गाँव की राजनीति और स्मार्ट नेताओं की नासमझी (व्यंग्य)

By डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ | Dec 31, 2024

किसी भी गाँव में सियासत का खेल कुछ ऐसा होता है जैसे किसी चूल्हे में आग लगाना। जितनी देर तक आग सुलगती है, उतनी ही देर तक सब अच्छे से पकते हैं। गाँव में राजनीति का एक अलग ही तरीका है। जब बात आती है वोटों की, तो कोई भी नेता अपने आपको ही सबसे बड़ा नायक समझता है।


इस बार गाँव में पंचायत चुनाव हो रहे थे। पाटीदार, रावत, यादव, और जाटव सभी जातियां एकजुट थीं – बस उन्हें चाहिए था एक नेता, जो उनका प्रतिनिधित्व करे। और उस नेता का चुनाव भी गांव के हर एक आदमी ने मिलकर किया था – "जो सबसे ज्यादा समझदार हो, वही हमारा नेता होगा।"


लेकिन इस बार राजनीति के हालात कुछ अलग थे। इस बार, गाँव के शरारती और चालाक नेता घनश्याम जी थे। जो आमतौर पर गाँव के हलवाई का काम करते थे, लेकिन इस बार उन्होंने पंचायत चुनाव में उम्मीदवार बनने का फैसला लिया था। घनश्याम जी ने अपने चुनावी प्रचार के लिए एक नया तरीका अपनाया। वे सुबह-सुबह सभी घरों में "सस्ता राशन मिल रहा है" के पोस्टर चिपकाते थे। बिना किसी की अनुमति के। बस, यह चिठ्ठियाँ लगाने से उन्हें एक बड़ा वोट बैंक मिल गया था। अब गाँव के लोग घनश्याम जी को अपने दिल से 'समाजसेवी' मानने लगे थे।

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"वह आदमी कितना अच्छा है! बिना मांगे मुफ्त में राशन बांटने आया है।" – यह बात गाँव के छोटे से बच्चे तक की जुबान पर थी।


एक दिन गाँव में किसी काम से उपेन्द्र और महेन्द्र भाई आए थे। उन्होंने देखा कि घनश्याम जी एक बड़े माइक पर सस्ता राशन और मुफ्त सौगातों का प्रचार कर रहे थे। उपेन्द्र भाई, जो गाँव के स्कूल में पढ़ाते थे, मन ही मन मुस्कराए और बोले, "घनश्याम भाई, बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। इनकी मेहनत को देखकर तो मुझे लगता है कि इन्हें 'महात्मा' का खिताब मिलना चाहिए।"


घनश्याम जी हंसी-हंसी में बोले, "बिलकुल! आपको तो पता ही है कि जो नेता अपना काम करता है, वही असली नेता होता है। और मैं तो जनसेवा के लिए ही हूँ, और जो मुफ्त में सेवा करता है, वही सबसे बड़ा देवता होता है।"


महेन्द्र भाई बोले, "पर भाई, तुमने राशन तो बाँटा है, लेकिन यह बताओ कि अगला चुनाव जीतने के बाद क्या तुम सिर्फ राशन बांटने से गाँव के विकास की दिशा बदलोगे?"


घनश्याम जी ने पलट कर कहा, "यह राशन बांटना, यही असली विकास है। बेशक आप लोग स्कूल की बातें करते रहो, लेकिन मेरे काम से गाँव की समृद्धि बढ़ेगी, क्योंकि अगले साल यहाँ खेतों में उगने वाले धान और गेहूं के साथ-साथ वोट भी बढ़ेंगे।"


इतना सुनते ही उपेन्द्र भाई चुप हो गए। लेकिन महेन्द्र भाई तो जैसे सारा खेल समझ गए थे। उन्होंने एक सवाल दागा, "क्यों भाई, यह जो तुम्हारे प्रचार-प्रसार के लिए साधन हैं, क्या ये गाँव के आम लोगों के पैसे से नहीं आते?"


घनश्याम जी ने बड़े ही गर्व से कहा, "हां! और यही तो मेरी विशेषता है, कि मैं आम आदमी के पैसे से ही उनके बीच आता हूँ और उन्हें दिखाता हूँ कि मैं उनका नेता हूँ।"


इस बात को सुनकर महेन्द्र भाई हंसे, "अरे, तुम तो सचमुच स्मार्ट हो! बिना मेहनत किए तुमने इस गाँव के हर आदमी को अपना दीवाना बना लिया है। लेकिन तुम्हारे 'मुफ्त राशन' का क्या होगा जब लोग तुम्हारे जादू से बाहर आकर असलियत में आएंगे?"


घनश्याम जी हंसी में मुस्कराए और बोले, "महेन्द्र भाई, हम 'जादू' नहीं करते, हम 'समझाते' हैं। बाकी ये 'राशन' तो हमारी याददाश्त में कभी नहीं जाएगा।"


जवाब में महेन्द्र भाई ने कहा, "हाँ, वही याद रखो, कि हर चुनाव के बाद तुम्हारी याददाश्त सिर्फ वोटों तक ही सीमित नहीं रहनी चाहिए।"


सवाल-जवाब चल ही रहा था कि अचानक गाँव के प्रमुख जाटव समाज के नेता रामजी यादव आ गए। उन्होंने आते ही कहा, "घनश्याम जी, क्या आप जानते हैं कि आप कितना गलत कर रहे हैं? इस तरह से सिर्फ वोट की राजनीति करना गाँव के विकास में रुकावट डालता है। ये 'सस्ता राशन' देने से विकास नहीं होगा, हमें सही शिक्षा, अच्छे स्वास्थ्य और हर नागरिक के लिए समान अधिकार की जरूरत है।"


घनश्याम जी मुस्कराए, "रामजी भाई, तुम समझते ही नहीं हो। अब सस्ता राशन और मुफ्त चीजें ही लोगों के दिलों में घर करेंगी, बाकी सब तो बाद में हो जाएगा।"


रामजी यादव ठहाका मारते हुए बोले, "अच्छा तो आप वही पुराने तरीके अपना रहे हो! वोट लेने के लिए कुछ भी, पर विकास के नाम पर सब कुछ छिपाना है। यही है राजनीति का नया 'चमत्कार'।"


घनश्याम जी हंसी में कहते हुए चल पड़े, "रामजी भाई, हम तो अपने तरीके से समाज को बदलने का काम कर रहे हैं। बाकी सब बातें तो वक्त बताएगा।"


- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,

(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

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