By अभिनय आकाश | Mar 23, 2023
27 सितंबर 2013 को दोपहर के पौने दो बज रहे थे। दिल्ली के प्रेस क्लब में कांग्रेस महासचिव अजय माकन की प्रेस कॉन्फ्रेंस में दो मिनट का ब्रेक डालकर राहुल ने अपनी सरकार के खिलाफ बगावत का ऐसा बिगुल फूंका जिसकी चर्चा राजनीति के इतिहास में हमेशा होती रही है। राहुल ने मनमोहन सरकार के लाए अध्यादेश पर बोलते हुए कहा था कि ‘मैं आपको बताता हूं कि इस अध्यादेश पर मेरी निजी राय क्या है? यह सरासर बकवास है। इसे फाड़ के फेंक देना चाहिए। मेरी तो यही राय है। ’’राहुल के इस तेवर पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी हैरान हो गए थे। आज से ठीक 10 साल पहले मनमोहन सरकार द्वारा लाए गए अध्यादेश को न फाड़ा होता तो उनकी सदस्यता पर संकट के बादल मंडराते नहीं दिखते।
क्या है पूरा मामला
सूरत की एक अदालत ने 'मोदी उपनाम' संबंधी टिप्पणी को लेकर कांग्रेस नेता राहुल गांधी के खिलाफ 2019 में दर्ज आपराधिक मानहानि के एक मामले में उन्हें दो साल कारावास की सजा सुनाई। अदालत ने राहुल गांधी को जमानत भी दे दी और उनकी सजा पर 30 दिन की रोक लगा दी, ताकि कांग्रेस नेता उसके फैसले को ऊपरी अदालत में चुनौती दे सकें। फैसला सुनाए जाते समय राहुल गांधी अदालत में मौजूद थे। पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के वकील बाबू मंगुकिया ने बताया कि मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट एच एच वर्मा की अदालत ने कांग्रेस नेता को भारतीय दंड संहिता की धाराओं 499 और 500 के तहत दोषी करार दिया। ये धाराएं मानहानि और उससे संबंधित सजा से जुड़ी हैं।
10 साल पुराने अध्यादेश की क्यों हो रही चर्चा
साल 2013 के सितंबर महीने में यूपीए सरकार ने एक अध्यादेश पारित किया था। इसका मकसद उसी साल जुलाई महीने में सुप्रीम कोर्ट द्वारा पारित एक आदेश को निष्क्रिय करना था। जिसमें अदालत ने कहा था कि दोषी पाए जाने पर सांसदों और विधायकों की सदस्यता रद्द कर दी जाएगी। कांग्रेस द्वारा इस अध्यादेश को लाए जाने पर बीजेपी, लेफ्ट और कई विपक्षी दलों ने यूपीए सरकार पर निशाना साधा था। मनमोहन सरकार पर उस वक्त भ्रष्टाचारियों को बढ़ावा देने के आरोप लगने लगे और कहा गया कि इसी मकसद के लिए ये अध्यादेश लाया गया। उसी वक्त आरजेडी नेता लालू प्रसाद यादव पर भी चारा घोटाले को लेकर अयोग्यता की तलवार लटक रही थी। कांग्रेस की ओर से जब ये प्रेस कॉन्फ्रेंस की गई थी तो उस वक्त तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अमेरिका के दौरे पर थे। इस घटना के बाद राहुल गांधी ने मनमोहन सिंह को चिट्ठी लिखकर अपना पक्ष रखा था। बाद में अक्टूबर महीने में तत्कालीन यूपीए सरकार ने इस अध्यादेश को वापस ले लिया था।
राहुल गांधी को एक सांसद के रूप में अयोग्य ठहराया जा सकता है?
जनप्रतिनिधित्व अधिनियम के अनुसार, किसी भी सदस्य को दोषी ठहराए जाने और दो साल या उससे अधिक के कारावास की सजा होने पर अयोग्य घोषित किया जाएगा। व्यक्ति कारावास की अवधि और एक और छह साल के लिए अयोग्य है। लेकिन, अधिनियम में प्रदान किए गए मौजूदा सदस्यों के लिए एक अपवाद है। वर्तमान सदस्यों के लिए एक अपवाद है; उन्हें अपील करने के लिए सजा की तारीख से तीन महीने की अवधि प्रदान की गई है। अधिनियम कहता है कि अपात्रता तब तक लागू नहीं होगी जब तक कि अपील का फैसला नहीं हो जाता है। एक अपराध के लिए दोषी ठहराए गए सांसद की अयोग्यता दो मामलों में हो सकती है। सबसे पहले, यदि वह अपराध जिसके लिए उसे दोषी ठहराया गया है, जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 8(1) में सूचीबद्ध है। दूसरा, अगर कानून निर्माता को किसी अन्य अपराध के लिए दोषी ठहराया जाता है लेकिन दो साल या उससे अधिक की अवधि के लिए सजा सुनाई जाती है। आरपीए की धारा 8(3) में कहा गया है कि अगर किसी सांसद को दोषी ठहराया जाता है और दो साल से कम की कैद की सजा नहीं होती है तो उसे अयोग्य ठहराया जा सकता है।
सजा के खिलाफ अपील अयोग्यता को कैसे प्रभावित करती है?
