं चाहता। सोहन हलवा का एक्सपायरी पीरियड थोड़ी देर भर का होता है। वरना वह लासालासा करने लगता है। हलवा पहले पहले ताजा और शाम होने-होने तक बासी होकर सूखे चमन की तरह अपनी निस्सहायता पर रोने लगते हैं। पिस्ता, बादाम, काजू, किशमिश, अखरोट अभी भी आम आदमी की जेब से अभी उतने ही किलोमीटर दूर है जितने किलोमीटर सरकारी वादों का लाभ। ऐसे में खोवा-खलाखन की मिठाइयां नेताओं के चुनावी वादों की तरह हर वर्ग को लुभाती है। ये मिठाइयां हर सीजन में बिना किसी चुनाव के नेता बहुमत चुन लिए जाते हैं। नेताओं के चुनावी वादों की तरह खोवा-खलाखन में भी आकर्षक बनावट के साथ भयंकर मिलावट होती है। चुनावी वादे हो या खोवा-खलाखन की मिठाई, सामान्य व्यक्ति दोनों ही चटखारे लेकर चटख जाता है और बाद में बिना किसी बीमा के देश और स्वयं के स्वास्थ्य का कीमा बनाता है।
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अब मिलावट तो हर जगह है। सच पूछें तो मिलावट को पंचतत्वों में मिलाकर उसे षष्ठतत्व बना देना चाहिए। पिछले कुछ समय से दीपावली पर नकली मिठाइयों को लेकर जागरूकता और आक्रोश वायरल न्यूज की तरह फैला है। देखा जाए तो दीपावली केवल असत्य पर सत्य की विजय का पर्व नहीं रहा बल्कि यह नकली मावे पर असली मावे की विजय का भी पर्व है, क्योंकि जिस तरीके से सोशल मीडिया अपनी मिठाइयों के प्रचार-प्रसार शुद्ध-अशुद्ध का रोना चीख-चीखकर रोते हैं। अपनी मिठाई को दूसरे की मिठाई से शुद्ध और बढ़िया बताते हैं। शुद्ध मिठाई के लिए युद्ध लड़ते है उससे लगता है कि नकली मिठाई का दहन बुराई रूपी राक्षस के दहन जितना ही ज़रूरी है। नकली मिठाई के खिलाफ मुहिम गिरते स्वास्थ्य और गिरती टीआरपी दोनों के लिए संजीवनी का काम करती है। दीपावली और अन्य त्यौहार आते ही मीडिया को बिना किसी प्रशासनिक दबाव के ही जनता के स्वास्थ्य की चिंता सताने लगती है जो कि स्वस्थ लोकतंत्र का लक्षण है क्योंकि अगर दर्शक त्यौहार के दौरान हेल्थी नहीं रहेंगे तो वे टीवी चैनल पर अवतरित होने वाले विविध विज्ञापनों के दर्शन कर अलग-अलग ऑफर्स की गिरफ्त में आकर "वेल्थी" कैसे बनेंगे। हाथ में माइक और दिमाग में एजेंडा लिए मीडियाकर्मी भले ही जनकल्याण हेतु कानून हाथ में ले सकते हैं लेकिन जनता में हाईजिनिक जागरूकता जगाने के लिए वे नकली मिठाई को असली मिठाई की तरह हाथ में लेकर उस खटाई की "बाईट" के लिए ही अपने स्टूडियो में "बाईट" दे देते है।
दीपावली पर दीप जलाना शुभ माना जाता है। ठीक उसी तरह नकली मिठाई की बिक्री और उसके ज़ब्त होने की खबर टीवी पर देखना और अखबारों में पढ़ना लाभ-शुभ की बोहनी का संकेत होता है क्योंकि जब मीडिया, बाजार में नकली मिठाइयों की खबरें चलाता है तब जाकर आमजन को विश्वास होता है कि बाज़ार और मीडिया दोनों दीपावली पर अपनी तैयारियों को लेकर गंभीर है। मीडिया हमें यह "जीएसटी मुक्त भरोसा" दिलाता है कि दीपावली पर आतंकी हमले से ज़्यादा नकली मिठाइयों से सुरक्षा की ज़रूरत है। सारी मिठाई की दुकानों पर दुश्मन के बंकर की तरह नज़र रखी जाती है और मच्छरों की तरह, छापे मारे जाते है। रसद विभाग जगह जगह सर्जिकल स्ट्राइक कर नकली मावा और अपने हिस्से की लाइम लाइट ज़ब्त करता है और बिना माँगे इस सर्जिकल स्ट्राइक के सबूत भी उपलब्ध कराता है। सामान्य व्यक्ति भी इसी उहापोह में जीता है कि दीपावली के शुभ अवसर पर जो मिठाई उसके पेट में बुलेट ट्रेन की गति से गया है उसके दूरगामी परिणामों के लिए उसे केंद्र जीएसटी को कोसना पड़ेगा या फिर राज्य जीएसटी को।
गौरतलब है कि पिछले सत्तर सालो का रट्टा लगाने वाले नेता मिलकर जितना देश को नहीं लूटा उससे ज्यादा नकली मिठाइयों पर आरोप गढ़े जाते हैं। नकली नेताओं के बावजूद भी लोकतंत्र अपने आप को स्वस्थ, जीवित और फिट रखे हुए है तो फिर त्यौहार के दिनों में मिलने वाले नकली मिठाइयों पर इतनी चिल्लम पों क्यों? सामान्य व्यक्ति को अपने देश के लोकतंत्र से प्रेरणा लेनी चाहिए। क्या हमारा विशाल हृदय दयालु लोकतंत्र नकली मिठाइयों को बाकी नक्कालों की तरह अपने अस्तित्व का अधिकार नहीं देगा? नकली मिठाइयों के साथ कई व्यापारी अपने धंधे की दीपावली करना चाहते हैं। वे एक तरह से लोगों के पाचन क्षमता और सर्वाइवल ऑफ द फिट्टेस्ट के परीक्षक होते हैं। इसलिए इनका मिलावटी काम शुद्धता के लिए काम करने वालों के लिए चैलेंजिंग टास्क बना देता है। कारण, नकली असली से ज्यादा जो बिकता है।
- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’
(हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
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