जीवन के हर क्षेत्र में प्रतियोगिता चल रही हो तो श्रद्धांजलि का महत्वपूर्ण क्षेत्र कैसे अछूता रह सकता है। मौसम चुनाव का हो तो नेताओं के चम्मच और कड़छियां ध्यान रखते हैं कि कहां कहां जाकर श्रद्धांजलि भेंट करनी है। श्रद्धांजलि सभा में सांसद, विधायक और ताज़ा पार्टी बदलू संपर्क बढ़ाने पहुंचे होते हैं। कई बार लगता है होड़ लगी हुई है। उनकी दुख सभा में अपनी सुख सभा भी निबटा लेते हैं।
हर शै पर बाज़ार का कब्जा हो तो मानवीय व्यवहार में भी विज्ञापन आ ही जाता है। बंदा बीमार हो या आपरेशन करवाने थियेटर में प्रवेश कर रहा हो या बचकर आ रहा हो तो गेटवेलसून के साथ लाइक्स समेटना शुरू कर देता है। जब मुआ लैंडलाइन ही होता था तो नेताजी श्रद्धांजलि पेश करने का प्रैस नोट बनाकर भेजते थे और अपने बंदे को फोन कर गुजारिश करते थे कि चुनाव चल रहा है आपका सहयोग चाहिए, हमारी वाली श्रद्धांजलि ज़रा लंबी और बढ़िया लगा दिजीएगा, हमारा रंगीन फोटो आपके पास है ही।
अगर डेस्क पर श्रद्धांजलि संपादित होकर कम छपती तो गिलाशिकवा होता था कि आपके अखबार ने हमारी श्रद्धांजलि ढंग से नहीं छापी। हमारी कई वोटें खराब करवा दी। अब तो फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप पर गालियां व श्रद्धांजलि साथ साथ दी जाती है। चुनाव संहिता के निर्देशों का चुन चुनकर उल्लंघन कर, मरते लोकतंत्र को श्रद्धांजलि अर्पित करते रहते हैं। ऐसे मौसम में राष्ट्र प्रेम, पार्टी प्रेम, नेता प्रेम या नफरत से कूट कूट भरे नारों और अनारों की प्रतियोगिता भी रहती है।
राजनीति इंसानों की तरह भुलक्कड़ होती है धीरे धीरे सब को भूल जाती है। शहीद, शहीद परिवार और शहीद के बुत की धूल भी भूल जाती है। शहीद के बुत की साफ सफाई करना कुछ दिन बाद उसके परिवार की जिम्मेवारियों में शामिल हो जाता है। बुतों को अगर वोट देने का अधिकार होता तो चुनाव के दिनों में उन पर रंग रोगन ज़रूर किया जाता लेकिन राजनीति शोक को खबर बनने तक याद रखती है। श्रद्धांजलि अब दो मिनट का मौन भी है।
कितनी बार ऐसा भी हो सकता है कि क्षेत्र में चुनावी सभा भी हो और पड़ोस के गाँव में श्रद्धांजलि समारोह। ऐसा हो सकता है कि इस प्रतियोगी समय में चुनावी सभा, नेताओं को जीत ले और बेचारी श्रद्धांजलि हार जाए। वोट प्रतियोगिता तो जीवित लोगों की ही होती है। आत्मा को श्रद्धांजलि देने या न देने से क्या फर्क पड़ता है।
- संतोष उत्सुक