उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव जीतने के लिए सपा प्रमुख अखिलेश यादव कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहते हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि जीत के लिए उन्हें अपने से ज्यादा गठबंधन के सहयोगियों पर विश्वास है। अगर ऐसा ना होता तो वह लगातार उन दोनों को गले नहीं लगाते जाते जिनकी विचारधारा ही समाजवादी पार्टी के विपरीत है। समझ में नहीं आता यदि अखिलेश को अपने सहयोगी दलों के नेताओं के बल पर यूपी की सत्ता मिल भी गई तो उनकी सरकार का वही हश्र ना हो जैसा कभी मायावती के साथ गठबंधन करने के बाद हुआ था। गठबंधन की सरकार चलाना कभी आसान नहीं रहा है। गठबंधन दल के सहयोगियों की महत्वाकांक्षा प्रदेश चलाने से अधिक अपने हितों को आगे बढ़ाने की होती है। खासकर राष्ट्रीय लोकदल जिसके साथ गठबंधन करके अखिलेश काफी खुश नजर आ रहे हैं, जानकार उसके बारे में कहते हैं कि अतीत में रालोद के साथ गठबंधन सपा को कभी बहुत ज्यादा लाभ पहुंचाने वाला नहीं रहा था।
वैसे भी गठबंधन धर्म निभाने के मामले में रालोद का इतिहास काफी खराब रहा है। राष्ट्रीय लोक दल चौधरी अजीत सिंह के समय से ही सिर्फ इसलिए पहचाना जाता है कि यह दल सदैव सत्ताधारी दल या जिसका पलड़ा भारी होता है उसके साथ ही खड़ा रहता है। कुछ दिनों पहले की ही तो बात है जब जयंत चौधरी राकेश टिकैत के आगे पीछे घूम रहे थे, लेकिन आज जब दाल नहीं गली तो समाजवादी पार्टी की तरफ आ गए। राष्ट्रीय लोक दल लगभग सभी दलों के साथ गठबंधन कर चुका है। रालोद की मजबूरी है कि उसका राजनैतिक दायरा बहुत सीमित है और उसके पास ऐसा मजबूत वोट बैंक नहीं है जिसके सहारे वह चुनावी मैदान जीत सके। इसीलिए वह किसी ना किसी दल का सहारा लेता रहता है।
बहरहाल, 2022 के विधानसभा चुनाव के लिए रालोद का सपा से गठबंधन हुआ है। समाजवादी पार्टी व राष्ट्रीय लोक दल के बीच गठबंधन की सीटों को लेकर सहमति बन गई है। रालोद के राष्ट्रीय अध्यक्ष जयंत चौधरी ने सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव से लखनऊ में उनके आवास पर मुलाकात की। इस मुलाकात के बाद दोनों नेताओं ने फोटो भी ट्वीट किया। पहले रालोद ने 40 से अधिक सीटों की मांग की थी जबकि सपा 30 से 32 सीटें देने को तैयार थी लेकिन आखिरकार 36 पर सहमति बनी। इसके अलावा कुछ सीटों पर सहमति के आधार पर रालोद के नेता सपा के चुनाव चिह्न पर व सपा के नेता रालोद के निशान पर विधान सभा चुनाव भी लड़ सकते हैं।
गौरतलब है कि रालोद और सपा के बीच सीटों को लेकर लंबे समय से खींचतान चल रही थी। दोनों दलों के बीच दो दौर की बातचीत के बाद भी सीट बंटवारे को लेकर सहमति नहीं बन सकी थी। कई सीटें ऐसी थीं जिन्हें लेकर दोनों ही दलों की ओर से दावा किया जा रहा था। वहीं पश्चिमी उत्तर प्रदेश के राजनीतिक समीकरण की बात करें तो मोदी सरकार द्वारा नये कृषि कानून वापस लेने के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश का सियासी समीकरण फिर से भाजपा की ओर झुकता दिख रहा है। पश्चिमी यूपी के जो किसान कल तक मोदी सरकार से नाराज चल रहे थे आज उनकी नाराजगी दूर हो गई है और यह नाराजगी जल्द ही भाजपा के लिए वोटों में परिवर्तित हो सकती है।
-अजय कुमार