एक नाम एक किरदार में तब्दील होता है और फिर कहानी बन जाती है। कुछ कहानी कुछ सेकेंड जीवित रहती है तो कुछ मिनट तो कुछ घंटों और कुछ कहानी इतिहास बनकर लोगों के जेहन में उतर जाती हैं बरसों।
कभी विवादों में पड़ते नहीं, किसी से लड़ते नहीं, लेकिन अपनी बात कहने से पीछे हटते नहीं। विवादों से दूर रहने वाले अरुण जेटली, क्लीन इमेज वाले अरूण जेटली, सॉफ्ट स्पोकन अरुण जेटली और मिलनसार होने के साथ-साथ कड़े औऱ बड़े फैसले लेने वाले अरुण जेटली।
साल 2019 की बात है धमक के साथ सत्ता में आई मोदी सरकार और सरकार पार्ट 2 के लिए मंत्रियों की सूची मीडिया में अटकलों के साथ चल रही थी। तमाम तैरते नामों के बीच शपथ ग्रहण से ठीक एक दिन पहले अरुण जेटली ने एक चिट्ठी लिखी थी। जेटली ने साफ कर दिया था कि उनकी तबीयत खराब है वो मोदी सरकार पार्ट 2 के मंत्रीमंडल में जगह नहीं चाहते हैं। ये तो कहानी का पहला भाग था इसके आगे का स्टैंड तो मिसाल सरीखा था। जेटली ने साफगोई से पिछली सरकार में मिली सुख-सुविधाओं का परित्याग करते हुए राजनीति के निरंतर गिरते स्तर में खुद को मूर्धन्य की तरह शीर्ष पर स्थापित करने का काम किया। लेकिन इसके कुछ महीने बाद ही 24 अगस्त 2019 को 66 साल की उम्र में लंबी बीमारी के बाद अरुण जेटली का निधन हो गया। आज के इस विश्लेषण में बात करेंगे कभी भाजपा के दफ्तर में दो कोट टांग कर जाने वाले अरूण जेटली के बारे में जो वकालत का कोट उतारकर प्रवक्ता के रोल में आ जाते थे। जिसकी लोधी गार्डन की चहलकदमी हो या पश्मिना शॉल दोनों के किस्से मशहूर हैं और मशहूर हैं जिनके कानूनी दांव-पेंच जिसके जरिए संसद की कई सीढ़ियों को तेजी से उन्होंने नापा।
जेटली ने अपने जीवनकाल में केवल एक चुनाव जीता, जब वे 1970 के दशक में आरएसएस से जुड़े छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के अध्यक्ष बने। उनका परिवार विभाजन के बाद लाहौर से भारत आ गया था और उसके पास बताने के लिए कोई पारंपरिक निर्वाचन आधार क्षेत्र नहीं था। वे अपनी पीढ़ी के नेताओं में इकलौते थे जो 1989-90 में वीपी सिंह की सरकार में अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल जैसा बड़ा ओहदा पाने में सफल रहे। इसने उनके कानूनी करियर को बड़ी छलांग दी।
बीजेपी के ट्रबल शूटर
जेटली भाजपा में ऐसी शख्सियत रहे जिनके बारे में कहा जाता रहा कि पावर चाहे जिसके हाथ में रहे पावरफुल वहीं रहते थे। लालकृष्ण आडवाणी का जमाना रहा हो या नरेंद्र मोदी का जमाना जेटली ना तब कमजोर थे और नहीं मोदी सरकार के दौरान कमजोर रहे। जब 1984 में भाजपा महज 2 सीटों पर सिमट कर रह गई उसी समय जेटली ने भांप लिया कि भाजपा का भविष्य अब लालकृष्ण आडवाणी में है। इसके बाद वह आडवाणी के सबसे खास लोगों में शामिल हो गए। जब आडवाणी ने पाकिस्तान दौरे पर जिन्ना की तारीफ कर के महान भूल कर दी और संघ परिवार द्वारा किनारे कर दिए गए। इसके बाद भी जेटली की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा और वह आराम से पार्टी के दूसरे नेताओं के साथ काम करते रहे। वह पेशे से भले वकील रहे लेकिन राजनीतिक ज्योतिष उन्हें खूब आती थी। ग्रहों की चाल का पता उन्हें पहले ही लग जाता था। जेटली को भाजपा में ट्रबल शूटर कहा जाता रहा। भाजपा में इतना लंबा सफर जेटली ने अपनी बुद्धि और चतुराई से तय किया। जेटली के अंदर कई खूबियां रहीं विरोधी दलों के प्रमुख नेताओं से उनके मधुर रिश्ते रहे, औद्योगिक घरानों से उनके संबंध अच्छे थे। उनका मीडिया मैनेजमेंट भी तगड़ा था।
