By डॉ. रमेश ठाकुर | May 13, 2024
हुकूमतें पर्यावरण संरक्षण का काम सिर्फ कागजों में करती हैं। धरातल पर कुछ नहीं दिखता। बिगड़ते पर्यावरण से घटित समस्याओं से न सिर्फ भारत परेशान है, बल्कि समूचा संसार आहत है। महीनों से उत्तराखंड के जंगलों में आग धधक रही है। बेमौसम बारिश, बाढ़, औले आदि कुदरती आपदाओं से जनजीवन बेहाल होता देखकर भी सरकारें चुप्पी साधी हुई हैं। पर्यावरण कार्यकर्ता सरकारों को हर वक्त मौसमी समस्याओं से अवगत भी कराते हैं, बावजूद कोई सुनने-समझने को राजी नहीं? बिगड़ते और दूषित होते पर्यावरण पर पत्रकार डॉ. रमेश ठाकुर ने जलपुरूष कहे जाने वाले विश्वविख्यात पर्यावरण रक्षक राजेंद्र सिंह से विभिन्न मुद्दों पर बातचीत की। पेश हैं बातचीत के मुख्य हिस्से।
प्रश्नः प्रकृति के बिगड़ते मिजाज की तस्वीरें, अब कहीं न कहीं से दिखने लगी है?
उत्तरः इसे हम पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन का बिगड़ना बताते हैं। लेकिन ये सत-प्रतिशत कुदरती रोद्र रूप है, जो आने वाले दिनों के लिए संकेत है। धरा के दोहन में मानवीय हिमाकते अंधाधुंध तरीके से लगी हैं। हुकूमत सब कुछ देखकर अनजान बनी हुई हैं। समाज और सरकार दोनों ने अपनी आंखों पर पट्टी बांधी हुई है। देश में आम चुनाव की धूम है। पर, हैरानी इस बात की है कि ग्लोबल वार्मिंग से संबंधित गंभीर मुद्दों पर जरा भी चर्चाएं नहीं हैं। जबकि, मैं तो कई वर्षों से मांग करता आया हूं कि राजनीतिक दल अपने चुनावी घोषणा पत्रों में पर्यावरण और जलवायु के मसले भी शामिल करें। पर, शायद उनको इन परेशानियों से कोई लेना-देना नहीं? ऐसा भी नहीं है कि वो इस विकट समस्या से परिचित न हो, अच्छे से वाकिफ हैं लेकिन कुछ करना मुनासिब नहीं समझते। अभी दुबई में जो अचानक विकराल घटना घटी थी, ऐसे परिवर्तनों को झेलने के लिए सभी को आगे भी तैयार रहना चाहिए।
प्रश्नः दुबई में अचानक बदले वातावरण के पीछे ‘क्लाउड सीडिंग’ को ठहराया जा रहा है?
उत्तरः पर्यावरण को विकृत व दूषित करने वाली समस्त स्थितियों के लिए इंसानी हरकतें उत्तरदायी हैं। मानव कुदरत से बड़ा होने की नाकाम कोशिशों में अपना समय खपा रहा है। क्लाउड सीडिंग से वो कुदरती आपदताओं से लड़ने और जलवायु परिर्वतन पर नियंत्रण चाहता है। रही बात दुबई की तो वह पृथ्वी पर सबसे गर्म और सबसे शुष्क क्षेत्रों में से एक है। वहां, भारी बारिश की निकासी प्रणालियों का अभाव है और बारिश के दौरान सड़कों का जलमग्न होना कोई सामान्य बात नहीं है। क्लाउड सीडिंग, भी कारण हो सकता है। क्योंकि, क्लाउड सीडिंग एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें ऐसे वातावरण में वर्षा बढ़ाने के लिए बादलों में रसायनों को प्रत्यारोपित किया जाता है। जहां, पानी की कमी भी चिंता का विषय है। पर, यह भी सच है कि मानव-जनित जलवायु परिवर्तन के चलते वैश्विक तापमान से दुनिया भर में तीव्र वर्षा सहित अधिक चरम मौसम की घटनाएं घटने लगी हैं। लेकिन संसार फिर भी बेखबर है।
प्रश्नः दम तोड़ चुकी नदियों को पुर्नजीवित करने का अभियान जो आपने राज्य स्तर छेड़ा हुआ है, उससे क्या कुछ बदलाव आएगा?
