By अजय कुमार | Dec 01, 2022
उत्तर प्रदेश में इस समय मुलायम सिंह यादव के निधन से खाली हुई मैनपुरी और दो विधायकों के सजायाफ्ता होने के चलते रामपुर और खतौली विधानसभा के उपचुनाव में बसपा के दूरी बनाने के चलते भाजपा और समाजवादी पार्टी के लोग बसपा के वोटरों का अपने पाले में खींचने में लगे हैं। इसमें जो भी पार्टी सफल हो जाएगी उसकी जीत की संभावनाएं काफी बढ़ जाएंगी। इन चुनावों में बसपा ने खुद को लड़ाई से बाहर रखा है। वहीं बसपा सुप्रीमो मायावती ने अपने कोर वोटरों को ऐसा कोई मैसेज नहीं दिया जिससे वह तय कर पाएं कि उन्हें किस पार्टी और उम्मीदवार के पक्ष में मतदान करना है। वैसे ऐसा पहली बार नहीं होने जा रहा है, बसपा अक्सर उपचुनावों से दूरी बनाकर चलती है जिसका कभी भाजपा को फायदा होता तो कभी सपा को। ऐसे में सबकी नजरें इस पर टिकी हैं कि उपचुनाव में बीएसपी की गैरमौजूदगी में उसका वोटर क्या करेगा? चुनाव में आमने-सामने खड़े भाजपा और सपा भी इस सवाल को हल करने में जुटे हैं, जिससे बीएसपी के वोट उनकी संभावनाओं को और बेहतर बना सकें।
गौरतलब है कि इसी महीने नवंबर की शुरुआत में आए लखीमपुर की गोला गोकर्णनाथ विधानसभा उपचुनाव के नतीजों के बाद बसपा प्रमुख मायावती की प्रतिक्रिया काफी दिलचस्प थी। उन्होंने कहा, 'उपचुनाव भाजपा की जीत से ज्यादा सपा की 34,298 वोटों से करारी हार के लिए काफी चर्चाओं में है। बीएसपी जब अधिकांशतः उपचुनाव नहीं लड़ती है और यहां भी चुनाव मैदान में नहीं थी तो अब सपा अपनी इस हार के लिए कौन-सा नया बहाना बनाएगी?' मायावती ने इस तंज के साथ सपा को यह चुनौती भी दे डाली कि क्या वह रामपुर और आजमगढ़ की अपनी पुरानी सीट फिर जीत पाएगी या वह भाजपा को हराने में सक्षम नहीं है। दरअसल, मायावती के इस तंज में उनके कोर वोटरों के लिए खुली संभावनाओं और भविष्य के संकेत तलाशे जा सकते हैं।
बसपा सुप्रीमो के लिए चिंता का विषय है कि उनके कोर वोटरों का मिजाज बदल रहा है। बसपा जब भी सत्ता से बाहर रही उसने उपचुनाव से परहेज किया। 2017 के पहले तब तक जब उसका जमीन पुख्ता थी, तो उसकी गैरमौजूदगी में उसका वोटर स्थानीय समीकरणों और प्रत्याशी से रिश्तों के आधार पर फैसले लेता था। लेकिन भाजपा के उभार के बीच बसपा के कोर वोटों में हुई सेंधमारी ने काफी कुछ बदला है। कभी मायावती के इशारे पर किसी के साथ खड़े होने वाले कोर वोटर अब चुनाव में बसपा की मौजूदगी के बाद भी खिसकते नजर आए हैं। 2019 का लोकसभा चुनाव इसकी सबसे बड़ी नजीर है।
सपा-बसपा साथ आने के बाद भी महज 15 लोकसभा सीटें जीत पाए। इसमें भी सपा जिन 5 सीटों पर जीत उसमें 3 मुस्लिम बहुल और दो मुस्लिम-यादव बहुल सीटें थीं। यहां तक कि मैनुपरी में जहां दलित प्रभावी संख्या में हैं, वहां बसपा प्रमुख मायावती के मुलायम के पक्ष में रैली करने के बाद भी 3 लाख से अधिक वोटों के जीत का अंतर घटकर 95 हजार पर आ गया। यह इशारा है कि बसपा के वोटरों ने भी अपने विकल्प अब खुले रखे हैं। 2022 के विधानसभा चुनाव के बाद हुए उपचुनावों के नतीजे बसपा के मैदान में रहने और न रहने, दोनों के ही असर की तस्वीर दिखाते हैं। आजमगढ़ लोकसभा उपचुनाव में बसपा ने मजबूत मुस्लिम चेहरे को उतारा। बसपा की मजबूत सेंधमारी का असर यह रहा कि जिस सीट को 2019 में सपा 2.50 लाख से अधिक वोटों के अंतर से जीती थी, उसे 10 हजार वोटों से भाजपा से हार गई। इसी तरह रामपुर सीट बसपा के साथ मिलकर सपा ने 1.10 लाख वोटों से जीती थी। बसपा उपचुनाव में बाहर हुई तो यह सीट भाजपा करीब 32 हजार वोटों से जीत गई। ऐसे में उपचुनावों में बसपा का रहना और न रहना दोनों ही नतीजे तय करता हुआ दिखाई दे रहा है।
यूपी में जिन तीन सीटों पर चुनाव हो रहे हैं, वहां भी बसपा के वोट नतीजों का रुख बदलने में सक्षम हैं। मसलन, मैनपुरी सीट पर ही डेढ़ लाख से अधिक दलित वोटर हैं। सपा और भाजपा अपने परंपरागत वोटों के साथ गोलबंद हैं, लेकिन दोनों का पता है कि बसपा का दलित वोट बैंक लड़ाई का पलड़ा उठाने-झुकाने के लिए अहम है। इसलिए भाजपा योजनाओं के फायदे और मायावती के 'चढ़ गुंडों की छाती पर...' नारे याद दिला उन्हें जोड़ने में लगी है। वहीं, पार्टी के दलित चेहरों को सक्रिय करने के साथ ही सपा मुखिया अखिलेश यादव खुद भी बसपा के कोर वोटरों के बीच पसीना बहा रहे हैं। रामपुर में करीब 20 हजार और खतौली विधानसभा में करीब 50 हजार दलित वोटर हैं। खतौली में जहां भाजपा ने अति पिछड़ी बिरादरी की महिला को टिकट दिया है। वहीं, रालोद ने गुर्जर बिरादरी के मदन भैया को उम्मीदवार बनाया है, जिनकी बाहुबली की छवि है। मायावती के 'परोक्ष' संदेश के बीच उनके वोटरों को भाजपा या सपा गठबंधन में जो भी अपने पाले में खींच पाया, उसके लिए जीत के पाले में खड़ा होना आसान हो जाएगा। वैसे भी राजनीति संभावनाओं का खेल है यह संभावना कभी खत्म नहीं होती है।
- अजय कुमार