किसके आगे बीन बजाऊँ (व्यंग्य)

By डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ | Jan 08, 2024

नई नवेली सरकार एकदम नई नवेली बहू की तरह होती है। बहू के लिए ससुराल और सरकार के लिए सत्ता के आरंभिक दिन किसी नर्सरी, एलकेजी या फिर यूकेजी से कम नहीं होते। ऐसे में उससे चाय गिर जाना, चाय का कप टूट जाना, चूल्हे पर दूध उबलकर बह जाना या दूध खुला छोड़ देने पर बिल्ली द्वारा चट कर जाना उसके दाम्पत्य जीवन के एबीसीडी वाले दिन कहलाते हैं। ऐसे में उसकी शिकायत भी नहीं कर सकते। करेंगे भी तो लोग कहेंगे कि छोड़ो भी वह तो अभी-अभी की आयी है। करत-करत अभ्यास के गाय शेरनी और नई नवेली दुल्हन घर भर पर दहाड़ मारना शुरु कर देती है। कई साल गुजर जाने पर तड़का लगाने वाला कलछुल और बहू दोनों एक जैसे लगने लगते हैं। अंतर केवल इतना होता है कि कलछुल में तेल के साथ जीरा-लहसून तड़कने लगते हैं तो घर की हर छोटी बातों में बहू अपना तड़का लगाए बिना चुप नहीं बैठती। 


पिछले एक साल में दस चाय कप तोड़ने वाली बहू की इंटर्नशिप समाप्त होने-होने तक उसकी सीनियारिटी उसे एक नया मुकाम देती है। वह अब चाय कप गिराने नहीं बल्कि पकड़ने का शहूर सिखाने लगती है। ऐसे में भी उससे कप गिरकर टूट जाए तो समझ जाना चाहिए कि गलती उसकी नहीं घर के किसी सदस्य की है। अब उसके अनुभव के बादल जब-तब सीख की बारिश कर ही देते हैं। अब उसकी सक्रियता सब पर भारी पड़ने लगती है। अनुभव ने उसे बहुत कुछ सिखाया है। अब वह काम कम शिकायतें ज्यादा करती हैं। पल-पल शिकायतें, भर-भर ताने। काम करते समय चोट लग जाना आम बात होती है। कभी चूल्हे के पास हाथ जल जाना, पकौड़े बनाते समय गरम तेल से बदन पर फफोले निकल आना, सब्जी काटते समय चाकू से उंगली कट जाना आदि को तब तक घर के प्रति प्यार समझती है जब तक उसे बदले में प्यार मिलता है। यदि कहीं उन्नीस-बीस हो जाता है तो समझो खैर नहीं। जला हुआ हाथ, बदन पर फफोले, कटी हुई उंगली कभी भी गृह हिंसा कानून के तहत ब्रह्मास्त्र बनकर सास-श्वसुर-ननद या फिर पति को धर दबोचने में पीछे नहीं हटते। 

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नई नवेली सरकार नोटबंदी, तीन सौ सत्तर, तीन तलाक, जीएसटी, नए नागरिक कानून के साथ आगे आने पर उसका विरोध ठीक उसी तरह हुआ जिस तरह नई बहू का। समय और अनुभव बहुत कुछ सिखा देता है। अब वही नई नवेली सरकार जब तक विपक्ष शोर नहीं करता तब तक चुप बैठती है। अब वह नए कानूनों फिर चाहे वह कृषि कानून जैसा फरमान ही क्यों न हो का विरोध करते हुए पाती है तो उसे दबाने के लिए सीबीआई, पुलिस, सेना, ईडी का प्रयोग करने से पीछे नहीं हटती। चूँकि अब वह नई नवेली नहीं शातिर खिलाड़ी की तरह सभी दांवपेंच सीख चुकी है, इसलिए कांटे को कांटे से, ईट का जवाब ईट से, पत्थर का जवाब पत्थर से और किसानों का जवाब सेना, पुलिस से देने का गुर भली-भांति जानती है। क्योंकि सास भी कभी बहू थी की तर्ज पर सरकार भी कभी कच्ची थी.. वाली उक्ति बदलकर सरकार न कभी कच्ची थी, है और रहेगी हो गयी है। सरकार तकरार करने में अभ्यस्त और सरकारी कानूनों का उल्लंघन करने वालों को तरकारी की तरह टुकड़े-टुकड़े करने में मजा लेने लगी है। इसलिए एक बार के लिए बहू बिना सोचे समझे चुन सकते हैं, लेकिन सरकार नहीं।   


- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,

(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

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