मोदी के भरोसेमंद हरफनमौला
इंदिरा गांधी और आपातकाल (1975-77) के खिलाफ जयप्रकाश नारायण (जेपी) के आंदोलन के दिनों से ही अरुण जेटली और नरेंद्र मोदी एक दूसरे को जानते थे। लेकिन गुजरात में शंकरसिंह वाघेला के विद्रोह के परिणामस्वरूप 1995 में जब मोदी को दिल्ली निर्वासित कर दिया गया, उस समय जेटली और मोदी के बीच घनिष्ठता हुई। अगले साल, जब प्रमोद महाजन ने मुंबई से लोकसभा चुनाव लड़ने का फैसला किया और उन्हें मीडिया को संभालने का काम सौंपा गया, तो दोनों ने साथ मिलकर काम किया। दोनों का प्रदर्शन शानदार रहा। जेटली मोदी के गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में शुरुआती दिनों से लेकर प्रधानमंत्री बनने तक हर मामले में उनके सलाहकार थे। साल 2002 में गुजरात दंगों के बाद जब नरेंद्र मोदी के समर्थन में कोई खड़ा नहीं था तब अरुण जेटली उनके साथ चट्टान की तरह खड़े थे। उन्होंने दंगे से जुड़े मामले में कानूनी सलाह दी साथ ही मीडिया मैनेजमेंट के मामले में भी मोदी को अमूल्य सुझाव दिए। मोदी को अपनी छवि सुधारने में काफी मदद मिली। वाजपेयी सरकार में जेटली के पास कानून मंत्रालय था और उस वक्त वह मोदी के बड़े समर्थक थे। जब मोदी राजनीतिक तौर पर कमजोर थे, उन्हें नुकसान पहुंचाया जा सकता था, उस समय वाजपेयी सरकार के भीतर ऐसे समूह थे जिससे मोदी को हटाने के लिए जोरदार लॉबिंग शुरू कर दी थी। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी गोवा पहुंचते तब तक हवा नरेंद्र मोदी के पक्ष में बहने लगी थी। इसमें अरुण जेटली का महत्वपूर्ण रोल था। यही नहीं अरुण जेटली ने अमित शाह को भी कानूनी लड़ाई लड़ने में मदद की।
अरुण जेटली की राजनीतिक भाषा में प्रवीणता ने पार्टी में उनका कद काफी बड़ा किया। जब भारत में खबरिया चैनल श्येशवस्था में थे उस समय जेटली पार्टी के पक्ष को इतनी मजबूती से रखते थे कि श्रोता और दर्शक उनके मुरीद हो जाते थे। उनकी तार्किक क्षमता ऐसी थी कि अनुभवी राजनेताओं के पास भी उनके तर्कों के काट नहीं होती थी। जब प्रमोद महाजन की मृत्यु हुई अरुण जेटली के लिए आगे की राह आसान हो गई। आडवाणी के बाद भाजपा के दूसरे सबसे प्रभावशाली नेता थे। अटल सरकार के दौरान जेटली विश्व व्यापार मंच पर सरकार के पक्ष रखते हुए राजनेता के तौर पर सामने आए थे। 2014 में मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में जब जेटली वित्त मंत्री बने थे, तो उन्हें खस्ताहाल अर्थव्यवस्था विरासत में मिली थी। उन्होंने जो सबसे उल्लेखनीय बदलाव किए उनमें से एक था- लामबंदी करने वालों को नॉर्थ ब्लॉक के गलियारों तक सीमित कर देना। शुरुआती दिनों में, वे रक्षा, वित्त और कॉर्पोरेट मामलों के प्रभारी थे।
राफेल पर सरकार के संकटमोचक
