कोरोना ने कम किया पढ़ाई का रोना (व्यंग्य)
कई बरसों से सोच रहा था कि जिन बच्चों ने बड़े होकर रोटी, कपड़ा और मकान के लिए मारामारी करनी है उनके लिए फ़ालतू विषय पढ़ाना बिलकुल उचित नहीं है। हालांकि देश के होनहार विद्यार्थियों के लिए नई शिक्षा नीति कुछ ही दिनों में सक्रिय होने वाली है...
कोरोना, संस्थाओं को अच्छे निर्णय लेने के लिए भी प्रेरित कर रहा है जिसके कारण आत्मनिर्भरता में बढ़ोतरी हो रही है। हालांकि देश के होनहार विद्यार्थियों के लिए नई शिक्षा नीति कुछ ही दिनों में सक्रिय होने वाली है लेकिन उससे पहले स्थापित शैक्षिक परीक्षा नियंत्रक संस्था ने अपने सिलेबस से तीस प्रतिशत पढ़ाई हटा दी है। विद्यार्थी बहुत आराम महसूस कर रहे हैं। कई बरसों से सोच रहा था कि जिन बच्चों ने बड़े होकर रोटी, कपड़ा और मकान के लिए मारामारी करनी है उनके लिए फ़ालतू विषय पढ़ाना बिलकुल उचित नहीं है। अभिभावकों के लिए भी सिरदर्दी थी, पढ़ाने के लिए बढ़िया स्कूल खोजने, दाखिले और फिर सौ प्रतिशत अंक हासिल करने के लिए चौबीस घंटे प्रतियोगिता के कंटीले मैदान में बच्चों के साथ भागना। नवीं, दसवीं व ग्यारहवीं कक्षा में विद्यार्थी को यह तय कराया जाता है कि उसने जीवन में पैसा किस रास्ते चलकर कमाना है इसलिए पता नहीं आज तक फ़ालतू पढाई क्यूं कराई जाती रही। बच्चों के लिए मोबाइल, व्ह्त्सेप, वीडियो गेम के साथ मातापिता के ख़्वाबों को ढोने के लिए इतना पढना मुश्किल हो चला था। देश के प्रसिद्द अनुभवी शिक्षा नीति विशेषज्ञ, शैक्षिक ढांचा बदलने को सिस्टम को चेताते रहते थे लेकिन यह कोरोना युग में ही होना था, हुआ।
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बुद्धिजनों ने कुछ विद्यार्थियों का बस्ता तीस प्रतिशत खाली कर ही दिया। हमारे ज़माने में तो सामान्य विज्ञान, हिंदी में पढ़ाया जाता रहा है और अब तो विद्यार्थियों को पढाई ऐसी शैली में कराई जाने लगी थी जैसे डांस रियल्टी शो में तीन साल की बच्ची को, फिल्म के हिट हॉट डांस नंबर पर नवयुवती वाला, लटके झटके से भरपूर डांस करवाना। पढ़ाई से तो नहीं लोग समझदारी से मालामाल ज़रूर हुए। अब देखिए, सामाजिक अध्ययन, राजनीतिक विज्ञान व बिजनेस स्टडीज क्या सभी के पढने के विषय हैं। फ़ूड सिक्योरिटी इन इंडिया जैसा पाठ तो खाद्य निरीक्षक से सम्बंधित है और लोकतंत्र और विविधता, जाति धर्म और जेंडर, लोकतंत्र की चुनौतियां और लोकतांत्रिक अधिकार जैसे संजीदा अध्याय तो नेताओं के सिलेबस में होते हैं इन्होंने विद्यार्थियों को क्या देना। निरपेक्षवाद, नागरिकता और राष्ट्रवाद, समकालीन दुनिया में सुरक्षा, पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन, भारत में सामाजिक एवं नव सामाजिक मूवमेंट, प्लानिंग कमीशन व पांच वर्षीय योजना बारे पढ़कर और पास होकर विद्यार्थी क्या कुछ कर पाते। इनकी भाषा और परिभाषा कुछ और, व्यावहारिकता कुछ और ही होती है। यह विषय तो बहुत ज्यादा समझदारों द्वारा ही पढ़े और समझे जाते हैं।
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वैसे भी विद्यार्थियों ने पढ़ा कुछ और होता है, पसंद या नापसंद का व्यवसायिक कोर्स करने के बावजूद नौकरी करने के लिए स्टेपनी की तरह तैयार रहना पड़ता है। उन्हें वह काम करना पड़ता है जिसकी पढ़ाई नहीं की होती। शुक है पड़ोसी देशों के साथ रिश्तों वाला चैप्टर हटा दिया, उपनिवेशवाद, नोटबंदी और जीएसटी जैसा, कुछ राजनीतिज्ञों को छोड़ अधिकांश लोगों को अभी तक समझ न आने वाला अध्याय खिसका दिया। यह सब ज़िंदगी के धंधे में आने के बाद खुद समझ आ जाता है, पढने की ज़रूरत नहीं। आजकल बुजुर्गों की कही बातें सराही जा रही हैं, कहा जा रहा है पढाई लिखाई के साथ समझदारी का कोई ताल्लुक नहीं है। हैरानी है विश्वगुरु के गुरुकुल के चेलों को अभी तक पता नहीं था कि नवप्रतिभाओं को निखारने के लिए कौन कौन से स्वादिष्ट घोटे पिलाए जाने चाहिए। देखोजी, कुछ भी हो, अच्छा काम दुश्मन भी करे तो खुले दिल से तारीफ़ करने में क्या हर्ज़ है। कोरोनाजी ने ही शैक्षिक संस्था को यह वैक्सीन ढूंढ कर दी है।
- संतोष उत्सुक
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