रामचरित के प्रथम गायक आदिकवि वाल्मीकि ने राम को धर्म की प्रतिमूर्ति कहा है। उनके अनुसार- ‘रामो विग्रहवान धर्मः।’ अर्थात राम धर्म का साक्षात श्री-विग्रह हैं। धर्म को मनीषियों ने विविध प्रकार से व्याख्यिायित किया है। महाराज मनु के अनुसार -धृति, क्षमा, दमन (दुष्टों का दमन), अस्तेय (चोरी न करना), शुचिता, इन्द्रिय-निग्रह (समाज विरोधी, परपीड़नकारी इच्छाओं पर नियन्त्रण), धी, विद्या, सत्यनिष्ठा और अक्रोध--धर्म के दस लक्षण हैं।
श्रीराम के पवित्र-चरित्र में धर्म के इन समस्त लक्षणों का सम्यक् निर्वाह मिलता है। वनवास के अवसर पर ‘धृति’ अर्थात धैर्य का जैसा अपूर्व प्रदर्शन राम ने किया वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। जिस परिस्थिति में स्वयं महाराज दशरथ अधीर हैं; राजपरिवार अधीर है; मंत्री सुमन्त और अयोध्या की प्रजा अधीर है उस स्थिति में राम ‘धीर’ हैं। कैसा आश्चर्यजनक प्रसंग है! राम का अधिकार-वंचित होना सबकी अधीरता का कारण बनता है किन्तु स्वयं राम अधीर नहीं होते। उनकी यह धीरता ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ में वर्णित कर्मयोग के सिद्धान्त का व्यावहारिक परिचय है। उस समय अयोध्या में केवल चार जन ही धीर हैं- दो स्त्रियाँ और दो पुरूष। स्त्रियों में कैकेयी और मंथरा जो सबकी अधीरता का कारण हैं। पुरूषों में प्रथम परमज्ञानी ब्रह्मर्षि वशिष्ठ, जो त्रिकालज्ञ होने से समस्त घटनाक्रम से सुपरिचित होने के कारण विचलित नहीं होते और दूसरे स्वयं श्रीराम जो स्वयं परम ब्रह्म होने से माया से परे हैं। साथ ही मानवीय धरातल पर भी गुरूदेव वशिष्ठ के शिष्य होने के कारण धर्म-पथ पर ‘धृति’ का पालन कर्तव्य समझते हैं। इस प्रकार धर्म के प्रथम लक्षण धृति के निकष पर वे शत-प्रतिशत खरे उतरते हैं।
‘क्षमा’ धर्म का द्वितीय लक्षण है। स्वयं को राज्याभिषेक से वंचित कर चौदह वर्ष का सुदीर्घ वनवास दिलाने वाली; पिता के आकस्मिक निधन का कारण बनने वाली और सारी अयोध्या की प्राणप्रिय प्रजा को शोक सागर में धकेलने वाली विमाता कैकेयी को राम जैसा विरला धर्मावतार ही क्षमा कर सकता है। स्वयं भरत अपनी जिस जननी को क्षमा नहीं कर सके उसके प्रति राम ने लेशमात्र भी कभी क्षोभ प्रकट नहीं किया। क्षमा के उदात्त मूल्य का यह परिपालन राम द्वारा ही संभव है।
धर्म का तृतीय लक्षण ‘दम’ है। दम की व्याख्या प्रायः विषय वासनाओं के दमन के संदर्भ में मिलती है किन्तु मनुस्मृति के उपर्युक्त श्लोक में प्रयुक्त ‘इन्द्रिय निग्रह’ शब्द इस अर्थ को अधिक स्पष्ट करता है। वस्तुतः ‘दम’ का अर्थ समाज विरोधी आततायी-अत्याचारी शक्तियों के दमन से लिया जाना अधिक युक्तियुक्त है। महर्षि व्यास ने ‘परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीड़नम्’ लिखकर और गोस्वामी तुलसीदास ने ‘परहित सरिस धरम नहिं भाई’ लिखकर पुण्य की, धर्म की सटीक परिभाषा दी है। दुष्ट-दलन भी धर्मपालन का ही महत्त्वपूर्ण अंग है। धर्म की प्रतिरूप समस्त देवशक्तियाँ इसी कारण शस्त्रयुक्त दर्शायी गयी हैं। ‘परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्’ से भी धर्म का यही पक्ष स्पष्ट होता है। अतः धर्म के दस लक्षणों में वर्णित ‘दम’ का आशय दुष्टशक्तियों के दमन से ग्रहण करना असंगत नहीं है। श्रीराम का सम्पूर्ण जीवन धर्मपालन के इस परिपार्श्व को सर्वथा समर्पित है।
धर्म के अन्य सात लक्षणों में अस्तेय अर्थात चोरी न करना, शौचम् अर्थात मन, वाणी और कर्म की पवित्रता का निर्वाह, इन्द्रियनिग्रह अर्थात विषय वासनाओं मानवीय दुर्बलताओं पर नियन्त्रण, धी अर्थात बुद्धि-विवेक से कार्य-निष्पादन, विद्या का सर्वोत्तम सदुपयोग, सत्य का परिपालन और अक्रोध अर्थात शान्त स्वभाव से दायित्व-निर्वाह करने में श्रीराम अद्वितीय हैं। इसलिए मनु-निर्देशित धर्म के उपर्युक्त दस लक्षणों का सर्वथा और सर्वदा पालन करने वाले श्रीराम को वाल्मीकि द्वारा विग्रहवान धर्म कहा जाना युक्तियुक्त है। वस्तुतः राम धर्मपालन के आदर्श प्रतिमान हैं। पारिवारिक सामाजिक मर्यादाओं के संदर्भ में उनका कृतित्व अनुकरणीय है।
डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र
विभागाध्यक्ष-हिन्दी
शासकीय नर्मदा स्नातकोत्तर महाविद्यालय, होशंगाबाद म.प्र.