उत्तरः चंबल की सहायक नदियों को फिर से जीवित करने के अभियान में फिलहाल हम लगे हुए हैं। विलुप्त हुई तीन-चार नदियां को खोजकर उन्हें फिर से तैयार करेंगे। मुझे लगता है, ऐसे अभियान राज्य सरकारों और केंद्र को मिलकर चलाने चाहिए। जब नदियां जीवित हो उठेंगी, तब खेती किसानी में प्रयोग होने वाले पानी की जरूरत भी कम होगी। वरना, पानी का दोहन यूं ही होता रहेगा। भू-जलस्तर आज जिस कदर नीचे पहुंच चुका है उसकी परवाह सरकारें कतई नहीं कर रहीं। ये उदासीनता आने वाले समय में बड़ी घटनाओं में तब्दील होंगी। नदियां, तालाब, पोखर व वर्षा संचय संसाधनों की ओर फिर से हमें मुड़ना होगा। इससे जलवायु परिवर्तन की आड़ में रोद्र रूप धारण करती कुदरत के गुस्से को थोड़ा बहुत कम भी किया जा सकेगा। इसके लिए सभी को अपनी भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी।
प्रश्नः वर्षा जल को संरक्षित करने के लिए पूर्ववर्ती सरकारों ने जल स्रोत पर कई योजनाएं बनाई थी, वो भी दम तोड़ गईं?
उत्तरः सिंचाई के अभाव में सालाना सैकड़ों एकड़ भूमि बंजर हो रही है। नमी के अभाव में जंगलों में बड़े पैमाने पर लगने वाली आग से वन संपदा तबाह हो रही है। इस वक्त उत्तराखंड के जंगल जल रहे हैं। जमीन में नमी नहीं है, इसलिए आग बुझाने के सभी प्रयास भी विफल हो रहे हैं। हमें अब भी समझ जाना चाहिए कि जल ही जीवन है और इसके बगैर जिंदगी संभव नहीं? पर, इसके अथाह दोहन जिस तेजी से पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ रहा है, उसका प्रकोप देखते भी जा रहे हैं। कुछ वर्ष पूर्व कई विशाल जलाशय स्थापित किए गए थे। इनको सिंचाई विद्युत और पेयजल की सुविधा के लिए हज़ारों एकड़ वन और सैंकड़ों बस्तियों को उजाड़कर बनाया गया था। मगर, वे अब सभी दम तोड़ रहे हैं। केंद्रीय जल आयोग ने इन तालाबों में जल उपलब्धता के जो आंकड़े दिए हैं, उनसे साफ जाहिर होता है कि आने वाले समय में पानी और बिजली की भयावह और बढ़ेगी। उत्तर प्रदेश के माताटीला बांध व रिहन्द, मध्य प्रदेश के गांधी सागर, झारखंड के तेनूघाट, मेथन, पंचेतहित व कोनार, महाराष्ट्र के कोयना, ईसापुर, येलदरी व ऊपरी तापी, राजस्थान का राण प्रताप सागर, कर्नाटक का वाणी विलास सागर, उड़ीसा का रेंगाली, तमिलनाडु का शोलायार, त्रिपुरा का गुमटी और पश्चिम बंगाल के मयुराक्षी व कंग्साबती जलाशय सूखने के एकदम कगार पर हैं।
प्रश्नः देश की विभिन्न कंपनियां बोतल बंद पानी के लिए धरती को चीर रहे हैं। जबकि, पर्यावरण संरक्षण के लिए पानी की उपलब्धता का होना बहुत जरूरी है?
उत्तरः सरकारों की मिलीभगत से कंपनियां बिना डरे धरती का सीना चीरकर पानी निकाल रही हैं। खुद कमाती हैं और मुनाफा सरकारों को भी देती हैं। इसलिए उन्हें कोई कहने-सुनने वाला नहीं? पानी को बचाने के लिए ईमानदारी से मंथन करने की जरूरत है। वरना, वह कहावत चरितार्थ हो सकती है, जो बे-पानी पर आधारित है, कि ’रहिमन पानी राखिए, पानी बिन सब सून, पानी गये ना ऊबरे, मोती मानस सून‘ पानी बचाने और उसे सहजने को जो कुछ साधन हुआ भी करते थे, वह सब चौपट हो गए हैं। बात ज्यादा पुरानी नहीं है। कोई एकाध दशक पहले तक छोटे-छोटे गांवों में नदी-नाले, नहर, पोखर और तालाब अनायास ही दिखते थे, अब नदारद हैं। बिगड़ते पर्यावरण में ये मुख्य कारण हैं।
-बातचीत में जैसा विश्वविख्यात पर्यावरण रक्षक राजेंद्र सिंह ने डॉ. रमेश ठाकुर से कहा