भीड़ में बिदकते उस छोटे आदमी की हिम्मत देखो, बड़े आदमी से सवाल कर रहा है, ‘मेरी बात का जवाब दो’। बड़े आदमी का इशारा हुआ, छोटे आदमी के कान में किसी ने ज़ोर से कहा, एमएलए साहिब हैं। विरोध, इज्ज़त से पेश आने लगा, ‘मैल्ले साब, मैल्ले साब मेरी बात का जवाब दो’। भूख ने उसे बात करने की हिम्मत दी थी। आलू पूरी का पैकेट उसके हाथों में थमा दिया गया था। समर्थकों को, ‘मैल्ले साब’ बोलना अखर रहा था लेकिन संतुष्ट भी थे कि, ‘मैले’ नहीं बोला। उसकी गलती नहीं मानी जा सकती थी, अगर एमएलए को मैले भी बोल देता। उसका उच्चारण ही ऐसा था, वैसे उसे पता था कि एमएलए साहिब मैले हैं।
वैसे मैले साहिब को भी पता है कि वह बहुत मैले हैं, सड़े हुए कूड़े से भी अधिक सडांध वाले हैं। देखा जाए तो मैले आदमी को मैला ही कहा, उजला बोल कर व्यंग्य तो नहीं किया। बड़ी हिम्मत की बात यह है कि छोटे आदमी ने भूखे पेट के लिए खाना न मिलने की छोटी सी बात पर सवाल खड़ा कर दिया। शुद्ध समर्थक ने उसे पकड़ा, ‘संभल कर बोलो, एमएलए साहिब को हर कुछ मत कहो।’ सुथरे साहिब ने यह नहीं सुना कि सत्संग भवन के पास रात भर इंतज़ार किया, सुबह तलक सैंकड़ों परिवार बिलखते रहे। मैल्ले साहब ने चेलों और पुलिस को गोल, चपटे, गीले और सूखे निर्देश दे रखे हैं, समझा रखा है, यह हो जाए तो वह करना, वह न हो तो बिलकुल वही करना जो बता रखा है। बेचारा बचपन, प्रौढ़ता और बुढापे को देखकर परेशान है। छोटा आदमी फिर बोला, ‘कभी बुरा वक़्त आपको सड़क पर पटक दे, आपका बच्चा बिना दूध व परिवार बिन खाने तडपता रहे तो आप क्या करोगे’। साफ़ साहिब को इस संवेदनशील प्रश्न पर चुप रहना चाहिए था मास्क चिपकाए, आंखों पर नकली उदासी ओढ़े चुप रहे। उन्हें पता था चुनाव के बाज़ार में गुस्ताखियां नहीं की जाती।
राजनीति जानती है आम आदमी को ज्यादा सोचने का अधिकार नहीं है, लेकिन कमबख्त सोच पर भी तो किसी का अधिकार नहीं है। जब भूखे, मैले कुचैले, अधमरे लोगों से दूर वातानुकूलित कमरों में बैठकर भूखे, पैदल, बीमार व वंचित के लिए दवा दारु की स्कीम बन सकती है तो क्या भूखा पेट, केले, डबलरोटी, बिस्कुट और दारु के ख़्वाब लेने के लिए अधिकृत नहीं है। उसके पास वह समझ कहां जो साफ़ सुथरे, स्वच्छ लेकिन मैले या पढ़ लिखकर स्वार्थी बने दिमागों में वक़्त के हिसाब से उगती है। बुरे वक़्त और छोटे आदमी की क्या हिम्मत और औकात जो उन्हें कुछ कहने की सोच भी सके। वह छोटा आदमी शायद समझ गया है कि महामारी के लक्षण सिर्फ बुखार, खांसी, छींक, सूजन या दर्द में ही नहीं होते, वे पढ़े, भरे पेट, स्वच्छ, महंगे कपड़े वालों में भी पाए जाते हैं। वे अनुभवी अभिनेता होते हैं, मुंह पर काला चश्मा लगाकर संवेदनाएं प्रकट करते हैं और मन ही मन, ‘मैनू काला चश्मा जंचदा ए..’ गुनगुनाते रहते हैं। वैसे उस छोटे आदमी की हिम्मत देखने लायक है।
- संतोष उत्सुक