धारा 8(4) में यह भी कहा गया है कि दोषसिद्धि की तारीख से अयोग्यता केवल "तीन महीने बीत जाने के बाद" प्रभावी होती है। उस अवधि के भीतर, गांधी उच्च न्यायालय के समक्ष सजा के खिलाफ अपील दायर कर सकते हैं। लेकिन, जबकि कानून ने शुरू में अयोग्यता पर रोक लगाने के लिए प्रदान किया था, अगर दोषसिद्धि के खिलाफ एक उच्च न्यायालय के समक्ष अपील दायर की गई थी, 2013 में 'लिली थॉमस बनाम यूनियन ऑफ इंडिया' के ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 8 (4) को रद्द कर दिया था। इसका मतलब यह है कि केवल अपील दायर करना ही काफी नहीं होगा, बल्कि सजायाफ्ता सांसद को ट्रायल कोर्ट की सजा के खिलाफ स्थगन का एक विशिष्ट आदेश सुरक्षित करना होगा। गौरतलब है कि स्थगन केवल धारा 389 सीआरपीसी के तहत सजा का निलंबन नहीं हो सकता है, बल्कि दोषसिद्धि पर स्थगन भी हो सकता है। सीआरपीसी की धारा 389 के तहत, एक अपीलीय अदालत अपील लंबित रहने तक दोषी की सजा को निलंबित कर सकती है। यह अपीलकर्ता को जमानत पर रिहा करने जैसा है।
कौन थी थॉमस लिली और क्या है वो केस?
एक सीनियर वकील लिली थॉमस ने केंद्र सरकार के खिलाफ इतने मामले लड़े कि उनका उपनाम ही लिली थॉमस बनाम यूनियन ऑफ इंडिया पड़ गया था। लिली थॉमस का जन्म कोट्टयम में हुआ था। शुरुआती पढ़ाई के बाद मद्रास विश्वविद्यालय से एलएलएम की डिग्री हासिल की। इसके बाद उन्होंने अपनी प्रैक्टिस शुरू की। 1964 में वो सबसे पहले चर्चा में आई थीं, जब उन्होंने एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड एग्जाम का विरोध किया था और सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। थॉमस ने 2003 में जनप्रतिनिधित्व कानून 1952 को चुनौती दी थी। थॉमस लिली ने संविधान के सेक्शन 8(4) को असंवैधानिक दिए जाने का मामला उठाया था। इसी सेक्शन में ये प्रावधान किया गया था कि दोषी करार दिए जाने के बावजूद जनप्रतिनिधि की सदस्यता बनी रहेगी। यदि वो अदालत के फैसले को ऊपरी अदालत में चुनौती देते हैं और वहां से सजा पर रोक लगा दी जाती है तो। हालांकि कोर्ट की तरफ से उनकी याचिका स्वीकार नहीं की गई। उन्होंने फिर से याचिका दायर कर दिया। 9 साल बाद 2012 में तीसरे प्रयास में उनकी याचिका स्वीकार कर ली गई। 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में लिली थॉमस के पक्ष में फैसला सुनाया जिसके मुताबिक 2 साल या उससे ज्यादा सजा पाने वाले जनप्रतिनिधियों की सदस्यता तत्काल प्रभाव से समाप्त हो जाएगी। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के 10 जुलाई 2013 के फैसले ने जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 8 (4) को रद्द कर दिया था, जिसने निर्वाचित प्रतिनिधियों को उनकी सजा की अपील करने के लिए 3 महीने की अनुमति दी थी। अगले 30 दिनों में, यदि लोकसभा अध्यक्ष के समक्ष आवेदन प्रस्तुत किया जाता है, या अध्यक्ष स्वयं संज्ञान लेता है और इस निर्णय पर अभी भी कोई रोक नहीं है, तो राहुल को सांसद के रूप में अयोग्य घोषित किया जा सकता है।
गई थी आजम की सदस्यता
सपा विधायक अब्दुल्ला आज़म खान को एक निचली अदालत द्वारा आपराधिक मामले में 2 साल की जेल की सजा सुनाए जाने के तुरंत बाद उत्तर प्रदेश विधानसभा से अयोग्य घोषित कर दिया गया था। लोकतंत्र में कोई भी, बिल्कुल कोई भी कानून से ऊपर नहीं है। सभी समान है। इसलिए, कानून राहुल गांधी पर समान रूप से लागू होता है।