एक वक्त था जब राहुल गांधी ने संसद में राफेल डील का मुद्दा उठाया मसला डिफेंस से जुड़ा था। कायदे से तो सवालों का जवाब तत्तकालीन रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण को देना था। सरकार की तरफ से तर्कों और सवालों की ढाल-तलवार लेकर अरुण जेटली खड़े हुए तो मामला आमने-सामने का हो गया। दोनों पक्षों में तीखी बहस चली और इस दौरान कांग्रेस के सांसद कागज के जहाज उड़ाते रहे, जिस पर उस वक्त की स्पीकर सुमित्रा महाजन ने कड़ी आपत्ति जताई। राहुल के सवालों और अरुण जेटली के जवाबों कितने सही-गलत रहे, यह अलग बहस का विषय है, मगर जेटली ने एक हद तक राहुल गांधी के तीखे सवालों से सरकार को बचाने की प्रभावी कोशिश की। इसके अलावा जितनी प्रेस कांफ्रेंस उन्होंने की, जितनी बार उन्होंने ब्लॉग लिखकर राफेल को लेकर सरकार की तरफ से पक्ष रखा, उतना रक्षामंक्षी निर्मता सीतारमण ने भी नहीं।
नीतीश को सीएम बनाने में जेटली की भूमिका
28 जुलाई 2019 को भारतीय जनता पार्टी के नेता और पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली की जयंती के अवसर पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पटना में पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली की प्रतिमा का अनावरण किया। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने प्रतिमा का अनावरण करने के साथ ही जेटली से जुड़ी यादें भी साझा कीं और उन्हें याद किया। अपने संबोधन में नीतीश ने कहा कि जेटली बिहार के निवासी नहीं थे, लेकिन बिहारियों को लेकर उनमें प्रेम अधिक था। वह जब बिहार भाजपा के प्रभारी बने, इसके बाद हुए दो चुनाव में उनकी भूमिका नहीं भुलाई जा सकती। दरअसल, सुशासन बाबू के नाम से मशहूर नीतीश कुमार के द्वारा कही इन बातों के पीछे इतिहास के कुछ प्रसंग छिपे थे। और राजनीतिक गलियारों में कहा ये भी जाता है कि अगर जेटली नहीं होते तो नीतीश कुमार सीएम नहीं बन पाते। ये 2005 के बिहार का क़िस्सा है। जेटली तब बीजेपी के जनरल सेक्रटरी हुआ करते थे और साथ ही बिहार के प्रभारी भी। नीतीश कुमार को जेडीयू और बीजेपी गठबंधन का चेहरा बनाने के पीछे जेटली का बड़ा हाथ था। 2005 में लालू-राबड़ी के मुकाबले में एनडीए को मिली जीत के एक अहम हिस्से का श्रेय भी नीतीश और जेटली की पार्टनरशिप को जाता है। फरवरी 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में लालू हार गए। मगर किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला था। नीतीश ने जेटली से कहा- गठबंधन तो कर लिया था हमने, लेकिन इस पार्टनरशिप को एक चेहरा नहीं दिया। चुनाव से पहले मुख्यमंत्री कैंडिडेट का ऐलान न करने के कारण ही हम बहुमत नहीं ला पाए। नीतीश का कहना था कि बिहार की जनता लालू-राबड़ी को हटाना तो चाहती है। मगर उनकी जगह कौन लेगा, ये नहीं बताए जाने के कारण ठीक से निर्णय नहीं ले पा रही है। जेटली इस तर्क से सहमत थे, मगर उस समय जेटली को ज़्यादा ज़रूरी ये लग रहा था कि सरकार बनाई जाए। नीतीश को CM दावेदार बनाने को लेकर बीजेपी का बड़ा सेक्शन तैयार नहीं था। ऐसे में जेटली ने नीतीश के नाम पर सहमति बनाने में बड़ी मेहनत की, वाजपेयी और प्रमोद महाजन, दोनों जेटली से सहमत हो गए।
बहरहाल, नरेंद्र मोदी हो या बिहार के सीएम नीतीश कुमार दोनों ने एक बेहद करीबी मित्र खो दिया, जिन पर वे कई मामलों में निर्भर रहते थे। जेटली के देहांत के साथ आम सहमति, हास्य, चतुराई, दृष्टिकोण, हाजिरजवाबी और विनम्रता से भरे कुशल नेतृत्व के एक युग का अवसान सा हो गया। -अभिनय आकाश